डायलॉग प्लस
बालिका वधू सीरियल के बंद होने के बाद इस सीरियल
के लेखक पूर्णेंदु शेखर से स्क्रीन राइटर गौतम सिद्धार्थ ने लम्बी बातचीत की...जिसके खास अंश:-
-भारत में रिकॉर्ड समय तक चले इस डेली सोप को छोड़ना आपको
कितना भावुक बनाता है?
बहुत
ज्यादा, मैंने कभी ये सोचा नहीं था कि बालिका वधू चलेगा और मैं
उसका हिस्सा नहीं होऊंगा। क्योंकि मेरे पिछले दो सीरियल ज्योति और सात फेरे, बहुत अच्छे बने थे जोकि मेरे छोड़ने के बाद
खराब हो गये। और जिस सीरियल पर मैंने पिछले आठ सालों में अपना सब कुछ लगा दिया था।
मैं नहीं चाहता था कि इसकी भी वैसी ही दुर्गति हो।
-ये सीरियल आपको क्यों छोड़ना पड़ा?
क्योंकि
ये लोग मुझसे अस्तित्व एक प्रेम कथा, जैसा कुछ फिर से लिखवाना चाहते थे। जो बालिका वधू का विषय
ही नहीं था। और आलम ये कि चैनल ने मुझसे बिना पूछे किसी और से ये सीरियल लिखवा भी लिया।
-फिल्म जैसी कहानी को सीरियल में बनाने की ज़रूरत क्यों पड़ी?
क्योंकि
फिल्म बनाने वालों तक पहुंच नहीं थी। (हंसी...) जब मैं एक्टिंग में स्ट्रगल कर रहा
था तब मैंने यही कहानी अपने एक मित्र प्रमोद सोनी को सुनाई थी। तब उसने कहा था कि इस
पर फिल्म लिखो और मैंने लिख दी। लेकिन उसके बाद कुछ नहीं हुआ।
-कलर्स टीवी के पहले बालिका वधू की कहानी कहां कहां गई
और क्या क्या रिएक्शन मिले?
जज्बात
सीरियल के प्रोड्यूसर विनोद शर्मा ने इसे डीडी पर जमा किया था, क्योंकि ये विषय गर्ल
चाईल्ड मिनिस्ट्री से पास हो सकता था। लेकिन वो डीडी पर अप्रूव नहीं हुआ। संजय
वाधवा ने भी इस कहानी को ये कह कर टाल दिया था कि कभी डीडी के लिए कुछ करेंगे तो
इसे सोचेंगे। और जब ये कलर्स पर शुरू होने वाला था, तो लोगों ने पूछा कि ये
पीरियड शो है? अब बाल विवाह कहां होते हैं?
-क्या आपको उम्मीद थी कि ये कॉरपोरेट परिवार की कहानियों
को टक्कर देगी?
नहीं।
सबको लग रहा था कि ये गांव के बैकग्राऊंड वाला विषय कैसे चलेगा? वो भी
सेटेलाईट चैनल पर? सीरियल बनने से पहले कलर्स के मुखिया और क्रिएटिव टीम के
साथ इस मुद्दे पर बात हुई थी। सबको पहले यह लगा कि कहीं यह डीडी के सीरियल जैसा ना
हो जाए। लेकिन फिर यह तर्क भी आया कि नहीं, भले ही इसकी कहानी ग्रामीण हो, साधारण
हो लेकिन इसकी भव्यता और इसका ट्रीटमेंट तो सेटेलाइट चैनल जैसा ही होगा, इसलिए यह
जरूर प्रभावी होगा। इसी धारणा के साथ सीरियल को बनाना शुरू हुआ और संयोग देखिए,
लोगों को खूब पसंद आ गया।
-बालिका वधू की खासियत क्या थी?
इसमें
शॉकिंग वैल्यू थी। ये सेटेलाईट चैनल पर चलने वाली अनरियल कहानियों के बीच एक रियल कहानी
थी। और मुख्य किरदार बच्ची थी। और उसमें कई विषयों को छुआ गया था जो किसी और सीरियल
में नहीं होता। जैसे चंदा का चरित्र। ये ऐसा सीरियल था जिसमें जेनेरेशन लीप नहीं
था,
बल्कि टाइम लीप था।
-हिंदी के सीरियल बाकी भाषाओं के सीरियल के मुकाबले कहां
खड़े होते हैं?
बहुत
नीचे, देखो गौतम क्या है, कि रीजनल सीरियल का निर्देशक
अपने परिवेश और अपनी वैल्यू के मुताबिक सीरियल बनाता है और उसे उनका दर्शक देखता
है। जबकि आज हिंदी के जनरल इंटरटेंमेंट चैनल्स का दर्शक वर्ग एक ऐसे तबके का है जो
एजूकेशन पर ध्यान नहीं देता। और पिछले कुछ समय के आकड़े ये बताते हैं कि ज्यादातर
टेलीविजन सेट और डिश ऐसे ही निचले तबके के लोगों ने खरीदे हैं जो अनएजुकेटेड हैं, और वही
टारगेट ऑडियंस है। इसीलिये साथिया, ससुराल सिमर का और नागिन जैसे सीरियलों ने ज़ोर पकड़ लिया
है। तो हिंदी के सीरियल्स कंटेंट गिर गया। वहीं मराठी और तेलगू के सीरियल्स के
कंटेंट देखिये।
-पुल्ली,
सुगना और निवोली के चरित्रों में से आपको कौन प्रभावित करता है?
मैं पुल्ली
के ज़रिये नाता प्रथा को सिर्फ़ छू भर सका था। लेकिन सुगना, एक ऐसा चरित्र थी, जो कहानी को
आगे बढ़ाती थी। जो अपने होने वाले पति से गर्भवती थी और उसका होनेवाला पति गौने के
दिन चल बसा। ये एक ऐसा चरित्र जिसकी कोई गलती नहीं थी, फिर भी समाज
में उसे धिक्कार का सामना करना पड़ रहा था। किसी भी नारी के लिये ये बहुत दुर्भाग्यपूर्ण
था।
-निबोली और कुंदन के चरित्रों को लाकर क्या आपने कहानी
को रिपीट नहीं किया?
नहीं, निबोली और कुंदन का
चरित्र वो था, जिसमें चाइल्ड मोलेस्टेशन पर जोर था। ये बात आनंदी और जग्या के बचपन के समय में, मैं नहीं कह
पाया था, क्योंकि आनंदी को जल्दी बड़ा करना पड़ा। और इसके साथ निबोली
की कहानी से मुझे पितृसत्ता से होने वाली बुराइयों को उजागर करने का मौका मिला, यानी
अखिराज। और कहानी भी बालिका वधू के कॉन्सेप्ट से ही जुड़ी रही। इसलिये हमने कुछ
रिपीट नहीं किया।
-आपने आनन्दी को ही अपनी कहानी का मुख्य पात्र क्यों
बनाया?
मेरे
लिये चरित्र मुख्य नहीं है, विषय प्रमुख है। क्योंकि विषय बालिका वधू था, इसलिये ये बच्ची मुख्य
पात्र थी, उसका नाम कुछ भी हो सकता था। पहले इसका नाम गंगा था। बाद
में आनंदी रखा गया।
-बालिका वधू के इतना हिट होने जाने के बाद
आपको ये नहीं लगता कि काश! इस विषय पर फिल्म बनी होती?
हां, लगता है, अगर इस पर फिल्म बनी होती
तो ज़रूर कोई बड़ा अवॉर्ड जीतती। लेकिन बालिका वधू को लेकर कई घटनाएं ऐसी घटीं, जिन्होंने मुझे अवॉर्ड से ज्यादा संतुष्टि दी।
जैसे मेरे एक दोस्त की बेटी ने मुझे बताया कि वो देर रात को लोकल से लौट रही थी और
उसके सामने दो मुस्लिम औरतें बैठी बातें कर रही थीं। एक का कहना था कि उसने अपनी
तेरह साला बेटी की शादी तय कर दी है, लड़का बहुत अच्छा है वगैरह वगैरह। फिर उसने दूसरी औरत से पूछा कि तेरी बेटी भी
तो मेरी बेटी की उमर की है? तू उसका भी निकाह
कर दे ना। तो दूसरी औरत ने कहा कि ना, मैं अपनी बेटी की शादी अभी नहीं करूंगी, तू बालिका वधू देखती नहीं क्या? इसी तरह की और भी घटनाएं हैं, जिन्होंने मुझे ये एहसास दिलाया कि सीरियल के
ज़रिये मैं अपनी बात एक बड़े तबके तक पहुंचा पाया, जो शायद फिल्म से ना हो पाता।
(पिक्चर प्लस जुलाई-अगस्त,2016 से साभार)
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