पिक्चर प्लस डिस्कवर...
हिन्दी सिनेमा की पहली संगीतकार जोड़ी हुस्नलाल
भगतराम का नाम संभवत: हरेक संगीतप्रेमी को मालूम
होगा। आजादी से पहले और उसके तुरंत बाद की कई फिल्मों में उन्होंने बहुत ही मशहूर
संगीत दिया है। लेकिन हुस्नलाल भगतराम का परिवार आज कहां और किस हाल में है, संभवत: बहुत कम लोगों को मालूम हो। वास्तव में दोनों
सगे भाई थे जोकि संगीतकार पं. अमरनाथ से छोटे थे। बाद के दिनों में दोनों भाई
अलग-अलग हो गए। भगतराम मुंबई ही रहे जबकि हुस्नलाल दिल्ली आकर बस गए। पिक्चर प्लस पत्रिका
ने गुजरे जमाने की मशहूर किन्तु वर्तमान में गुमनाम जिंदगी जी रहे कलाकारों के
डिस्कवर का अभियान चलाया है, उसी मुहिम के तहत पत्रिका के संपादक संजीव श्रीवास्तव ने हुस्नलाल की पत्नी निर्मला देवी से खास
मुलाकात की। और उनकी रिहाइश की तलाश की
रोशन हमारे गैराज में रहते थे
ख्य्याम को प्रेम कुमार बनाकर घर में रखा था
सुनो भई घुड़सवार, मगध किधर
है
मगध से आया हूं
मगध मुझे जाना है
किधर मुड़ूं
उत्तर के दक्षिण
या पूर्व के पश्चिम
में?
लो, वह दिखाई पड़ा मगध,
लो, वह अदृश्य...
-श्रीकांत वर्मा (‘मगध’से)
आप कहेंगे इस वक्त श्रीकांत वर्मा की कविता मगध
क्यों? लेकिन यहां की सारी
कहानी पढ़ने पर गौरव और ग्लानि का जो बोध होगा-वह बोध वास्तव में श्रीकांत वर्मा
के मगध की त्रासदी के बोध से जरा भी कम नहीं। गौरतलब है कि श्रीकांत वर्मा ने यह
कविता जब लिखी थी, तब हिन्दी सिनेमा के उस काल में शब्द और लय की जुगलबंदी का अपना साम्राज्य था।
और उस साम्राज्य के सभी मुरीद थे। लेकिन कालांतर में जब किलेकार नहीं रहे ना ही
उनके फ़न के कद्रदान तो उनकी कला के साम्राज्य का नामोंनिशां भी मिटता गया।
श्रीकांत वर्मा को मगध के इतिहास का जितना गौरव हुआ था, उतनी ही ग्लानि भी। गौरव
और ग्लानि की दुरभिसंधि पर खड़े श्रीकांत वर्मा अपनी कविता में एकालाप करते रहे,
लेकिन दुनिया के रसिक आलोचकों को संस्कृति की उस खतरनाक करवटों की मानों कोई परवाह
ही नहीं थी। मगध में खड़े होकर मगध की लताश करते रहे ना मगध मिला, ना मगध की
संस्कृति मिली, ना ही मगध में मगधवासी ही मिले।
वह तो सैकड़ों साल का अंतराल था। सभ्यता और
संस्कृति के विकास की करवटें बदलती एक लंबी चरणबद्ध कहानी। लेकिन वर्तमान दिल्ली
में महज पचास साल पहले की दिल्ली की तलाश? वाकई यहां गौरव की तो कोई वजह ही नहीं, गोयाकि महज
ग्लानि ही ग्लानि का अहसास था। फिल्म इंडस्ट्री की नई पीढ़ी में कितनों को संगीतकार
हुस्नलाल भगतराम के बारे में मालूम है? गाने तो खूब सुनते होंगे-“ओ दूर जाने वाले वादा ना भूल जाना”, “वो पास रहें या दूर रहें नज़रों में समाये रहते हैं”, “चले जाना नहीं नैन मिलाके
सैयां बेदर्दी”,”इक दिल के टुकड़े हज़ार हुए कोई यहां गिरा कोई वहां गिरा”,”तेरे नैनों ने चोरी किया मेरा छोटा सा जिया परदेसिया” लेकिन इनकी लय बनाने वाले
धुनों के उस बारीक कारीगर के हुनर के बारे में आज कितनों को पता है। ये तो भला हो रायपुर
के सिने रसिक बलराज बहल का जिन्होंने हमें फोन पर जानकारी दी कि आप सिनेमा पर
पत्रिका निकाल रहे हैं, क्या आपको मालूम है कि हिन्दी सिनेमा की प्रथम संगीतकार
जोड़ी में से एक हुस्नलाल की पत्नी आपकी दिल्ली में ही रहती हैं? वाकई फोन पर ऐसा सुनना और दिल्ली में खड़े होकर दिल्ली को
ढूंढ़ना मानों एक समान था।
सिने प्रेमी बलराज बहल ने हमें हुस्नलाल की
पत्नी निर्मला देवी जी का फोन नंबर दिया। मैंने पूछा-क्या वो बात करने में सक्षम
हैं? और क्या परिवार के
सदस्य उनसे औपचारिक इंटरव्यू करने की इजाजत देंगे? उन्होंने कहा-आप इसकी चिंता
मत कीजिए। बस आप उनसे इस नंबर पर फोन कर टाइम ले लीजिए।
मैंने उनको फोन किया।
रिसीवर उठने की खड़कती हुई सी आवाज़ आई और फिर-
“हेलोsss” जैसे कोई विलंबित स्वर था।
“नमस्कार। क्या मैं
निर्मला जी से बात कर सकता हूं?”उस सुरीले स्वर में मेरी
भरसक मधुर याचना।
“हां हां क्यों नहीं।
आप कौन बोल रहे हैं”?
मैंने अपना नाम बताया। तो उन्होंने कहा-“जी कहिए, मैं ही निर्मला देवी ही बोल रही हूं।“
“मैं आपसे मिलना
चाहता हूं।”
“किसलिए मिलना चाहते
हैं?”
“अपनी पत्रिका में
आपका इंटरव्यू प्रकाशित करना चाहता हूं। हुस्नलाल-भगतराम जी के बारे में आपसे अधिक
ऑथेंटिक और कौन बता सकता है, अगर आपकी इजाजत हो।”
निर्मला जी की खामोशी जैसे मुस्कान का अहसास
कराने लगी थी।
“आप कब आना चाहेंगे?”
“जो आप टाइम देगीं।”
“कल आप अपनी सहूलियत
के हिसाब से आ जाइए। मैं तो घर पर ही रहती हूं। आप अपने काम का टाइम देख लीजिए।
बस, आने से पहले आने की सूचना जरूर दे दीजिए।“
“जी धन्यवाद। कल मैं
11 बजे आपके पास आता हूं।“
“क्या आपको मेरे घर
का पता मालूम है”? उन्होंने पूछा था।
मैंने कहा-“हां, पहाड़गंज में
इम्पीरियल सिनेमा हॉल के पास है ना?”
“जी हां। हमारे घर के
सामने गेराज है, नीचे रेस्टोरेंट है, उसके ऊपर मैं रहती हूं।”
फोन रखने के बाद निर्मला जी की सधी और खनकदार
आवाज़ ने मुझे बेहद प्रभावित कर दिया। उस आवाज को सुनने के बाद कोई नहीं कह सकता
कि वह अस्सी वर्ष से अधिक आयु की महिला की आवाज थी। आत्मविश्वास की ठसक, गौरवांवित
पलों की आपबीती बताने की शान भरी चेष्टा।
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कल होकर ठीक दस बजे मैंने फोनकर उन्हें आने की
सूचना दे दी। और घर से रवाना हो गया। साथ में मेरी पुत्री शाश्वती भी थी।
कुछ देर पहले बारिश ने दिल्ली की आबोहवा को भीगो
के रख दिया था। गर्मी काफ़ूर हो चुकी थी। हम दोनों उनकी बताई हुई जगह पर पहुंच गये
थे। आर.के.आश्रम मेट्रो स्टेशन से महज दो सौ कदम दूर। हम इम्पीरियल सिनेमा हॉल
पूछकर उस जगह पहुंच गये थे। नजारा वैसा ही था, जैसा कि उन्होंने फोन पर बयां किया
था। बंद हो चुका इम्पीरियल सिनेमा हॉल अपने इतिहास का मौन गवाह बन कर सामने खड़ा
था। अब उससे क्या पूछता कि पं. अमरनाथ जी का घर कौन है। निर्मला जी ने फोन पर यही
बताया था कि यहां आकर लोगों से पं. अमरनाथ जी का घर पूछें तो लोग बता देंगे।
पुराने ज़माने की बसाहट है, मकान नंबर का कोई तयबद्ध सिलसिला नहीं है। इम्पीरियल
सिनेमा के पास ही एक गेराज दिखा। लेकिन वो भी मामूली सा। उसके सामने एक रेस्टोरेंट
दिखा-वास्तव में उसे आज की भाषा में रेस्टोरेंट नहीं कहना चाहिए-वह तो छोटा सा
ढाबा था।
वहीं एक शख्स से मैंने पूछा-पं. अमरनाथ जी का घर
कौन सा है?
जवाब मिला-नहीं जानता। आगे पूछ लूं।
आगे पूछा-वहां भी वही जवाब-नहीं जानता-आगे पूछ
लूं। कई और लोगों से पूछा-सबने मना कर दिया। मुझे लगा ये लोग संभवत: पं. अमरनाथ जी का नाम ही नहीं
जानते होंगे। आगे बढ़ा एक ज्वैलरी की दुकान में गया और वहां वही सवाल दुहराया।
जवाब मिला—वो जो सामने ढाबा दिख रहा है न, और उसके ऊपर जो टूटा हुआ मकान है-वही है
पं. अमरनाथ जी का घर। उसी में रहती हैं निर्मला देवी जी।
मैंने उस शख्स को धन्यवाद दिया। सोचा कोई तो है
जो उनके नाम से उनके घर को पहचानता है।
हम दोनों उस मकान के पास पहुंचे, लेकिन समझ नहीं
आया कैसे अंदर जायें। ढाबे मालिक से पूछा-तो उन्होंने कहा-ये बगल में टूटी दीवारों
वाली गली दिख रही है, उससे होकर ऊपर जाइए।
हम दोनों उस गली के अंदर गए-फिर-उन्हीं घुमावदार
सीढियों से होते हुए दूसरी मंजिल पर पहुंचे, दीवारों को देख लगा मानो हम दीमक खाई
किसी पुस्तक के पन्ने पलट रहे हों।
ऊपर पहुंच कर दिखा मकान का आधा हिस्सा एक तरफ से
टूटा हुआ था।
तभी एक महिला नजर आईं। उनसे निर्मला जी के बारे
में पूछा। वो महिला हम दोनों को निर्मला जी तक ले गईं। बाद में पता चला कि वह
निर्मला जी की बहू थीं। हम दोनों को देखते ही सोफ़े पर बैठी निर्मला जी के चेहरे
पर भी निर्मल मुस्कान खिल आईं।
“आइए आइए...”कहकर उन्होंने पास बिठाया। मैंने पांव छूकर
प्रणाम किया।
सोफ़े पर जिस तरफ वो बैठी थीं-उसके पास ही
लैंडलाइन फोन रखा था। हर आने वाले फोन को झट से उठा लेती थीं। कमरे की दीवारों पर
हुस्नलाल-भगतराम की बड़ी बड़ी तस्वीरें लगी थीं। कहीं दोनों भाई साथ-साथ, कहीं भगतरामजी
का परिवार तो कहीं हुस्नलाल जी का परिवार था। उन्हीं तस्वीरों में एक आकर्षक
तस्वीर को देखकर मैंने पूछा-“क्या ये तस्वीर आपकी है”?
मुस्करा कर बोलीं-“अरे आपने तो मेरी पचास साल
पुरानी तस्वीर को झट से पहचान लिया”। जीहां, बोलकर मैं भी मुस्कराने लगा।
इतने में उनकी पोती चाय लेकर आ गईं। और फिर
बातचीत का सिलसिला शुरू हो गया।
सबसे पहला सवाल यही था कि हुस्नलाल-भगतराम की
बतौर संगीतकार की जोड़ी कैसे बनी?
उन्होंने कहा-बात करीब 43 की है, हमलोग दिल्ली
से लाहौर चले गए थे। पं. अमरनाथ जी जोकि हुस्नलाल-भगतराम जी के बड़े भाई थे, उनको
रिकॉर्डिंग के लिए कभी करांची तो कभी लाहौर भी जाना पड़ता था। तब लौहार में ही
फिल्म इंडस्ट्री होती थी। इसी बीच प्रभात स्टूडियो मुंबई से बीडी कश्यप उनसे मिलने
आए। उन्हें एक पंजाबी संगीतकार की जरूरत थी। लेकिन पं. अमरनाथ जी ने कहा उनका तो
दो साल का कांट्रेक्ट है। किसी और के साथ काम नहीं कर सकते। हमारे छोटे भाई को ले
जाओ। वह पंजाबी म्यूजिक दे देगा। इस तरह हुस्नलाल जी को संगीत देने का काम मिला।
कांट्रेक्ट में हुस्नलाल जी का साइन हुआ। लेकिन बाद में भगतराम भी जुड़ गए तो
दोनों की जोड़ी बन गई-हुस्नलाल-भगतराम। वो आगे बताती रहीं- भगतराम बड़े थे जबकि
हुस्नलाल जी छोटे। लेकिन जोड़ी में हुस्नलाल जी का नाम पहले आता है वह इसलिए
क्योंकि कांट्रेक्ट में उन्हीं का नाम पहले लिखा गया था। और भगतराम जी का नाम बाद
में शामिल किया गया था। इनकी पहली फिल्म चांद थी। दोनों भाई साथ-साथ रहते थे।
साथ-साथ काम करते थे। इस तरह बॉलीवुड की पहली संगीतकार जोड़ी बनी। हुस्नलाल, भगतराम
अपने बड़े भाई पं. अमरनाथ के शागिर्द भी थे। पं. अमरनाथ की आखिरी फिल्म थी-मिर्जा
साहिबां, जिसका संगीत इन दोनों भाइयों ने ही पूरा किया था। वह के. आसिफ की फिल्म
थी। वह पार्टीशन का साल था। मैं तब मुंबई में ही थी। पं. अमरनाथ जी को दिल्ली से
मुंबई से जाना था। लेकिन तभी उनका निधन हो गया था।
आपका हुस्नलाल जी से संपर्क
कब और कैसे हुआ?
मेरा जन्म रोपड़ का है। पिताजी सरकारी ठेकेदार
थे। पीडब्ल्यूडी के ठेकेदार थे। उनके साथ हमलोग दिल्ली आ गए। वैसे हमलोग पंजाब से
हैं। जालंधर के पास हमारा गांव था। हमारे पिताजी भी गाते थे। संगीत के जानकार थे।
पंजाबी होने के नाते हमारे परिवार और इनके परिवार के बीच दोस्ताना था। ऊपर से
दोनों परिवार के लोग संगीत से भी जुड़े थे। इनके भी घर गाना-बजाना होता था। हमलोग
देखते-सुनते थे। हमारे घर इन दोनों भाइयों का आना जाना होता रहता था। संगीत के
चलते दोनों परिवार के बीच पहले दोस्ती फिर रिश्ता भी हुआ। मैं 9वीं में थी तभी
मेरी शादी हो गई थी। कुछ समय दिल्ली रहे फिर शादी के बाद लाहौर चले
गए। पं. अमरनाथ जी सबको लेकर वहां चले गए। हमारे पति के सबसे बड़े भाई थे पं.
अमरनाथ जी। वो ही पूरे परिवार के गार्जियन थे। हमारे ससुर जी भी गाते थे। अमरनाथ
जी खुद भी वायनिल और तबला बजाते थे। वो अपने दोनों भाइयों को बहुत प्यार करते थे।
हुस्नलाल भगतराम जी की
शख्सियत की वो कौन सी अहम बातें हैं जो आज की
पीढ़ी को बताना चाहेंगी?
सबसे पहले बात कहूंगी कि वो बहुत सादगीपसंद थे।
चाहे बादशाह हो या फकीर, जिनको भी सिखाया मनसे सिखाया। कभी किसी के साथ भेदभाव
नहीं किया। मुंबई में रोशन हमारे गेराज में रहते थे। उनकी पत्नी रेडियो की
आर्टिस्ट थी। वो हमारी वर्सोवा वाली कोठी के गेराज में किराये पर रहते थे। उनके
बड़े वाले बेटे राकेश रोशन जो कि पहले अभिनेता रहे फिर निर्माता-निर्देशक हो गए,
उनका जन्म उसी गैराज में ही हुआ था। वो पूरे परिवार के साथ आए थे। पंजाब से आए थे।
पाकिस्तान बन जाने के बाद फिल्म लाइन में मुंबई में पंजाबियों की संख्या बढ़ने
लगी। हमारे बाद बी.आर. चोपड़ा आए। और भी बहुत से लोग वहां आए। वहां हमारी बहुत
बड़ी कोठी थी। जिसमें तीन गेराज थे, चार सर्वेंट क्वार्टर्स थे। ख्य्याम साहब को
प्रेम कुमार बनाकर अपने घर चार महीने तक रखा था। देश का बंटवारा हुआ था। दंगे
वगैरह हो रहे थे। ख्य्याम साहब को अपने घर में पनाह दी थी। ऐसे थे दोनों भाई।
संगीतकार जोड़ी शंकर-जयकिशन के शंकर पृथ्वीराज थिएटर में तबला बजाते थे और रोल भी
करते थे। वो भी हमारे यहां मुंबई में आते थे। सीखते थे। वायलिन बजाते थे।
लक्ष्मीकांत भी वहां आते थे। वायलिन सीखते थे। लताजी के भाई हृदयनाथ मंगेशकर भी मुंबई
वाले घर पर वहां आते थे, सीखते थे। खुद लता भी आती थीं उस घर में सीखने। खासतौर पर
पंजाबी भाषा और उसके टोन सीखती थीं। वह हमारे कई कार्यक्रमों में भी आती थीं।
हुस्नलाल भगतराम जी तो संगीत के उपासक थे। बहुत से लोग उनसे सीखने आया करते थे। अब
ये अलग बात है कि आज के लोग माने या माने। लता तो खुद भी सरस्वती स्वरूपा थीं।
वैसी कलाकार तो बहुत कम होती हैं। राजेंद्र कृष्ण जी का भी हमारे घर आना जाना होता
था।
लेकिन मुंबई से दिल्ली कैसे
आ गए?
दरअसल मेरे पिताजी बीमार रहते थे। हमारे दोनों
बच्चे भी यहीं थे। बीमारी के चलते यहां आ गए। हुस्नलाल जी ऑल इंडिया रेडियो में
एडवायजरी बोर्ड के मेंबर बन गए थे। अक्सर रिकॉर्डिंग के सिलसिले में उनका यहां आना
जाना होता रहता था। आते थे एक माह के लिए और रेडियो के काम के सिलसिले में दो
महीना रह जाते थे। मैं तो पिताजी के देहांत के बाद दिल्ली ही रह गई थी। इसलिए फिर
बाद में उन्होंने भी सोचा क्यों नहीं दिल्ली ही रह लिया जाये और फिर इस तरह दिल्ली
आ गए। जिसके बाद इंडस्ट्री से हुस्नलाल जी का रिश्ता कम होता गया। और जब उनका
देहांत हो गया तो वह रिश्ता बिल्कुल ही खत्म हो गया। उन बातों के सालों गुजर गए अब
तो शायद ही किसी को मालूम कि हम कौन हैं कहां हैं?
भगतराम जी का परिवार मुंबई में ही रह गया। उनके
तीन बेटों में अशोक शर्मा सितार वादक के तौर पर मशहूर हैं, वो पं. रविशंकर जी के
शिष्य रहे हैं। मेरे बेटों को भी संगीत का शौक रहा है और बेटी प्रियंवदा वशिष्ठ तो
संगीत पढ़ाती हैं।
हुस्नलाल जी के देहांत के
बाद जाहिर है आपको काफी कठिनाइयों का सामना करना पड़ा होगा?
(चेहरे का रंग बदला। थोड़ी देर रुक कर) क्या
बताऊं? बहुत दुख झेला है।
छै बच्चे थे। मां बीमार रहती थी। सबको कैसे-कैसे संभाला है। (थोड़ी देर चुप रहकर
जल्द ही संभलीं और बात का विषय बदला)
लता मंगेश्कर जी से आपकी भी
मुलाकातें होती थीं? आपके और उनके बीच झगड़े की बात कही जाती है। इसमें क्या
सचाई है?
मेरे और उनके बारे में लोगों ने बड़ी-बड़ी बातें
लिखी हैं-क्या-क्या कहूं। काफी लोग इस बारे में पूछते रहे हैं। सबको मैंने कहा-ये
ऐसी दुनिया है कि यहां लोग किसी के साथ किसी को जोड़ देते हैं। मैं भी एक कलाकार
की बीवी हूं। मैं सब समझती हूं। मैं उनका सम्मान करती हूं एक कलाकार होने के नाते,
एक बड़ी गायिका होने के नाते। कभी किसी ने लिख दिया कि मैंने उनको थप्पड़ मारा था।
ये बात बिल्कुल गलत है।ऐसा हमारे बीच कुछ नहीं हुआ था। लता मंगेश्कर बहुत बड़ी
गायिका हैं। अब ये अलग बात है कि कई संगीतकारों से लता जी के संबंध बहुत अच्छे
नहीं रहते थे।
इतना लंबा अरसा गुजरने के
बाद और हिन्दी सिनेमा की पहली संगीतकार जोड़ी होने के नाते फिल्म इंडस्ट्री से आप
लोगों को क्या मदद मिली? क्या सरकार ने कभी आपके परिवार की सुध ली?
हमारी सरकार तो कुछ करने वाली नहीं है। इंडस्ट्री
के लोग हों या आप लोग, उनके सम्मान में ही मुझसे मिलने आते हैं। दूसरी बात कि हमें
ना तो पहले कोई अभिमान नहीं रहा ना अब है कि हम कोई बड़े कलाकार की हैसियत रखते
हैं वहीं दूसरी तरफ हम किसी से कभी कुछ मांगने जाते नहीं। हम या हमारे परिवार के
पास जितना जो कुछ है, उसमें खुश हैं। हां, इस मकान को लेकर कुछ दिक्कतें आई थीं।
मकान काफी पुराना हो चुका है। यह गिर गया था। बाद में कहा गया था कि पुरानी
बिल्डिंग होने के कारण इसे पूरा गिरा दो। मुझे पता था कि मुंबई में पुराने आर्टिस्ट
परिवार को अप्लाई करने पर सरकार की तरफ से मकान दिये जाते हैं। हमने उसे देखते हुए
दिल्ली सरकार को लिखा। तब दिल्ली में शीला दीक्षित की सरकार थी। लेकिन वहां से
जवाब आया कि हमारे पास ऐसा कोई प्रावधान नहीं है। फिल्म इंडस्ट्री की तरफ से
शुरुआत में मदद मिली थी। लेकिन बाद में सब भूल गये। अब इस मकान के नीचे के हिस्से
में जो दुकानें हैं, उनका किराया आता है।
क्या आप आज के गीत-संगीत
सुन पाती हैं? दिल्ली आने के बाद संगीत से रिश्ता किस तरह से बनाये रखा?
संगीत से रिश्ता कुछ यूं रहा कि यहां के लोग
कार्यक्रमों में बुलाते रहे। सम्मानित भी करते रहे हैं। जहां तक आज के गीत-संगीत
की बात है तो समझिये कि दिन और रात का अंतर हो गया है। मुझे तो क्लासिकल ही बहुत
पसंद आता रहा है। आज के गीत में ना बोल हैं, ना तर्ज हैं। खाली हल्ला मचाने से
थोड़े ही न संगीत हो जाता है।
बातचीत करने के दौरान ही मैं घर में चारों तरफ नजरें
भी घुमाता रहा। घर की दीवारों को देखने के बाद कोई भी कह सकता था कि उस पर कई
सालों से सफ़ेदी नहीं हुई है। हैरत इस बात की भी हुई थी कि निर्मला जी उस एक घंटे की बातचीत
बिना रुके, बिना थके करती रहीं। बीच-बीच में मैं उन्हें पानी पीने के लिए ग्लास
आगे बढ़ा देता तो वह मना कर देतीं थीं।
जब जाने के लिए उठा तो फिर वही मुस्कान चेहरे पर
थी जो यहां आने के वक्त दिखी थी।
“जब छप जाये तो बताना।“ उन्होंने जाते समय कहा था।
मुझे वहां से बाहर की ओर निकलते हुए फिर से
उन्हीं दरकी हुई दीवारों, धंसे हुए रास्ते पर वापस आते हुए मगध की ये पंक्तियां
याद आने लगीं-
बंधुओं
यह वह मगध नहीं,
तुमने जिसे पढ़ा है
किताबों में,
यह वह मगध है
जिसे तुम
मेरी तरह गंवा
चुके हो
(श्रीकांत
वर्मा की ‘मगध’ से)
अब मुझे गौरव इस बात का था कि मैंने हिन्दी
सिनेमा की प्रथम संगीतकार की जोड़ी को मानों करीब से देखा हो और ग्लानि इस बात की
थी कि उस गौरवशाली अध्याय को हमने इतिहास के पन्ने पर गौरवशाली स्थान भी नहीं दिया
था।
(पिक्चर प्लस सितंबर, 2016 में प्रकाशित)
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निर्मला भाभी जी प्रणाम
जवाब देंहटाएंअश्रु आ गये क्या लिक्खुं
धन्यवाद।
जवाब देंहटाएं