लॉंग ड्राइव - दिल्ली टू नैनीताल
जब भी मई-जून की गर्मियों की चिलचिलाती धूप हमारे
बदन के साथ साथ घर की दीवारों को जलाने लगती है तो मन किसी पहाड़ी पर जाने का होता
है | लेकिन पहाड़ों पर जाएं तो कहां जाएं? यह एक बड़ा सवाल सामने था। पिछली बार
मंसूरी और उससे पिछले साल हम कश्मीर में घूम कर आ चुके थे | खूब सोच विचार कर एवं
मित्रों की सहायता से ‘नैनीताल’ जाने का विचार बनाया | अपने गूगल देवता का सहारा
लेते हुए देखा कि नैनीताल राजधानी दिल्ली लगभग 330
किलोमीटर है |
सुबह जल्दी उठे और नहा-धोकर हमने 6 बजे
दिल्ली टू नैनीताल की अपनी यात्रा शुरू कर दी| हमारी कार तेज़ी से दिल्ली को पार
करते हुए उत्तर प्रदेश के राजनगर-एक्सटेंशन में बने ऊंचे-ऊंचे फ़्लैटों वाली इमारतों
के बीच पहुंच चुकी थी| कार सरपट भागी जा रही थी मानो इसे यह जगह पसंद ही नहीं आया
रही हो| कुछ समय बाद हम पिलखुवा कस्बे और हापुड़ बाईपास से निकलते हुए गढ़मुक्तेश्वर
पहुंचे, जिसे हम गढ़-गंगा भी कहते हैं | यह जगह दिल्ली से लगभग 120
किलोमीटर पर थी जहां तक पहुंचने में अनेक छोटे छोटे कस्बे आए| दिल्ली से गढ़-गंगा
तक पहुंचने से लगभग 2 किलीमीटर पहले से ही सड़क के दोनों तरफ सरकंडे और
लकड़ी से बने तरह-तरह के कुर्सी-मेज़, मूढा (बैठने का एक गोल स्टूल जैसा) और भी ना
जाने क्या-क्या सामान बिकने के लिए तैयार रखा हुआ था | गंगा नदी को पार करते हुए
देखा कि पानी बहुत ही कम है | कुछ लोग गंगा नदी के बीच खड़े होकर संभवतः नदी में
बहाए गए सामान को इकठ्ठा करने के प्रयास में इधर-उधर घूम रहे थे |
हम ज़ोया कस्बे से होते हुए सीधे रामपुर पहुंचे|
गजरौला से रामपुर तक पहुंचने का रास्ता बहुत सुंदर था जिसके दोनों तरफ दूर-दूर तक
फैले हुए खेत ही खेत नज़र आ रहे थे जिनके बीच में छोटे-मोटे कस्बे भी अपनी उपस्थिति
दर्ज करवा रहे थे | रास्ता इतना अच्छा बना हुआ था कि कार की रफ़्तार 100-120 के पार
कब निकल जाती, पता ही नहीं चलता था| चमकता हुआ यह रास्ता मुसाफिर को उसकी मंजिल तक
पहुंचाने में अपना लगातार योगदान देने के लिए तत्पर था | हम रामपुर पहुंचे जो कि बहुत
भीड़-भाड़ वाला क्षेत्र नज़र आया | सड़क के दोनों तरफ जगह-जगह छोटी-छोटी दुकानें, फलों
की रेडियां, बड़े-बड़े ट्रक और खूब शोर शराबा| इस माहौल ने हमें पुरानी दिल्ली की
याद दिला दी | आगे हमने सीधे हल्द्वानी के लिए रोड पकड़ा| यहां रास्ते में वह मज़ा
नहीं था जो हम अभी तक लेते हुए आ रहे थे | सबसे बड़ी दिक्कत तो यह थी कि तकरीबन 25
फुट का सिंगल रोड था जिस पर दोनों तरफ से ट्रैफिक का लगातार आना जाना। यहां गाड़ी
की स्पीड 50-60 से ज्यादा नहीं जा रही थी | सड़क के दोनों तरफ बस्तियां सी नज़र आ रही
थीं | हमने राम नगर से चलना शुरू किया तो जगह-जगह कूड़े के अम्बार खाली खेतों में
लगे हुए थे | सड़क पर भी बहुत गंदगी फैली हुई थी और गन्नों से भरे ट्रकों की लाइन
हमारी कार के आगे लगातार चल रही थी| यहां आकर सफर की उड़ान को जो ब्रेक लगा था उससे
मन को थोड़ा धक्का-सा लगा लेकिन जैसे ही हम यहां से रुद्रपुर पहुंचे सपनों की उड़ान
को फिर पंख लग गए थे | सड़क अब दो तरफ़ा हो गयी थी | बड़े-बड़े गुरूद्वारे कई जगह सड़क
के किनारे नज़र आने लगे |
अब हम रुद्रपुर से हल्द्वानी की तरफ अपनी कार का
रुख कर चुके थे | एकदम सुनसान सड़क, आगे पीछे इक्का-दुक्का गाड़ियां ओर सड़क के
दोनों तरफ पेड़ों से भरे हुए जंगल| यह रास्ता ऐसा था हमें लगा कि मानों विक्रम
भट्ट की कोई हॉरर फ़िल्म की शूटिंग में हमने देखा हो | सड़क की शुरुआत में ही एक-दो
फल वाले हमें नज़र आये लेकिन फिर हल्द्वानी तक हमें कोई भी नज़र नहीं आया | हल्द्वानी
किसी भी रूप में दिल्ली से कमतर नहीं थी | सड़क के दोनों तरफ बड़े बड़े मॉल और
देसी-विदेशी ब्रांडों से पटा पड़ा हल्द्वानी काफी व्यस्त शहर था | हल्द्वानी से
थोड़ी दूर निकलते ही अब जगह आ चुकी थी काठगोदाम | जी हां, नाम के अनुरूप यहां काठ
के बड़े बड़े गोदाम थे जिनमे लकड़ियों का अथाह भंडार पड़ा हुआ था | यहां यह भी बता दें
कि अगर किसी व्यक्ति को रेल के द्वारा नैनीताल आने का मन हो तो काठगोदाम, रेलवे से
जुड़ा हुआ अंतिम स्टेशन है जहां से बस या टैक्सी के द्वारा कोई भी सीधा नैनीताल
पहुंच सकता है |
काठगोदाम से ही पहाड़ों की यात्रा शुरू हो चुकी
थी | जो पहाड़ अभी तक धुंधले-धुंधले दिखाई पड़ रहे थे अब उनके साक्षात दर्शन होने
लगे | सुबह से खेत-खलिहान, सपाट मैदान एवं धरती आकाश के मिलते क्षितिज को देखते
हुए मन भर आया था | ऐसे में पहाड़ों के दर्शन से एक ताज़गी का अनुभव होने लगा | जब
हमने पहाड़ों पर चढ़ना शुरू किया तो पाया कि पहाड़ काफी शुष्क थे| खैर हमारी मंजिल
तो नैनीताल ही थी तो हमने अपनी कार के एक्सीलेटर को दबाते हुए पहाड़ों पर अपनी गाड़ी
दौड़ा दी | काठगोदाम से लेकर नैनीताल तक के रास्ते में दोनों तरफ हरे-भरे पहाड़ों की
एक अटूट श्रृंखला अनवरत जारी थी | लेकिन जिस ठंडक की तलाश में हम दिल्ली से
नैनीताल की तरफ भागे थे उसका एहसास हमें अभी तक ठीक से नहीं हो पाया था | आखिरकार हम
अब नैनीताल पहुंच गए थे | जैसे ही हमने माल रोड में प्रवेश किया तो पाया कि सभी
तरफ अफरा-तफरी मची हुई है | होटल दिलाने वालों की भीड़ लगी हुई थी | काफी मशक्कत के
बाद हमें कमरा पसंद आया | माल रोड से हमारा होटल केवल 5 मिनट्स की दूरी पर था |
नैनीताल के माल रोड की सबसे ख़ूबसूरत चीज़ थी इसका नैनीझील के किनारे स्थित होना|
बहुत ही खूबसूरती से नैनीताल के माल रोड को विकसित किया गया था | माल रोड से नैनीझील
का मनोरम दृश्य आंखों को एक गज़ब का सुकून दे रहा था | शाम का समय हो चुका था, थोड़े
बादल भी हो गए चुके थे | नैनीझील में कुछ नाव अभी भी यात्रियों को झील की सैर करवा
रही थी | ठंडी-ठंडी हवा बदन को छूकर निकलने पर ऐसा एहसास होता था कि हम किसी
फ़िल्मी दृश्य को अपने भीतर महसूस कर रहे हैं|
माल रोड के एक तरफ तो नैनीझील पूरी खूबसूरती के
साथ इठला रही थी वहीं माल रोड के दूसरी तरफ एक लंबी कतार थी विभिन्न तरह की दुकानों
और कई आलिशान होटलों की| मौसम भी काफी ठंडा हो चुका था तो हमने एक भुट्टा बिना
मोलभाव किए ले लिया जिस पर बढ़िया सा निम्बू-मसाला लगाकर ऐसा बना दिया था कि हमने
सारे काम छोड़ कर पहले यह स्वादिष्ट भुट्टा ही खत्म किया | रात में माल रोड ऐसा लग रहा था मानो हम दिन में
ही घूम रहे हैं | माल रोड पर प्रकाश ऐसा था कि अगर सुई भी गिर जाए तो आसानी से मिल
जाए | खैर अब हमने सोचा थोड़ा नैनीझील के किनारे बैठा जाए तो एक मुंडेर पर हम दोनों
बैठ गए | झील के किनारे पर चाय बेचने वाली महिला से चाय लेकर पीते हुए एक घंटे तक
नैनीताल की खूबसूरती का ज़िक्र करते रहे | जब हम अपने होटल की तरफ वापस चलने लगे तो
देखा कि माल रोड पर एक छोटी दुकान थी ‘मोहित चाट वाला’, जिस पर अथाह भीड़ लगी हुई
थी | दूर से देखने पर लगा कि संभवतः वहां कोई झगड़ा हुआ है लेकिन पास जाकर ज्ञात
हुआ कि माल रोड पर फास्ट-फ़ूड के शौक़ीन की यह सबसे प्रसिद्ध दुकान है| हमने भी तुरंत
दो पनीर चीले ऑर्डर किए और लगभग बीस मिनट की मशक्कत के बाद हमने अपना ऑर्डर मिलने
में सफलता प्राप्त हुई| सबसे मजेदार बात तो यह थी कि इस दुकान पर खाने वालों की
भीड़ में सर्वाधिक राजधानी दिल्ली से थी जो यह बताने के लिए काफी है कि दिल्ली को
इतनी चटोरी यूं हीं नहीं कहा जाता है |
इसके बाद आगे चले तो देखा कि ऐसी ही कुछ भीड़ एक
हलवाई की दुकान पर भी लगी हुई थी | दिल्ली वाली फितरत दिखाते हुए मैं भी तुरंत
पहुंचा गया कि देखे यहां क्या मजेदार मिल रहा है? जाकर पता चला कि यहां पर प्रति पीस
के हिसाब से इमरती मिल रही थी | ठंडी-ठंडी हवा के झोंके और नैनीझील के किनारे खड़े
होकर रात में इन रसभरी इमरतियों को खाकर मानो हम स्वाद भरी अनोखी दुनिया का अहसास करने
लगे थे | अब हम थोड़ा और आगे बढ़े तो देखा
कि दिल्ली के खाने के शौकीनों के लिए ‘चांदनी-चौक’ नाम से एक आलिशान रेस्ट्रोरेंट
बना हुआ था | बाहर से देखने पर यह कोई फ़िल्मी सेट लगा रहा था| दोनों तरफ बड़े-बड़े
हाथियों के बुत, शीशे में बंद जलेबी और छोले भठूरे बनाते हुए स्वचालित बुत और
सुनहरा प्रकाश| मन करता था कि देखते ही जाओ| अब इतना शानदार रेस्टोरेंट देखने के
बाद सोचा कि अन्दर जाकर कुछ टेस्ट किया जाए | इधर सोचा और दूसरे ही पल हम अंदर खड़े
हुए थे | अंदर जाकर लगा कि हम सच में चांदनी चौक आ गए हैं | रेस्टोरेंट के भीतर एक
कृत्रिम पेड़ के नीचे कुर्सी पर बैठे एक व्यक्ति के बाल नाई काट रहा था जिसके पास
ही कुछ लोग खाना खा रहे थे | दूसरी तरफ नज़र घुमाई तो देखा कोतवाली बनी हुई थी
जिसके भीतर कुछ लोग खाना खा रहे थे | चांदनी चौक की परांठे वालीं गली से लेकर
चुर्चुर नान सब एक जगह ही मिल गया था बस नहीं मिला तो वह था बैठने का स्थान | काफी
देर तक इंतज़ार करने के बाद भी जब जगह नहीं मिली तो हम निराश मन से वापस अपने होटल
में पहुंच गए | अब अपने होटल के रेस्टोरेंट की छत पर आ चुके थे जहां से रात में
बड़ी-बड़ी लाइटों के बीच झिलमिला रही नैनीझील बहुत ही आकर्षक लग रही थी | बादल गरज
रहे थे, बिजली चमक रही थी ओर तूफानी ठंडी हवा हमारे शरीर के आर-पार हो रही थी |
हमने अपने होटल से दो कॉफी मंगाई और यहीं टेरास पर एक-डेढ़ घंटे तक बैठे बातें करते
रहे | बातें करते हुए हमें लगातार बढ़ती ठण्ड का अहसास हवा बार-बार करवा रही थी | लेकिन
हम भी दिल्ली वाले थे, कहां सुनते हैं किसी की, बैठे रहे और नैनीताल के
रात्रि-दर्शन को अपनी सभी इन्द्रियों में समेटते रहे |
आज का हमारा शेड्यूल थोड़ा बिजी था तो हमने जल्दी
जल्दी गर्म पानी से नहाकर नीचे ब्रेकफास्ट किया और अपने गूगल देवता से मार्गदर्शन
लेते हुए नैनीताल के चिड़ियाघर में जाने के लिए निकल पड़े | यद्यपि जू-शटल सर्विस भी
30 रूपए प्रति-व्यक्ति दर से चलती थी लेकिन हमने पैदल ही जाने का मन बनाया| चढाई
कठिन थी लेकिन हम छोटे-छोटे घरों को पार करते हुए थोड़ी देर में चिड़ियाघर समय से
पहले पहुंच गए | जब टिकट लेकर हम अंदर गए तो शेर, चीता, भालू, हिरन, बारहसिंघा,
सफ़ेद मोर, लाल पांडा जैसे अनेक प्रकार के जीव-जंतुओं की फौज की मौज को जरा करीब से
देखा | चूंकि यह चिड़ियाघर पहाड़ों की ऊंचाई पर था तो यहां से पूरा नैनीताल आंखों
में समा रहा था | अचानक से बादल हुए और बारिश भी होने लगी| इसी चिड़ियाघर में शिव
भगवान का एक मंदिर भी था जिसे स्थानीय निवासी घंटियों वाला मंदिर कहते हैं | इसका
कारण जब हमने वहां के पुजारी से जानना चाह तो उन्होंने बताया कि जब भी किसी की
मुराद पूरी होती है तो वह यहां पर घंटी चढ़ा कर जाता है | हमने भी देखा कि इस मंदिर
में प्रवेश द्वार से लेकर भीतर तक सैंकड़ों घंटियां बंधी हुई थीं|
अब हमारी अगली मंजिल थी – स्नो-वियु पॉइंट| जो
रोप-वे माल रोड से ऊपर स्नो-वियु पॉइंट पर जाता है, अधिक भीड़ होने के कारण उसमे दो
दिन तक की वेटिंग चल रही थी तो हम पैदल ही निकल लिए जो लगभग चार किलोमीटर था | चढ़ाई
थोड़ी खड़ी होने के कारण हम धीरे-धीरे चलते गए | रास्ते के दोनों तरफ होटल और गेस्ट
हाउस भी बहुत सारे थे | खैर हम चलते रहे तो थोड़ी देर बाद देखा कि एक हमारी उलटे
हाथ की तरफ लगभग एक किलोमीटर की एरिया में कोई तिब्बती मंदिर था जिसके चारों तरफ
तिब्बती आस्था के सूचक रंग-बिरंगे हजारों छोटे-छोटे पताकाएं लहर रही थीं | वहीं
किनारे पर हमने थोड़ी देर विश्राम करते हुए कुछ पानी पिया जो हम साथ ही लाये थे | यहां
इतनी शांति थी कि हमें अपनी सांसें भी सुनाई दे रही थीं | यहां थोड़ा दूरी पर जाने
पर ज्ञात हुआ कि हम स्नो पॉइंट पर पहुंच गए हैं जहां से नैनीझील अपने सुन्दरतम रूप
में प्रकट थी | यहां तक पहुंचने पर हमे निराशा ही हाथ लगी क्योंकि बादल छाये होने
के कारण हमें बर्फीले पहाड़ों के दर्शन नहीं हो सके| यहां पर लोग खा-पीकर अपनी थकान
उतार रहे थे| यहां ज्यादा समय न रुककर हम वापस माल रोड की तरफ निकल पड़े | इस
रास्ते पर चलते हुए हमने देखा कि यहां हर घर के सामने लोगों ने रंग-बिरंगे फुलवारी
लगा रखी थी |
अब हम नैनीताल के बाजार में थे जो मस्जिद के पीछे
था| जहां पर हमने शर्मा भोजनालय पर घर जैसा खाना खाते हुए पैदल ही केव-गार्डन की
तरफ निकलने की योजना बनाई| जब हम केव-गार्डन की तरफ जा रहे थे तो रास्ते में एक
बहुत ही खूबसूरत बड़ा सा फ़ार्म-हाउस जैसा दिखा | जब हमने उस पर लगे बोर्ड को पढ़ा तो
पता चला कि यह तो नैनीताल में स्थित उच्च-न्यायालय है| इतना सुंदर न्यायालय हमने
पहली बार देखा था जिसमे भीतर आकाश को चूमते पेड़ों का झुरमुट, हरी-हरी घास का
मैदान और आकर्षक बिल्डिंग्स सबका मन मोह रही थी | इसे पार करते हुए हम अब
केव-गार्डन पहुंच चुके थे जो सूखा-ताल पर स्थित था | इस गार्डन की सबसे बड़ी खासियत
यहां पर तरह-तरह की गुफाएं थी जिनके भीतर जाकर आपको किसी पौराणिक समय का एहसास
होता है जब लोग कंदराओं में रहते थे | गुफाओं के अंदर प्रकाश की व्यवस्था की गई थी
लेकिन पानी और मिट्टी के कारण कहीं-कहीं पर कीचड़ जैसा भी था| यहां की गुफाएं
एक-दूसरे से जुड़ी हुई थीं| मतलब एक गुफा से निकलते हुए दूसरे गुफा में और दूसरी से
तीसरी में जाते हुए हमने यह पूरा पार्क घूम लिया था | बाहर से देखने पर यह गार्डन लंबे-लंबे
झाड़-झंकाड़ की अधिकता के कारण बहुत उजड़ और वीरान नजर आता है|
खैर अब हम वापस नैनीझील पर शाम के पांच बजे तक आ
चुके थे | हमने बोटिंग के लिए एक नाव ली और नैनीझील की सैर करने लगे | नैनीझील का
पानी बहुत स्वच्छ था | कश्मीर की डल-झील जैसा गंदला नहीं था | यहां झील को साफ़
रखने के लिए कुछ मशीनों को भी झील के कई हिस्सों में लगाया गया था | झील में नाव
में बैठते समय कुछ भी खाने की चीज लेकर बैठने पर पांच सौ रुपये का जुर्माने का
प्रावधान था जिसका सख्ती से पालन किया जा रहा था | मछलियों को कुछ भी खिलाने पर भी
मनाही थी | हमें नाववाले ने बताया कि ‘सर जी, यह झील ही हमारी रोजी-रोटी है अगर यह
मर गयी तो हम भी मर जाएंगे |’ झील से जगमगाता हुआ माल रोड और चमचमाते पहाड़ों के
होटल बहुत सुंदर नजर प्रतीत हो रहे थे| नाव से उतरने के बाद हमें नाव वाले ने ही
बताया कि आप झील के किनारे बसे नैना-देवी मंदिर भी होकर आना | तो हम मंदिर में जा
पहुंचे जो तिबेतियन-मार्किट में नैनीझील के किनारे ही स्थित था जो बोटिंग के दौरान
भी हमें साफ़ दिख रहा था | पता चला कि यह तो 52 शक्तिपीठों में से एक मंदिर था |
अगली सुबह हम नीब-करोरी
धाम के लिए निकले, जिसे लोग कैंची-धाम कहते हैं | यहां फेसबुक के मालिक मार्क-जुकरबर्ग
और एप्पल के प्रमुख स्टीव जोब्स भी आए थे | यह धाम पहाड़ों से घिरा हुआ था जिसके
ठीक किनारे एक नदी बहती है | इसके बाद हम सीधा निकल लिए भीमताल के लिए | चूंकि भूख
लग रही थी तो हमने भीमताल जाते हुए भवाली चौक से आडू, खुमानी, पहाड़ी फालसे ख़रीदे
और खाते हुए निकल लिए | भीमताल तक का रास्ता भी बहुत सुंदर था | सड़क के एक तरफ
पहाड़ी-खेत हमारे साथ चल रहे थे तो दूसरी तरफ बहुत बड़े-बड़े रिजोर्ट खड़े हुए थे | सत्तार-ताल
को पार करते हुए हम अब भीमताल पहुंच चुके थे जो देखने में नैनीझील जैसा ही था |
यद्यपि नैनीझील अधिक साफ़-सुथरी थी| खैर, हमने यहां पर अलग से एक नाव ली जिसका चप्पू
हमें खुद ही चलाना था| भीमताल से एक किलोमीटर पर ही अडवेंचरस खेल- बंजी-जम्पिंग,
रोप-वे, पैरा-ग्लाइडिंग इत्यादि- होते हैं | यहां पर हमने गोल-गप्पे खाए और सीधा
दिल्ली के लिए निकल पड़े| पूरे सफर के दौरान हमने यह महसूस किया कि नैनीताल में साफ़
सफाई गजब की थी और यहां सैलानियों की बहुत ही कद्र की जाती है और उनसे न के बराबर
लूटपाट होती है, जैसी कि अक्सर पहाड़ों पर होती है | सच में यह यात्रा बहुत ही सुखद
रही; हो भी क्योँ न, जब जीवनसाथी का साथ भी हो तो सफर
तो सुहाना बन ही जाता है| है न!
डॉ. दीपक शर्मा (लेखक दिल्ली विश्वविद्यालय में प्राध्यापक हैं)
(पिक्चर प्लस जुलाई-अगस्त,
2016 से साभार)
बहुत अच्छा
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