बड़ा सवाल बड़ी बहस :-'शोले' में ठाकुर के पोते को मारा जाना कितना जरूरी था?
(शोले फिल्म अगस्त माह में सन् 1975 में रिलीज हुई थी। यह ना केवल हिन्दी बल्कि भारतीय सिनेमा के इतिहास की एक ऐसी फिल्म साबित हुई जिसने हिन्दुस्तान के भविष्य के सिनेमा की परिभाषा ही बदल दी। यों नाटकीयता इससे पहले भी तमाम फिल्मों का प्राणविन्दु हुआ करती थी, लेकिन शोले की नाटकीयता में मनोरंजन के सारे मसाले मौजूद थे। जिसका दर्शकों के दिलों दिमाग पर चालीस साल से नशा सा असर रहा है। शोले का असर आज भी उतना ही नशीला है तो गर्वीला भी। लेकिन गब्बर सिंह ने इस फिल्म में जो-जो कांड किये, क्या उस पर हमने कभी चर्चा करना मुनासिब समझा? उसके डायलॉग डिलीवरी के अंदाज की दीवानगी इतनी छा गई कि हम सब उसके कारनामों को नजरअंदाज कर गये। ठाकुर ने फिल्म के अंत में गब्बर सिंह को मारना चाहा तो सेंसर बोर्ड ने उसे बदलवा दिया, यह कहते हुए कि यह क्रूरता की पराकाष्ठा होगी। लेकिन गब्बर सिंह द्वारा की गई क्रूरताओं पर अंकुश क्यों नहीं लगाए गए? जरा याद कीजिए उस दृश्य को जब गब्बर सिंह ठाकुर के परिवार के सदस्यों को एक-एक कर गोली मारता है। उसी दौरान 8-9 साल का एक मासूम भी होता है, गब्बर सिंह उसकी तड़प और गुस्से को देखकर कुटिल मुस्कान बिखेरता है फिर गोली मार देता है। मासूम को गोली मारने का दृश्य इससे पहले या बाद में कितनी फिल्मों में हमने देखा है? अगर देखा भी है तो यह दृश्य कितना वाजिब था? क्या शोले में मासूम को मारना जरूरी था? क्या मासूम को गब्बर सिंह उठाकर ले जाता तो क्या कहानी में बड़ा फर्क आ जाता? और क्या फिल्म सेंसर बोर्ड ऐसे कई मौकों पर कैंची चलाने लायक दृश्यों का चुनाव करने में चूक जाता है? ऐसे कुछ सवालों को लेकर हमने फिल्म विशेषज्ञों से सामना किया, फोन किया, ईमेल किये; लेकिन पत्रिका प्रेस में जाते-जाते तक हमें जितने विचार मिल सके, उन्हें हम यहां ज्यों का त्यों रख रहे हैं। यह एक बड़ा प्रश्न है कि फिल्मों, सीरियलों या विज्ञापनों में हम पशुओं के ऊपर होने वाले अत्याचार को नहीं दिखा सकते तो मासूमों, महिलाओं के खिलाफ क्रूरता वाले दृश्य, वो भी इतने खौफनाक तरीके से दिखाने की इजाजत क्यों है? क्या समाज पर इसका बुरा असर नहीं होता? अगर इस मुद्दे पर आगे और भी प्रतिक्रिया मिली तो यह बहस जारी रहेगी। सं.)
(शोले फिल्म अगस्त माह में सन् 1975 में रिलीज हुई थी। यह ना केवल हिन्दी बल्कि भारतीय सिनेमा के इतिहास की एक ऐसी फिल्म साबित हुई जिसने हिन्दुस्तान के भविष्य के सिनेमा की परिभाषा ही बदल दी। यों नाटकीयता इससे पहले भी तमाम फिल्मों का प्राणविन्दु हुआ करती थी, लेकिन शोले की नाटकीयता में मनोरंजन के सारे मसाले मौजूद थे। जिसका दर्शकों के दिलों दिमाग पर चालीस साल से नशा सा असर रहा है। शोले का असर आज भी उतना ही नशीला है तो गर्वीला भी। लेकिन गब्बर सिंह ने इस फिल्म में जो-जो कांड किये, क्या उस पर हमने कभी चर्चा करना मुनासिब समझा? उसके डायलॉग डिलीवरी के अंदाज की दीवानगी इतनी छा गई कि हम सब उसके कारनामों को नजरअंदाज कर गये। ठाकुर ने फिल्म के अंत में गब्बर सिंह को मारना चाहा तो सेंसर बोर्ड ने उसे बदलवा दिया, यह कहते हुए कि यह क्रूरता की पराकाष्ठा होगी। लेकिन गब्बर सिंह द्वारा की गई क्रूरताओं पर अंकुश क्यों नहीं लगाए गए? जरा याद कीजिए उस दृश्य को जब गब्बर सिंह ठाकुर के परिवार के सदस्यों को एक-एक कर गोली मारता है। उसी दौरान 8-9 साल का एक मासूम भी होता है, गब्बर सिंह उसकी तड़प और गुस्से को देखकर कुटिल मुस्कान बिखेरता है फिर गोली मार देता है। मासूम को गोली मारने का दृश्य इससे पहले या बाद में कितनी फिल्मों में हमने देखा है? अगर देखा भी है तो यह दृश्य कितना वाजिब था? क्या शोले में मासूम को मारना जरूरी था? क्या मासूम को गब्बर सिंह उठाकर ले जाता तो क्या कहानी में बड़ा फर्क आ जाता? और क्या फिल्म सेंसर बोर्ड ऐसे कई मौकों पर कैंची चलाने लायक दृश्यों का चुनाव करने में चूक जाता है? ऐसे कुछ सवालों को लेकर हमने फिल्म विशेषज्ञों से सामना किया, फोन किया, ईमेल किये; लेकिन पत्रिका प्रेस में जाते-जाते तक हमें जितने विचार मिल सके, उन्हें हम यहां ज्यों का त्यों रख रहे हैं। यह एक बड़ा प्रश्न है कि फिल्मों, सीरियलों या विज्ञापनों में हम पशुओं के ऊपर होने वाले अत्याचार को नहीं दिखा सकते तो मासूमों, महिलाओं के खिलाफ क्रूरता वाले दृश्य, वो भी इतने खौफनाक तरीके से दिखाने की इजाजत क्यों है? क्या समाज पर इसका बुरा असर नहीं होता? अगर इस मुद्दे पर आगे और भी प्रतिक्रिया मिली तो यह बहस जारी रहेगी। सं.)
मासूम को मारना
नाटकीयता का हिस्सा था
-अरविंद कुमार, पूर्व संपादक, माधुरी
‘शोले’ में एक सोशल मैसेज है। एक पुलिस ऑफिसर के दोनों हाथ कटे हुए हैं। मतलब कि
कानून के हाथ कटे हुए हैं। ऐसे में वह कानूनी कार्रवाई कैसे करता तो उसने
गैर-कानूनी कदम उठाये और उसे एक क्रिमिनल से
बदला देने के लिए दूसरे क्रिमिनल्स के हाथ का सहारा लेना पड़ा।
मुझे याद है ‘शोले’ फिल्म देखने के बाद सेंसर
बोर्ड ने 69 कट्स के आदेश दिये थे। इनमें ज्यादातर क्रूरता और हिंसा वाले दृश्य ही
थे। जहां तक मुझे लगता है कि इस फिल्म में सबसे अधिक क्रूर वह दृश्य है, जिसमें
बसंती गब्बर सिंह के आदेश पर उसके सामने कांच पर नाचती है, और उसके पांव लहूलुहान
हो जाते हैं। इसके अलावा गब्बर सिंह जब अपने लोगों से गर्वीले अंदाज में पूछता है
कितने आदमी थे और पहले राउंड में गोली चलाने के बाद जब कहता है कि ये भी बच गया और
फिर दनादन गोली मारता है। ये दोनों ही दृश्य मुझे सबसे अधिक क्रूर लगते हैं।
‘शोले’ का पहले वाला आखिरी दृश्य इसलिए बदला गया था कि उसमें क्रूरता अधिक दिखाई गई
थी। उन दिनों देश में आपातकाल लगा था। और फिल्मों में हिंसा को दिखाना प्रतिबंधित
कर दिया गया था। सेंसर बोर्ड ने जो 69 कट्स दिये थे, वो इन्हीं बातों को लेकर थे।
उन दिनों फिल्मों में सेक्स दृश्यों का चित्रण नहीं होता था।
आप जो फिल्म में गब्बर सिंह
द्वारा मासूम को गोली मारने वाले दृश्य पर सवाल उठा रहे हैं, वह मुझे लगता है
जरूरी था। दरअसल लेखक ने यह दिखाने का प्रयास किया है कि गब्बर सिंह का अपराध किस
कदर इंतहा तक पहुंच गया है। उस इंतहा को वास्तविक तौर पर दिखाने के लिए बच्चे को
भी मारना जायज था। गब्बर का मतलब क्या है, गब्बर का मतलब है गर्वीला। उसे किसी की
परवाह नहीं है। वह ठाकुर से बदला लेने के लिए कुछ भी करना चाहता था। इसीलिए वह
बच्चे को भी मार देता है। वह ठाकुर खानदान को ही खत्म कर देना चाहता है।
मैं ‘शोले’ के आखिरी दृश्य को सेंसर
बोर्ड द्वारा किये गये बदलाव के पक्ष में नहीं था, अब भी नहीं हूं। फिल्म में पहले
जो क्लाइमेक्स के दृश्य बनाये गये थे, वे ज्यादा सही थे। उसे बदला नहीं जाना चाहिए
था। ठाकुर के हाथों ही गब्बर को मारा जाना चाहिए था। पुलिस के हाथों गिरफ्तार किया
जाना बहुत सही नहीं था। सेंसर बोर्ड का वो फैसला केवल दिखावा था। फिल्म की जो
कहानी शुरू से चल रही है, उसके मुताबिक तो ठाकुर के पैरों द्वारा गब्बर को कुचला
जाना ही सही था। आखिरकार कानून के हाथों ही तो गब्बर सिंह मारा जाता है?
‘शोले’ का नाटकीय अंदाज सबसे गजब का था। यह नाटकीयता ही दर्शकों को सबसे अधिक भाती
है। नाटकीयता निकाल दीजिये तो फिल्म में कुछ भी नहीं है। कुछ कैरेक्टर का यादगार
बन जाना-इस फिल्म की सबसे बड़ी खूबी है। खासतौर पर गब्बर सिंह का किरदार। अमजद खान
खुद भी वैसा रोल फिर कभी नहीं कर पाये। क्योंकि वैसा नाटकीय किरदार उन्हें फिर कभी
नहीं मिला। इसी क्रम में मैं यह भी कहना चाहूंगा कि जिस फिल्म में जितनी नाटकीयता
होती है, वह सबसे ज्यादा सफल होती है। ‘सुल्तान’ देखिए, ‘बजरंगी भाईजान’, ‘ब्लैक’, ‘थ्री इडियट’ देखिए-क्यों हिट हो गई? क्योंकि उसमें नाटकीयता थी। कहानी में कंफ्लिक्ट
होना जरूरी है, डायलॉग डिलेवरी, सिचुएशन, प्रेजेंटेशन सबमें नाटकीयता होनी चाहिए।
किसी भी फिल्म को हिट बनाने के लिए आज भी पारसी थियेटर के असर से बचा नहीं जा सकता।
‘शोले’ के हर दौर में सुपरहिट होने की वजह उसकी यही नाटकीयता है। फिल्म की सारी
घटनाएं उस नाटकीयता का हिस्सा हैं। गब्बर सिंह द्वारा मासूम को मारा जाना भी नाटकीयता का हिस्सा था। मैं
तो समझता हूं कि उसके बिना बात नहीं बनती।
000
मासूम
को बचाया जा सकता था
-इकबाल रिजवी,फिल्म
समीक्षक
पिछले दिनों तुर्की के एक छोटे से बच्चे की समुद्र
किनारे पड़ी लाश वाली तस्वीर ने पूरी दुनिया को हिला दिया। आतंकी संगठन आईएस के
जरिये नए-नए तरीकों से की गई सारी हत्याएं एक तरफ पर पाकिस्तान में आतंकियों के
हाथ मारे गए स्कूली बच्चों का दर्द आज भी भारी है। बच्चों को लेकर पूरी दुनिया के
धर्म और लोग हमेशा से संवेदनशील रहे हैं।
1975 में आई फिल्म शोले
ने ना सिर्फ इतिहास रचा बल्की भारतीय सिनेमा के काल खंड को दो हिस्सों में बदल
दिया। यानी शोले से पहले और शोले के बाद। शोले से भारतीय फिल्मों में हिंसा का नया
अध्याय शुरू हुआ। सरदार का फरमान पूरा ना करने वाले गिरोह के लोगों को हंसाते
हंसाते अचानक इस तरह मार देना कि देखने वालों का भय से मुंह खुला रह जाए। बदला
लेने के लिये दुश्मन के हाथ काट देना, दुश्मन गांव के मासूम
नौजवान को मार कर उसकी लाश घोड़े पर लाद कर वापस भेजना, दुश्मन
को तड़पाने के लिये प्रेमिका को टूटे शीशों पर नाचने को मजबूर करना, दौड़ते हुए घोड़ों को इस तरह गिराना कि बैठा हुआ इंसान दृश्य देख कर उछल
पड़े। इन सबके अलावा शोले में गोलियां तो इतनी चलीं कि जिनका हिसाब करना मुश्किल
है।
लेकिन इन सारी
हिंसा से ऊपर इस फिल्म एक ऐसा शॉट है जिसको दिखाए जाने या ना दिखाने के मुद्दे पर
शायद ही कभी चर्चा हुई हो। ये वो शॉट है जहां ठाकुर के पूरे परिवार का सफाया कर
गब्बर के निशाने पर उस घर का एक बच्चा है। घर के सभी लोग मर चुके हैं। मास्टर
अलंकार, ठाकुर के पोते के रूप में गब्बर के सामने खड़ा है।
वह भय और सदमे से मुट्ठियां भींच रहा है ये देख कर गब्बर के होठों पर कुटिल
मुस्कान उभरती है। निर्देशक भय और दहशत का ये माहौल कुछ देर तक बनाए रखना चाहता है
इसलिये ये शॉट खासा लंबा रखा गया है। सिनेमा हॉल में दर्शकों की सांसें थमी हुई
हैं। और फिर गब्बर बच्चे को गोली मार देता है। गब्बर सिंह की क्रूरता की पराकाष्ठा
दिखाने के लिये निर्देशक को शायद ये जरूरी लगा होगा कि बच्चे की हत्या करवा दी जाए।
इससे पहले भारतीय सिनेमा
के पर्दे पर किसी बच्चे की इस तरह हत्या कभी नहीं देखी गई। निर्देशक ने जया
भादुड़ी को फिल्म में आगे भी दिखाने के लिए मंदिर भेजकर गब्बर के निशाने से बचा
लिया। इसी तरह बच्चे को भी जया के साथ मंदिर भेजा जा सकता था। ठाकुर से बदला लेने
के लिये बच्चे को गब्बर से अगवा कराया जा सकता था। ये सवाल तो अपनी जगह हैं,
इसी के साथ एक सवाल और उठता है कि आखिर सेंसर से ये सीन कैसे पास हो
गया? क्या सेंसर बोर्ड के सदस्यों को बच्चे की हत्या दिखाए
जाने पर एतराज नहीं जताया? अगर जताया तो फिल्मकार ने क्या तर्क
दिये? जाहिर है अगर तर्क दिये गए होंगे तो सेंसर सहमत हुआ
होगा तभी ये सीन पास हुआ। हांलाकी सेंसर उस समय भी इतनी कड़ाई पर उतरा हुआ था कि
रमेश सिप्पी को शोले का अंत बदलना पड़ा।
दरअसल शोले
में रमेश सिप्पी जो अंत शूट किया था उसके मुताबिक बदले की आग में जल रहा ठाकुर
गब्बर को खुद मार डालता है। (इस दृश्य को देखना हो तो यू ट्यूब पर देख सकते हैं)
सेंसर का तर्क था कि इस अंत से कानून हाथ में लेने की प्रवृत्ति को बढ़ावा मिलेगा।
लिहाजा शोले का अंत बदल दिया गया। लेकिन बच्चे की हत्या (भले ही बच्चे के शरीर पर
गोली पड़ती ना दिखायी गयी हो) को सेंसर ने किस तर्क के आधार पर पास कर दिया समझ
में नहीं आता।
गौरतलब ये भी
है कि शोले 41 साल पहले रिलीज हुई थी। तब समाज में आज के मुकाबले खुलापन बहुत कम
था। मान्यताओं और परंपराओं का पालन अधिक कट्टरता से होता था। मानसिक बंधन भी बहुत
हुआ करते थे और ऐसे में सेंसर की संवेदनशीलता को क्या हो गया! जबकी मौजूदा दौर में
सेंसर सिगरेट पीने के शॉट या समाज को दहलाने और नुकसान पहुंचाने के लिये प्रेरित
करने वाली बातों को फिल्मों में दिखाने के प्रति अति संवेदनशील दिखायी देता है।
---
बोर्ड को यह दृश्य भी
बदलवाना चाहिए था
-अरुण खरे, वरिष्ठ पत्रकार
फिल्म ‘उड़ता पंजाब’ को लेकर केंद्रीय फिल्म प्रमाणन बोर्ड जिसे आम चलन में
सेंसर बोर्ड कहा जाता है, ने अनेक दृश्यों पर आपत्ति जतायी थी यह विवाद खूब चर्चा
में रहा बाद में एक कट के साथ यह फिल्म रिलीज करने की अनुमति सेंसर बोर्ड ने दे दी।
फिल्मों में हिंसा को लेकर लगातार बहसें होती रहती हैं। इसके पक्ष और विपक्ष में
तर्क रखे जाते हैं। कहीं ऐसी हिंसा को फिल्म की जरूरत कहा जाता है तो कहीं इसे
अनावश्यक माना जाता है। रामगोपाल वर्मा की मुंबई के गैगस्टरों पर बनी
‘सत्या’ को फिल्मों में व्यापक हिंसा प्रदर्शन की शुरूआत माना जाता
है। इसके बाद तो जैसे फिल्मों में हिंसा का एक दौर शुरू हो गया जो ‘गैंग्स आफ बासेपुर’ और उसके बाद अनवरत जारी है। निर्देशकों
के अपने-अपने तर्क होते हैं वे ऐसी हिंसा को कहानी की जरूरत के साथ कहानी की आत्मा
तक मानते हैं। लेकिन उन फिल्मों का क्या जिसमें हिंसा की जरूरत न हो वहां भी हिंसा
का सहारा लेना पड जाए? याद कीजिए लगभग चालीस साल पहले की ब्लाकबस्टर फिल्म शोले को।
जिसमें डाकू गब्बर सिंह ठाकुर के पोते यानी आठ नौ साल के एक मासूम को गोली से उड़ा
देता है। दुनिया भर के सिनेमा में बच्चों के प्रति हिंसा को दिखाने से परहेज किया
जाता है। सेंसर बोर्ड भी ऐसे दृश्यों का खास नोटिस लेता है लेकिन शोले में सेंसर
बोर्ड ने लगभग पचास से ज्यादा सीन पर तो कैंची चलायी थी लेकिन बच्चे को गोली मारने
वाले दृश्य पर ध्यान ही नहीं दिया। यह दृश्य पूरी फिल्म का सबसे क्रूर और हिला
देने वाला दृश्य था। आज जब फिल्म सेंसर बोर्ड की जिम्मेदारी पर बात और बहस हो रही
है तो यह सवाल अप्रसांगिक नही है कि "शोले" के इस सीन को सेंसर क्यों नहीं किया जा सकता था? क्या बिना इस सीन के डाकू गब्बर सिंह की
क्रूरता को नहीं उभारा जा सकता था? क्या उस बच्चे की हत्या से बचा नहीं जा सकता था? ठीक उसी तरह जैसे गब्बर सिंह की हत्या पर
सेंसर बोर्ड की आपत्ति के बाद रमेश सिप्पी ने गब्बर की मौत को उसकी गिरफ्तारी में
बदल दिया। ऐसी संवेदनशीलता सेंसर बोर्ड ने बच्चे की हत्या वाले दृश्य के प्रति
क्यों नहीं दिखायी? ऐसे तमाम सवाल जहां फिल्म के निर्देशक की सोच को कटघरे में
खड़ा करते हैं वहीं सेंसर बोर्ड की समझ और जिम्मेदारी पर भी बड़ा प्रश्न चिन्ह है।
बहुत साफ है "शोले" में बच्चे को मारना यदि जरूरी ही था प्रतीकात्मक तरीके से
यह सीन फिल्ममाया जा सकता था।
हालांकि मेरी
समझ में बच्चे की हत्या की जरुरत ही नहीं थी उसे भी अन्य पात्रों की तरह सीन से
बाहर रखा जा सकता था। फिर भी यदि निर्देशक चूक गया तो सेंसर बोर्ड को अपनी
जिम्मेदारी निभानी चाहिए थी। सेंसर बोर्ड से ज्यादा संवेदनशील और मुद्दों के प्रति
सजग रहने की अपेक्षा की जाती है लेकिन वही रोज व रोज कमजोर होता जा रहा है। "बदलापुर" फिल्म का वह दृश्य याद करिए जब बैंक डकैती के बाद दो डाकू
एक कार सवार महिला और बच्चे का अपहरण कर भागते हैं।
यहां भी रोते बच्चे को चलती कार से फेंकने के दृश्य से बचा जा सकता था। निसंदेह
मां और बच्चे सहित कार का अपहरण कहानी की जरूरत थी लेकिन क्रूरतापूर्वक बच्चे को
चलती कार से फेंकने के दृश्य से निर्देशक बच सकता था। निर्देशक चूक गया तो सेंसर
बोर्ड की जिम्मेदारी थी कि वह निर्देशक के नोटिस में इसे लाता। सच तो यह है कि
सेंसर बोर्ड अपनी जिम्मेदारी से भटकता नजर आ रहा है। अब वह फिल्मों के बारे में
राजनीतिक हानि, लाभ और दलीय निष्ठा पर ज्यादा ध्यान देने लगा है न कि सामाजिक या कलात्मक पक्ष पर। आज सिनेमा जिस गति से बेहतर और
विकसित हो रहा है वहां सेंसर बोर्ड की जरूरत नहीं रह जाने वाली है। हां,
निर्देशकों के संगठन को आत्मनियंत्रण के लिए कुछ दिशा निर्देश तय करने होंगे।
हालांकि अंतिम फैसला दर्शकों के हाथ में ही रहना चाहिए कि वे क्या देखें क्या नहीं।
‘पिक्चर प्लस’ जुलाई-अगस्त, 2016 से साभार
कोई टिप्पणी नहीं:
टिप्पणी पोस्ट करें