-गौतम सिद्धार्थ
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आमिर खान के प्रयोगवादी किरदार |
काफ़ी
सालों पहले मैंने सुना था कि एक निर्माता, किसी एक सुपर स्टार अभिनेता
के पास अपनी एक कहानी ले कर पहुंचा, उस कहानी में किरदार का डबल रोल था। एक चोर था और दूसरा
शरीफ़ आदमी। पूरी कहानी सुनने के बाद उस मशहूर अभिनेता ने निर्माता से दो दिन का
समय मांगा ताकि वो दोनों किरदारों की अलग अलग पहचान बना सके। दो दिन बाद जब
निर्माता, उस नामचीन कलाकार के पास पहुंचा, तो उस
कलाकार ने कहा कि, जब वो चोर बनेंगे तो अपने पैंट
के पांयचे मोड़ कर ऊपर तक चढ़ा लेंगे, और जब शरीफ़ बनेंगे तो वो पांयचे नीचे कर लेंगे। मैं ये बात
इसलिये लिखना चाह रहा था कि, जहां कई बड़े बड़े स्टार, अपने फैंन्स
के बीच अपनी इमेज को बरक़रार रखने के लिये सिर्फ़ छोटे मोटे बदलाव के बारे में सोचते
हैं, वही
दूसरी तरफ़ कुछ गिने चुने स्टार ऐसे भी हैं, जो इससे अलहदा सोचते
हैं। यहां तक कि वो अपनी इमेज को भी दांव पर लगाने से नहीं डरते। उनसे एक हैं, आमिर हुसैन, यानी आमिर खान। ऐसा
नहीं है कि आमिर ही इस मामले में इकलौते हैं, लेकिन, क्योंकि वो
कॉमर्शियल सिनेमा में एक पॉपुलर स्टार हैं, इसलिये वो ज्यादा नज़र
आते हैं, और उन पर चर्चा भी होती है।
आमिर
खान ‘मि.परफेक्शनिस्ट’ के नाम से भी जाने जाते
हैं। जब हम इस बात को खंगालने की कोशिश करते हैं, तो अक्सर दिखाई देता है
कि, ये
सिर्फ़ अपने ही किरदार पर नहीं बल्कि पूरी फिल्म मेकिंग में भी अपनी दखलंदाज़ी रखते
हैं। इससे फिल्म को एक नया अंदाज़ मिलता है। जैसे ‘सरफरोश’, इस फिल्म
के बाद चाहे जॉन मैथ्थु मथान (डायरेक्टर) को लोग भूल गये हो, लेकिन फिल्म को याद
रखते हैं। यही हालत कुछ ‘रंग दे बसंती’ की भी है। इस फिल्म के निर्देशक राकेश ओम प्रकाश मेहरा ने अमिताभ
बच्चन और मनोज वाजपेयी को ले कर ‘अक्स’, नाम की फिल्म बनाई, जो नहीं चली, इन्होंने ‘रंग दे बसंती’ बनाई, वो चली। फिर ‘देलही 6’ बनाई, वो फिर नहीं चली। यानी
आमिर की मौजूदगी, लीक से हट कर बनने वाली फिल्मों के लिये फायदेमंद साबित
होती हैं।
यही
कुछ बातें है, जो हमें ये बताती है कि, फिल्म तो अपनी जगह हैं, पर आमिर की
शख्सियत में कुछ खास है जो फिल्म को ही खास बना देती है। जैसे ‘फना’, इस फिल्म की
कहानी, हीरो से एंटी हीरो की तरफ़ जाने वाली एक ऐसी कहानी है, जो किसी भी अंदाज में
लिखी जा सकती है। लेकिन आमिर ने एक दिल फेंक दिल्ली वाले ‘लौंडे’ (!) से लेकर एक
आतंकवादी बनने तक, अपने किरदार और गेटअप में ऐसे बदलाव किये, जिसने दोनों किरदारों को
अलग-अलग
पहचान दी। और फिल्म 104 करोड़ का बिजनेस भी कर गई। अगर आमिर की पहली फिल्म ‘राख’ को भी देखे, (मुझे
उम्मीद है कि कई लोगों ने ये फिल्म नहीं देखी होगी) तो इस फिल्म में हीरो
की आंखों के सामने उसकी गर्लफ्रेंड का रेप हो जाता है, उस घटना को लेकर वो इतना
बेचैन हो जाता है कि एक खून कर बैठता है। और बाद में उसे इसी में मज़ा आने लगता है।
इस किरदार को आमिर ने बखूबी निभाया था। इस फिल्म को नेशनल अवॉर्ड्स भी मिले थे।
इस
आलेख में हम आमिर की जीवन गाथा नहीं कहना चाहते, बल्कि आमिर के द्वारा किये
गये सिर्फ़ उन किरदारों की बात करना चाहते हैं, जिनमें आमिर
अलग अलग किरदारों को निभाते हुए दिखे हैं।
जब
हम किसी अच्छे कलाकार की बात करते हैं, तो ज्यादतर कलाकरों के अतीत में झांकने से पता चलता है कि, वो थियेटर से जुड़े हुए रहे
हैं। ये बात अमिताभ बच्चन से लेकर नवाज़ुद्दीन सिद्दीकी तक साबित होती आई है। आमिर
की चाहे थियेटर की स्कूली शिक्षा ना रही हो, फिर भी आमिर पर अपने
समय के मराठी, गुजराती और इंगलिश थियेटर का गंभ्भीर प्रभाव रहा है। ये
बात उनके दोस्तों की लिस्ट को देख कर लगता है, जिनमें आशुतोष, अमोल गुप्ते, महेंद्र जोशी जैसे कई
लोग हैं, जिन्होंने मुम्बई में मराठी और हिंदी के थियेटर में
प्रयोगात्मक शैली में काफ़ी काम किया था। यही बात आमिर को बाक़ी स्टार पुत्रों से
अलग करती है।
‘दंगल’ देखने के बाद ऐसा लगा कि आमिर ख़ान किरदारों को निभाने के
लिये स्टार इमेज की भी परवाह नहीं करते। जहां एक तरफ़ उनकी उम्र के स्टार अब भी अपनी
बेटी की उम्र वाली लड़कियों के साथ रोमांस कर रहे हैं। वहीं आमिर, जवान
बेटियों के बाप की भूमिका में आने से भी नहीं कतराते। माना कि आमिर के डॉयलॉग
डिलिवरी का अंदाज हर किरदार में वही रहता है, जबकि नसीरुद्दीन शाह
(पेस्टन जी) और अमिताभ बच्चन (अग्निपथ पहला संस्करण) ने अपनी बोलने के तरीके को भी
बदलने की कोशिश की थी। फिर भी, आमिर चाहे बोलने के अंदाज़ में बदलाव ना भी लाये लेकिन अपने
किरदार के हिसाब से अपने हाव भाव में बदलाव ज़रूर लाते हैं। जिसकी शुरुआत उनकी ‘लगान’ फिल्म से मानी जा सकती है। ऐसा नहीं था कि उन्होंने ‘अर्थ’ जैसी फिल्म
नहीं की थी।
हद
तो तब हो जाती है, जब वो ‘पीके’ में एक उजबक जैसे चरित्र को करते है। ऐसा ही कुछ किरदार
कभी धर्मेंद्र ने ‘गजब’ फिल्म में निभाया था, लेकिन उन्होंने उसमें
नकली दांत भी लगाये थे। पर ‘पीके’ में पूरी फिल्म एक ही एक्सप्रेशन से की गई है, (यानी आंखें फैली हुंई, और चेहरा सपाट) फिर भी
संवाद के भाव बदल दिये गये हैं।
कभी
कभी आमिर, हॉलीवुड के सैमुअल जैकसन, लियोनार्डो डी
कैप्रियों और पुराने में से राबिन विलियम्स और डस्टिन हॉफमैंन जैसे कलाकारों के
साथ आकर खड़े हो जाते हैं।
अपनी
इमेज तोड़ने की हिम्मत के पीछे एक ये भी वजह हो सकती है, कि आमिर को इस बात का
डर नहीं है कि अगर उनकी फिल्में नहीं चली तो क्या होगा? आमिर के पास कई और तरह
के काम है जो उन्हें ये दिलासा देते है, कि ये नहीं तो और सही, और नहीं तो और सही।
जैसे ‘सत्यमेव जयते’, Live
to Love या UNICEF जैसे
प्रोग्राम।
पिछली
बातों को पढ़ने के बाद हमें ये समझ में आता है कि आमिर किरदारों को निभाने के लिये
किसी भी हद को कैसे पर जाते हैं। और इसी मकसद को लेकर मैंने अपना यह लेख लिखना शुरू किया था। किरदार सिर्फ़
कपड़ों से नहीं बदले जाते, बल्कि उसके लिये मानसिक बदलाव भी करने पड़ते हैं। ऐसी ही
कुछ बातें हमें अमिताभ बच्चन में भी देखने को मिलती है, जब वो ‘सौदागर’, ‘सरकार’ और ‘पीकू’ जैसी फिल्में करते हैं।
आमिर
ने जब ‘लगान’ बनाई थी, तब उन्होंने कहानी के परिवेश के मुताबिक पूरी फिल्म में ही
पेस्टल रंगों का इस्तेमाल किया था। इस फिल्म में उन्होंने नंगे बदन एक्टिंग करने
से भी गुरेज़ नहीं किया था। बाक़ी एक्टर भी अपने नाम से नहीं, बल्कि किरदारों के नाम
से जाने जाने लगे थे। जैसे कभी ‘शोले’ के साथ हुआ था। इस फिल्म ने हिंदी सिनेमा की एक नई परिभाषा
ही लिख दी। ऐसा तभी होता है, जब कलाकार, कलाकार ना हो कर किरदार बन जायें। और फिल्म फैंटेसी से
निकल कर वास्तविकता के नज़दीक ना पहुंच जाये।
आमिर
ने ‘रंगीला’ और ‘गुलाम’ में भी इसी तरह के
प्रयोग किये थे, जिसकी वजह से ‘गुलाम’ में उनके अभिनय के साथ साथ उनकी अंगूठियां भी खूब चर्चा में
रहीं थी। आमिर एक पेशेवर की तरह जानते हैं कि, उन्हें अपने किस काम को, कैसे और कब, लोगों के
सामने पेश करना है जिससे उन्हें लाभ भी मिल सके। पहले तो आमिर ने सारे अवॉर्ड
समारोहों मे जाना बंद किया। इसके लिये लोगों का कहना है (आमिर का नहीं) कि जब उनके
अच्छे कामों की कोई कदर नहीं तो वो अवार्ड फंक्शन्स में क्यों जायें? ये बात खुद को, दूसरों से बेहतर घोषित
करने का एक अच्छा तरीका था। लेकिन आमिर ने इस बात को साबित करने के लिये अपनी तरफ़
से कोशिशें ज़ारी रखी। और जब ‘दिल चाहता है’ आई, तो लोगों ने आमिर का एक
नया गेटअप देखा, जिसमें उन्होंने अपने बाल ‘स्पाईक’ कर रखे थे, और होठों के नीचे थोड़े
बाल छूटे हुए थे। जिसे ‘गोटी’ कहते है। एक बात और, इन्होंने
अपने माथे पर पड़ रही लकीरों का भी कई जगह इस्तेमाल किया। आमिर अपनी एक्टिंग में
ऐसी ही कुछ छोटी मोटी चीज जोड़ते रहते हैं और उसे पूरी फिल्म में निभाते रहते हैं। मौजूदा
स्टार्स में, ऐसी खासियत यहां ज़रा कम
मिलती है।
अब
अगली फिल्म की बारी थी। और वो फिल्म थी ‘मंगल पांडे’। इस फिल्म के गेटअप के
बारे में किसी से कुछ बताने की ज़रूरत नहीं है, क्योंकि वो आप सब ने
देखा ही है। ये बात अलग है कि फिल्म के निर्देशक केतन मेहता और आमिर के बीच फिल्म
को लेकर कुछ असहमति हो गई, जिसकी वजह से इस फिल्म को उतना फायदा नहीं हो पाया। जबकि
आमिर और केतन मेहता शुरुआती दिनों में ‘होली’ (1984) नाम
की फिल्म में साथ साथ काम कर चुके थे। ये बात अलग है कि उस फिल्म में राज जुत्सी, अशुतोष ग्वारीकर, अमोल गुप्ते के रोल
आमिर से बहुत बड़े थे। लेकिन अब लगता है कि फिल्मों को लेकर आमिर की समझ केतन से
बेहतर हो गई है।
इस
बीच मैं आमिर की एक और फिल्म का ज़िक्र करना चाहूंगा, जिसमें हीरो रजनीकांत
थे। लेकिन आमिर ने फिल्म के आखिर में ‘गॉड फादर’ के एल्पचिनों की तरह गेट अप लेकर एक नाकाम सी कोशिश की थी।
और वो फिल्म थी ‘आतंक ही आतंक’ (1995)।
इससे लगता है कि आमिर में गेटअप लेने का शौक बहुत पुराना है। लेकिन अपने गेटअप्स में
समा जाने की समझ, उनमें अब आई है। किसी ने सही ही कहा है कि एक्टर अकलमंद तभी
बनता है जब उसकी उमर 45 के पार चली जाती है। यही बात आमिर पर भी लागू होती है।
‘रंग दे बसंती’ एक ऐसी फिल्म थी, जिसमें आमिर का कोई खास
गेट अप नहीं था, लेकिन खुद अभिनय जानते हुए भी, उस किरदार
के लिये जो नया नया अभिनेता बनता है, उसके लिये अभिनय करना कितना मुश्किल है, ये उन्होंने दिखाया।
बात
फिर गेट अप की आती है, तो ‘गजनी’ को कौन नहीं जानता। आमिर ने इस गेटअप का प्रचार खूब किया।
यहां तक की वो इसी गेट अप में लोगों के बीच भी पहुंच जाते थे। ‘गजनी’ फिल्म आज के समय में, फिल्म की कहानी के
बजाये, उसके गेटअप की वजह से ज्यादा जानी जाती है। हांलाकि ये
फिल्म तमिल फिल्म का री-मेक थी, फिर भी आमिर के गेटअप ने इस फिल्म को एक नया आयाम दे दिया
था।
अब
बारी है ‘दंगल’ की। इस फिल्म में आमिर ने ऐसा गेटअप लिया जिसकी आप उम्मीद
नहीं कर सकते। यानी एक अधेड़ उम्र के इंसान की। लोग इसे फिल्म की ज़रूरत कह सकते हैं, लेकिन इस रोल को आमिर
ने ही चुना था। इस रोल के लिये आमिर ने अपना वज़न 90 किलो तक बढ़ाया। और उन्होंने
पहले धीरे धीरे बढ़ रहे मोटापे की शूटिंग खतम की, उसके बाद अपने को फिट
करके अपनी जवानी के सीन खतम किया। शूटिंग को इसलिये ऊपर नीचे किया गया, क्योंकि आमिर का कहना
था कि मोटे हो जाने के बाद उन्हें फिट होने के लिये कोई प्रेरणा चाहिये।
इन
सारी बातों का लुब्बे लुआब ये है कि आमिर एक ऐसे स्टार हैं, जिन्होंने मेकअप और गेट
अप,
दोनों को भी अभिनय का एक अभिन्न अंग माना है। और उसका इस्तेमाल ‘दंगल’ में अपनी पराकष्ठा पर
है। इसीलिये सलमान खान का कहना है कि ‘दंगल’, ‘लगान’ से भी बेहतर फिल्म है। इस नोट बंदी
के समय में अगर कोई फिल्म 200 करोड़ का आकड़ा सात दिनों में पार कर लेती है, तो ये करामात सिर्फ़
आमिर ही कर सकते हैं।
(लेखक स्क्रीन राइटर और फिल्म विश्लेषक हैं। मुंबई में
निवास।
यह आलेख पिक्चर प्लस फिल्म पत्रिका के दिसंबर, 2016 अंक में
प्रकाशित है। इसे कहीं भी उपयोग में लाने से पूर्व पत्रिका के संपादक से अनुमति
लेना आवश्यक है।–सं.)
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Very good blog... perfect analysis.
जवाब देंहटाएंलंबे समय बाद, एक उम्दा, तार्किक तथा सटीक विश्लेषण पढ़ने को मिला !' इसके लिए गौतम जी को शुक्रिया' तथा *पिक्चर प्लस* को बधाई !!💐
जवाब देंहटाएंवाह... बिलकुल सही समीक्षा
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