प्रभास का प्रभाव V/S फवाद का फैलाव
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-संजीव श्रीवास्तव
ये बॉलीवुड है, और इसकी सबसे बड़ी पहचान इस बात
को लेकर दुनिया भर में प्रसिद्ध है कि जो कभी यहां यूसुफ खान थे वह एक दिन दिलीप कुमार
के नाम से अभिनय सम्राट कहलाते हैं और जो दिलीप कुमार थे वह ए.आर. रहमान के नाम से
संगीत की दुनिया पर राज करते हैं। बॉलीवुड का यही सामाजिक ज़ायका है, जिसकी बिसात
और बुनियाद ने हिन्दुस्तान की कौमी एकता को एकसूत्र में बांधे रखा है। हिन्दी
सिनेमा का धर्मनिरपेक्षता को बढ़ावा देने में कभी कोई सानी नहीं रहा। नज़ीर अनेक
हैं। सीन सिल्वर स्क्रीन के हों याकि पर्दे के पीछे के वाकये-यहां मजहब का भेदभाव
कभी कोई वजह नहीं बना। लेकिन अब उसी धर्मनिर्पेक्षता की छतरी तले कुछ लोग इस बात
का भी विश्लेषण करने लगे हैं कि अगर सलीम-जावेद प्रगतिशील विचारधारा के लेखक थे तो
उन्होंने ‘दीवार’ के विजय को एक तरफ ईश्वर की सत्ता का विद्रोही तो दूसरी तरफ बिल्ला नं. 786 के प्रति मोहग्रस्त किरदार क्यों गढ़ा? फिल्म में एक
मुस्लिम किरदार बिल्ला नं. 786 को महिमामंडित क्यों करता है? और सामाजिक तौर पर
विद्रोही एंग्री यंग मैन उसके प्रति सम्मोहित क्यों है? ‘दीवार’ के ‘विजय’ के किरदार में यह
उभयसंकट क्यों उभर कर आया था? यह अकेला सवाल नहीं है। इस जैसे बहुतेरे सवाल हैं जोकि इन दिनों हिन्दी
सिनेमा के प्रेमियों या कि विश्लेषकों की जुबां पर है। हाल हाल की सबसे चर्चित
फिल्म ‘पीके’ के तमाम दश्यों को बड़े ध्यान से देखिये। इस बहुचर्चित और सभी धर्मों
के आडंबरों पर कटाक्ष करने वाली फिल्म की सराहना ने धर्मनिरेपक्षता और प्रगतिशीलता
की सोच को शिखर तक पहुंचाने में बड़ा योगदान दिया। लेकिन उसी फिल्म में ‘पीके’ किरदार शराब की
बोतल लेकर मंदिर के अंदर तक जाता है, चर्च के अंदर तक जाता है लेकिन मस्जिद के
अंदर तक वह नहीं जा पाता, उसे मस्जिद वाली गली के बाहर से ही चार लोग पकड़ कर लौटा
देते हैं। कितने लोगों की जुबान पर यह सवाल है कि ऐसा फिल्मांकन भला क्यों
किया गया? कुछ लोगों का सोचना है कि जब ‘पीके’ कभी काली या सफेद ड्रेस पहनकर
तीनों धर्म के आडंबर पर एक समान प्रहार कर सकता है तो शराब की बोलत लेकर मंदिर या
चर्च की तरह मस्जिद के अंदर भी क्यों नहीं जा सकता था? या जिस तरह से उसे
मस्जिद के बाहर से ही लौटा दिया जाता है तो उसे मंदिर या चर्च के बाहर से ही क्यों
नहीं भगा दिया जाता? सिनेमा के हरेक दृश्य को बारीक नजरों से देखने वाले सवाल पूछ रहे हैं
कि कान्टीन्यूटी में इस खामी को क्यों रहने दिया गया है? सवाल यह भी है कि
क्या यह प्रश्न केवल सोशल मीडिया पर धड़ल्ले से लाइक और शेयर किये जाने लायक भर है? जब गालिब लिख सकते
थे कि “गालिब शराब पीने दो मस्जिद में बैठकर, या कोई ऐसी जगह बता दो जहां
खुदा न हो” तो इस फिल्म में भी मस्जिद के अंदर ‘पीके’ के हाथों में थमी शराब की बोतल को लेकर जाने देने में किस बात का भय
था। सिनेमा विधा के मर्मज्ञ पूछ रहे हैं कि ‘गालिब’ फिल्म में जब हम इसका फिल्मांकन कर सकते थे तो जागरूक दौर की इस
फिल्म में इसे क्यों नहीं दिखाया जा सकता था?
अब आप कहेंगे यह बेबाक सवाल है तो फिर आप ही
बताइये कि क्या ‘पीके’ एक बेबाक फिल्म नहीं थी? कुछ लोग तो सवाल यह भी पूछ रहे हैं कि ‘ओ माई गॉड’ की मूल कहानी में मेहता भाई का किरदार किसी और मजहब के देवता का
विद्रोही क्यों नहीं है?
बहरहाल बात अब मुद्दे की करते हैं। बाहुबली फेम
प्रभास ने डंका पीट दिया, इसमें अब कोई दो राय नहीं रही। लेकिन हिन्दुस्तान के
सिने प्रेमियों की जुबान पर अहम सवाल यह है कि बॉलीवुड के बड़े डायरेक्टर्स प्रभास
के करियर को लेकर खामोश क्यों है? करन जौहर राजामौली के साथ बतौर डिस्ट्रीब्यूटर जुड़ सकते हैं तो
प्रभास को लेकर डायरेक्शन और प्रोडक्शन क्यों नहीं कर सकते? राम गोपाल वर्मा,
मधुर भंडारकर, संजय लीला भंसाली, महेश भट्ट, राकेश ओमप्रकाश मेहरा, राकेश रोशन,
कबीर खान, फराह खान आदि क्यों नहीं प्रभास को अपनी अपनी आगामी फिल्म के लिए बतौर
हीरो लेकर आना चाहते हैं? वह करन जौहर जो फवाद खान को लेकर दस फिल्में बनाने का एलान करते हैं
तो प्रभास वर्मा के साथ फिल्म बनाने का दमखम भरा एलान क्यों नहीं करना चाहते? वह महेश भट्ट, जिनको
फवाद खान में सदी की सबसे महान प्रतिभा नज़र आती है उनको प्रभास के प्रभाव का आभास
क्यों नहीं दिखाई दे रहा है? यही सवाल मेरा रामगोपाल वर्मा से है और कबीर खान से भी। ये सवाल मैं
नहीं पूछ रहा हूं...देश के तमाम फिल्म प्रेमी पूछ रहे हैं। बॉलीवुड के सतरंगी
सिनेमा से तरंगायित रहने वाली भारतीय जनता पूछ रही है।
सिने प्रेमी जनता तो यह सवाल भी पूछ रही है कि
पिछले वर्ष जब ‘बजरंगी भाईजान’ को सबसे लोकप्रिय फिल्म का अवॉर्ड मिलता है तो दुनिया भर में वाहवाही
मिलती है लेकिन जब इस वर्ष ‘रुस्तम’ के कलाकार अक्षय कुमार को अवॉर्ड मिलता है तो सवाल सुगबुताते क्यों
हैं? लेकिन इसी के बरक्स यह विश्लेषण करने का साहस किसी में नहीं कि उसी ‘बजरंगी भाईजान’ में सलमान खान के
पिता का किरदार आरएसएस का कार्यकर्ता क्यों है?
फिल्म में शाखा लगाने का दृश्य भला किस प्रयोजन
से दिखाया गया?
...तो क्या इसका मतलब यह हुआ कि आज का ज्यादातर
सिनेमा अपना प्रभाव क्षेत्र पावर (सत्ता) और पैसा (बिज़नेस) तक ही सीमित रखना
चाहता है? ‘बजरंगी भाईजान’ से पहले मैंने किसी भी मुख्यधारा की फिल्म में आरएसएस की शाखा लगाने वाले दृश्य को नहीं देखा।
अगर आपने देखा हो तो जरूर उल्लेख करें। क्या यह सत्ता के प्रभाव क्षेत्र में रसूख
बनाने की चेष्टा थी? ईद के मौके पर रिलीज इस फिल्म में हनुमान भक्त सलमान का किरदार ‘जयश्रीराम’ का उदबोधन करता
है-वाकई यह रैडिकल सोच बनाने की कोशिश थी।
सिनेमा के बदलते समीकरण और सोच पर ऐसे सवाल
अनगिनत हैं। पहले की फिल्मों के निर्माण के बाद सत्ता और पैसा का मोह पैदा होता था
लेकिन अब स्क्रीप्ट लिखे जाने के वक्त ही सत्ता और पैसा की चेष्टा सोच पर हावी
रहती है।
लेकिन अब बहस इस बात की है कि जिस बॉलीवुड में
जाति और मजहब की कभी दीवार नहीं रही-वहां अब धर्मनिर्पेक्षता इतनी अनप्रोफेसनल
क्यों हो गई है?
मैं ऐसा नहीं कह रहा कि अब के हमारे फिल्मकार
धर्मनिर्पेक्ष नहीं रह गये। लेकिन हाल के दिनों में उन्होंने अपनी धर्मनिर्पेक्षता
को सत्ता और पैसे के मोह से समझौता भी कम नहीं किया है। यही वजह है कि वो अपनी
बड़ी-बड़ी फिल्मों में भी मामूली सी किन्तु चुभने वाली भूल कर जाया करते
हैं जैसा कि ‘पीके’ की एक कान्टीन्यूटी ब्रेक का जिक्र मैंने ऊपर किया।
तो थोड़ी देर के लिए कल्पना कीजिये कि बाहुबली का किरदार अगर फवाद खान ने
निभाया होता तो बॉलीवुड के उन निर्माता-निर्देशकों की राय क्या होती जिनका
नामोल्लेख मैंने ऊपर किया? क्या तब वे फिल्मकार फवाद
खान को अमिताभ बच्चन और शाहरुख खान के बाद का सबसे ज्यादा प्रभावशाली अभिनेता
साबित करने के लिए झटपट बयान जारी नहीं कर देते? इन्हीं
सवालों के आलोक में प्रभास प्रेमी अब यह पूछ रहे हैं कि बॉलीवुड के बड़े व्यवसायी
प्रभास के विस्फोटक प्रभाव के सामने आखिर किस-किस चेहरे को बचाना चाहते हैं? आलिया भट्ट को तो बाहुबली का प्रभास खूब पसंद आया लेकिन
महेश भट्ट कब खुलकर बोलेंगे?
गहरी सोच
जवाब देंहटाएंशुक्रिया। अपनी पहचान भी दे।
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