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प्रसून जोशी: कवि, गीतकार, सेंसर बोर्ड के चेयरमैन |
-संजीव श्रीवास्तव
प्रसून जोशी ने कभी कहा था-ठंडा मतलब कोका कोला, लेकिन अब मैं कहना चाहता हूं- प्रसून मतलब 'अकाल में दूब'।
और इसी संदर्भ में हिन्दी के कवि केदारनाथ सिंह
की कविता ‘अकाल में दूब’ की अकारण ही याद नहीं आ रही है।
उनकी कविता की कुछ पंक्तियां इस प्रकार हैं—“कहते हैं पिता / ऐसा अकाल कभी नहीं
देखा / ऐसा अकाल कि बस्ती में / दूब तक झुलस जाए / सुना नहीं कभी / दूब मगर मरती नहीं- / कहते हैं वे / और हो जाते हैं चुप” और इसी कविता में
आगे की पंक्तियां हैं-“अंत में / सारी बस्ती छानकर / लौटता हूं निराश / लांघता हूं कुंएं के पास की / सूखी नाली / कि अचानक मुझे दिख जाती है/ शीशे के बिखरे हुए टुकड़ों के बीच / एक हरी पत्ती / दूब है/ हां-हां दूब है/ पहचानता हूं मैं”
यानी कि दूब बची
रहती है और जैसा कि कवि ने कहा-दूब कभी मरती नहीं-क्योंकि दूब जिंदगी, संचेतना, सांसें,
उम्मीद, हरित प्रणाली और खुशबू की जमीन लिये हुये होती है। संकट दूब की पहचान का
है। संकट बौद्धिक अकाल बेला का भी है।
खुद प्रसून जोशी जिस
संचेतना के कवि हैं, वहां जीवन का मानवतावादी दृष्टिकोण ही सर्वोपरि है। उनकी
कविताओं में तात्कालिकता है तो फिल्म गीतों में जीवन के प्रति सकारात्मक
दृष्टिकोण।
गीतों के गिरते स्तर से चिंतित
सिनेमा में
गीत-संगीत के जैसे हालात दिखाई देते हैं, वैसे पहले कभी नहीं रहे। शब्दावलियों के
गिरते स्तर, हाईस्कूली पीढ़ी को आकर्षित करने के मक़सद से तैयार किये गये फ्यूज़न
के प्रयोग ने हिन्दी फिल्म गीतों का स्तर गिरा दिया है। प्रसून जोशी उन गीतकारों
में से हैं जिन्हें आज की गीत रचना पर बड़ी कोफ्त होती है। जयपुर साहित्य उत्सव
में प्रसून जोशी अनेक बार आज के फिल्म गीतों के शब्दों तथा लहजों को लेकर चिंता
व्यक्त कर चुके हैं। गुलज़ार और जावेद अख्तर के बाद की पीढी के कुछ संवेदनशील
गीतकारों में प्रसून जोशी ने फिल्मों में कई ऐसे गीत लिखे हैं जिनका भावुकता का
स्तर चालू गीतों से बिल्कुल भिन्न है। लज्जा, दिल्ली 6, रंग दे बसंती, तारे ज़मीं
पर, हम तुम, फ़नां, सत्याग्रह, नीरजा आदि फिल्मों में उनके गीतों ने लोगों
को नई संवेदना दी है।
लेकिन राष्ट्रीय
पुरस्कार हो या फिल्मफेयर पुरस्कार या फिर पद्मश्री सम्मान हासिल करने वाले प्रसून
जोशी केवल कवि या गीतकार का नाम नहीं है। वो संगीतकार भी हैं और पटकथा लेखक व
संवाद लेखक भी। ‘भाग मिल्खा भाग’ जैसी फिल्म
उन्होंने ही लिखी है। जिसकी सराहना दुनिया भर में हुई। इसके अलावा व्यावसायिक विज्ञापन
हो अथवा मीडिया या फिर राजनीति की दुनिया, उनके लिखे हर स्लोगन ने चर्चा बटोरी है।
मसलन ‘ठंडा मतलब कोका कोला’, ‘अभी तो मैं जवान हूं’, ‘उम्मीद वाली धूप’ तथा एनडीटीवी के
लिए ‘सच दिखाते हैं हम’-सबकी जुबान पर हैं।
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प्रसून जोशी: कवि, गीतकार, सेंसर बोर्ड के चेयरमैन |
प्रसून जोशी के बेबाक
विचार
अपने बेबाक विचारों को लेकर भी प्रसून जोशी खासे सुर्खियों में रहे हैं। जयपुर साहित्य उत्सव में उन्होंने सिनेमा, साहित्य, गीत संगीत, राजनीति तथा धर्म से जुड़े तमाम सवालों पर बेबाक राय रखी है। उनके कुछ विचार यहां प्रस्तुत हैं-
“हिन्दी फिल्मी गीतों में महिलाओं का चित्रण किसी
एलियन की तरह किया जा रहा है,
जिसे
हमने अपनाया नहीं है।’’
“कविता और गीत संस्कृति के रक्षा कवच हैं, इसको हमें जिंदा रखना होगा, लेकिन केवल कला पक्ष ही बचा है।“
“कविता और गीत संस्कृति के रक्षा कवच हैं, इसको हमें जिंदा रखना होगा, लेकिन केवल कला पक्ष ही बचा है।“
“राजनीति बेशर्म हो चुकी है। बेशर्मी इसका आभूषण
है और कोई भी इससे अछूता नहीं है।“
“धर्म को हटा दें तो सबकुछ खत्म हो जायेगा. इसकी
प्रासंगिक चीजों को बचाना जरूरी है और जो अप्रासंगिक है उसे हटा देना चाहिए।”
“मंदिर, मस्जिद और गुरुद्वारों के लाउडस्पीकरों के बीच एकतारा बजाने वाले का शब्द दब गया है. इसने बहुत सारे कोमल शब्दों को दबा दिया है. सुंदर और खूबसूरत आवाज को बचाना जरूरी है।”
प्रसून जोशी से उम्मीद
सेंसर
बोर्ड का अध्यक्ष बनाये जाने पर उन्हें हर तरफ से बधाई मिली, इसलिये कि आज की अकाल बेला में महज एक
‘दूब’ भी हरित क्रांति
ला सकती है। हालांकि सेंसर बोर्ड की अपनी विशेष कार्यशैली है जोकि विख्यात है लेकिन प्रसून
जोशी उसका किस प्रकार अपनी बुद्धिमता से निर्वहन करते हैं इस पर सबकी नजर रहेगी। क्या
गीतों का स्तर सुधरेगा? क्या बेवजह भोंडा प्रदर्शन कम होगा? या क्या
सिनेमा पुराने प्रतिमान का केंचुल उतारेगा? ऐसे कई सवाल
बहुत से लोगों के जेहन में हैं। इसी साल 22 जनवरी को जयपुर साहित्य उत्सव में प्रसून
जोशी ने कहा था - “हिन्दी फिल्मों के जिन गानों का महिलाओं को विरोध करना चाहिए वो उन्हीं गानों पर डांस करती हैं। हिन्दी फिल्मों में महिलाओं को बहुत आपत्तिजनक तरीके से दिखाया जाता है। महिलाओं को शायद ये पता भी नहीं होता कि वो किस बात पर डांस कर रही हैं।"
अंत में उनकी एक कविता
प्रसून जोशी का जन्म उत्तराखंड
के अल्मोड़ा ज़िले के दन्या गांव में 16 सितम्बर को हुआ था। उनके पिता का नाम
देवेन्द्र कुमार जोशी और माता का नाम सुषमा जोशी है। उनका बचपन एवं उनकी
प्रारम्भिक शिक्षा टिहरी, गोपेश्वर, रुद्रप्रयाग, चमोली तथा नरेन्द्र नगर में हुई, जहां उन्होने एम.एससी. और उसके बाद एम.बी.ए. की पढ़ाई की।
अंत में उनकी एक चर्चित कविता प्रस्तुत है---
शर्म आ रही है ना...
शर्म आ रही है ना
उस समाज को
जिसने उसके जन्म पर
खुल के जश्न नहीं मनाया
शर्म आ रही है ना
उस पिता को
उसके होने पर जिसने
एक दिया कम जलाया
शर्म आ रही है ना
उन रस्मों को उन रिवाजों को
उन बेड़ियों को उन दरवाज़ों को
शर्म आ रही है ना
उन बुज़ुर्गों को
जिन्होंने उसके अस्तित्व को
सिर्फ़ अंधेरों से जोड़ा
शर्म आ रही है ना
उन दुपट्टों को
उन लिबासों को
जिन्होंने उसे अंदर से तोड़ा
शर्म आ रही है ना
स्कूलों को दफ़्तरों को
रास्तों को मंज़िलों को
शर्म आ रही है ना
उन शब्दों को
उन गीतों को
जिन्होंने उसे कभी
शरीर से ज़्यादा नहीं समझा
शर्म आ रही ना
राजनीति को
धर्म को
जहाँ बार बार अपमानित हुए
उसके स्वप्न
शर्म आ रही है ना
ख़बरों को
मिसालों को
दीवारों को
भालों को
शर्म आनी चाहिए
हर ऐसे विचार को
जिसने पंख काटे थे उसके
शर्म आनी चाहिए
ऐसे हर ख़याल को
जिसने उसे रोका था
आसमान की तरफ़ देखने से
शर्म आनी चाहिए
शायद हम सबको
क्योंकि जब मुट्ठी में सूरज लिए
नन्ही सी बिटिया
सामने खड़ी थी
तब हम उसकी उँगलियों से
छलकती रोशनी नहीं
उसका लड़की होना देख रहे थे
उसकी मुट्ठी में था आने वाला कल
और सब देख रहे थे मटमैला आज
पर सूरज को तो धूप खिलाना था
बेटी को तो सवेरा लाना था
और सुबह हो कर रही
(साभार - प्रसून जोशी के फेसबुक से)
शर्म आ रही है ना...
शर्म आ रही है ना
उस समाज को
जिसने उसके जन्म पर
खुल के जश्न नहीं मनाया
शर्म आ रही है ना
उस पिता को
उसके होने पर जिसने
एक दिया कम जलाया
शर्म आ रही है ना
उन रस्मों को उन रिवाजों को
उन बेड़ियों को उन दरवाज़ों को
शर्म आ रही है ना
उन बुज़ुर्गों को
जिन्होंने उसके अस्तित्व को
सिर्फ़ अंधेरों से जोड़ा
शर्म आ रही है ना
उन दुपट्टों को
उन लिबासों को
जिन्होंने उसे अंदर से तोड़ा
शर्म आ रही है ना
स्कूलों को दफ़्तरों को
रास्तों को मंज़िलों को
शर्म आ रही है ना
उन शब्दों को
उन गीतों को
जिन्होंने उसे कभी
शरीर से ज़्यादा नहीं समझा
शर्म आ रही ना
राजनीति को
धर्म को
जहाँ बार बार अपमानित हुए
उसके स्वप्न
शर्म आ रही है ना
ख़बरों को
मिसालों को
दीवारों को
भालों को
शर्म आनी चाहिए
हर ऐसे विचार को
जिसने पंख काटे थे उसके
शर्म आनी चाहिए
ऐसे हर ख़याल को
जिसने उसे रोका था
आसमान की तरफ़ देखने से
शर्म आनी चाहिए
शायद हम सबको
क्योंकि जब मुट्ठी में सूरज लिए
नन्ही सी बिटिया
सामने खड़ी थी
तब हम उसकी उँगलियों से
छलकती रोशनी नहीं
उसका लड़की होना देख रहे थे
उसकी मुट्ठी में था आने वाला कल
और सब देख रहे थे मटमैला आज
पर सूरज को तो धूप खिलाना था
बेटी को तो सवेरा लाना था
और सुबह हो कर रही
(साभार - प्रसून जोशी के फेसबुक से)
(कॉपीराइट नियमों के मुताबिक इस लेख को कहीं भी
प्रकाशित करने हेतु पूर्वानुमति आवश्यक है। मेल करें-pictureplus2016@gmail.com)
आशीर्वाद
जवाब देंहटाएंसुंदर सुरभित व्याखित लेख
परसून जोशी जी को शुभ कामनाएं
Heart touching blog ..thanks.
जवाब देंहटाएंJoshiji read or not?
Nice!
"आखिर क्यों ये लड़की रोज लगाती है शमशान घाट के चक्कर
जवाब देंहटाएं"
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