शैलेंद्र की जन्मतिथि पर ‘तीसरी कसम’ की याद
'तीसरी कसम' बनने से पहले और रिलीज होने के बाद की पूरी कहानी
फणीश्वरनाथ रेणु ने कहानी का अंत बदलने से इनकार कर दिया था
-इंद्रजीत सिंह
फिल्मी गीतों के माध्यम से साहित्य की अमृतमयी
गंगा बहाने वाले यशस्वी गीतकारों में शीर्षस्थ स्थान शैलेंद्र का है। उनके गीत स्तरीयता
और लोकप्रियता के जीवंत दस्तावेज हैं। भाव एवं शिल्प की वजह से कालजयी गीतों की
रचना के कारण ही रसिकों ने उनको गीतों का राजकुमार कहा है। शैलेंद्र मूलत: संवेदनशील कवि थे और कवि धर्म का सफल निर्वाह
करने के कारण ही आंचलिक उपन्यासों के पुरोधा फणिश्वरनाथ रेणु ने उन्हें कविरत्न की
उपाधि से अलंकृत किया था। प्रगतिशील चेतना के अग्रदूत जनवादी कवि शैलेंद्र की
सामाजिक-साहित्यिक प्रतिबद्धता ने उन्हें जनकवि बना दिया। शैलेंद्र के गीत,
मुहावरे और लोकोक्तियों की तरह हमारी जिंदगी में रच बस गए हैं। फिल्म ‘बरसात’ के दो गीतों ने
उनके जीवन में यश और वैभव की बरसात कर दी। सन् 1951 में उनकी अगली फिल्म ‘आवारा’ के गीतों ने देश और
विदेश में नया इतिहास रचा। फिल्म ‘सीमा’, ‘जागते रहो’, ‘श्री420’, ‘कठपुतली’, ‘यहूदी’, ‘अनाड़ी’, ‘बूट पालिश’, ‘दो बीघा जमीन’, ‘जिस देश में गंगा बहती है’ आदि फिल्मों में कर्णप्रिय स्तरीय, सार्थक एवं
लोकप्रिय गीत रचकर श्रोताओं के दिल पर शान कर रहे थे। उनकी कीर्ति दशों दिशाओं में
फैल रही थी। सरस्वती पुत्र को लक्ष्मी का भी वरदान-आशीर्वाद निरंतर प्राप्त हो रहा
था। मुंबई के खार इलाके में उन्होंने बंगला खरीदा। आशियाने का नाम रखा ‘रिमझिम’। अब शैलेंद्र कार,
फोन आदि सभी सुविधाओं से लैस होकर रह रहे थे।
गीतकार गुलज़ार के शब्दों में “शैलेंद्र जी से मेरी पहली मुलाकात ‘बापू निवास’ पर हुई थी। यह वह मकान था, जिसे शैलेंद्र ने एकांत में गाने
लिखने के लिए किराये पर लिया था। बासु भट्टाचार्य, रेणु, देबु,
हिमाद्रि आदि के पास रहने को जगह नहीं थी। शैलेंद्र ने स्वेच्छा से इन्हें रहने के
लिए यह मकान दिया हुआ था। सलिल चौधरी भी शैलेंद्र को ढूंढ़ते हुए या अपना वक्त
बिताने के लिए यहां आते थे। किशोर कुमार की पत्नी रूमा गांगुली भी कभी-कभार वहां
जाती थीं। यह वह एकांत जगह थी जहां शैलेंद्रजी गीत लिखने के लिए आते थे। वहां सभी
रहते थे। शैलेंद्र केवल किराया देते थे। बापू निवास में द्वितीय विश्व युद्ध, आजाद
हिन्द फौज, सुभाषचंद्र बोस, रूस, चीन, हिन्दुस्तान की कम्यूनिस्ट पार्टी, रेलवे ट्रेड
यूनियन आदि विषयों पर गरमा-गरम बहसें होती थीं। फणीश्वरनाथ रेणु की कहानी ‘तीसरी कसम उर्फ़ मारे गए गुलफ़ाम’ की कहानी बापू निवास पर ही पढ़ी गई।“
(शैलेंद्र की जगह कोई ले नहीं सकता- गुलज़ार, जनकवि शैलेंद्र, पृष्ठ-48)
बासु भट्टाचार्य, नवेंदु घोष एवं शैलेंद्रजी,
रेणुजी की कहानी से बहुत प्रभावित हुए। बासु भट्टाचार्य ने शैलेंद्रजी को ‘तीसरी कसम’ पर फिल्म बनाने का
आग्रह किया। शैलेंद्रजी को बासु की बात भा गई। उन्होंने फणीश्वरनाथ रेणुजी को तेईस
अक्टूबर 1960 को पत्र लिखा-
“बंधुवर फणीश्वरनाथ,
सप्रेम नमस्कार। पांच लंबी कहानियां पढीं। आपकी
कहानी मुझे बहुत पसंद आई। फिल्म के लिए उसका उपयोग कर लेने की अच्छी पॉसिबिलिटीज
(संभावनाएं) हैं। आपका क्या विचार है? कहानी में मेरी व्यक्तिगत रूप से दिलचस्पी है। इस संबंध में यदि लिखें तो कृपा
होगी।
धन्यवाद, आपका शैलेंद्र“
रेणुजी को शैलेंद्र का पत्र
मिला। रेणुजी भी फूले नहीं समा रहे थे। उन्होंने शैलेंद्रजी को पत्र लिखा।
“यह जानकर प्रसन्नता हुई कि आपने मेरी कहानी ‘तीसरी कसम’ में फिल्म की संभावनाएं देखी हैं। मैं दिल्ली जा रहा हूं। इस संबंध में पत्र
व्यवहार दिल्ली के पते पर ही करें।”
रेणुजी नवंबर, 1960 को
टेलीविजन स्क्रिप्ट राइटर्स की ट्रेनिंग के सिलसिले में दिल्ली आ गये थे। शैलेंद्रजी ने भी फिल्म निर्माण के लिए रेणुजी
को कहानीकार के रूप में अनुबंधित करने के लिए अपने साले साहब संतोष ठाकुर, जोकि
फिल्म ‘तीसरी कसम’ के कार्यकारी
निर्माता बने, को दिल्ली भेजा। संतोष ठाकुरजी ने रेणुजी से अनुबंध पत्र हस्ताक्षर
कराये। रेणुजी ने पांच हजार रुपये की मांग की। लेकिन शैलेंद्रजी ने पांच हजार की
बजाय दस हजार देना स्वीकार किया। एक संवेदनशील कवि के ह्रदय में लेखक के प्रति
सम्मान भाव देखकर रेणुजी अभिभूत थे। ‘तीसरी कसम’ का मुहूर्त 14 जनवरी, 1961 पूर्णिया, बिहार में
हुआ। गीतकार शैलेंद्र फिल्म के निर्देशक बासु भट्टाचार्य, सहायक निर्देशक
बी.आर.ईशारा तथा बासु चटर्जी एवं सत्यजीत रे के मशहूर कैमरामैन सुब्रत मित्र
पूर्णिया पहुंचे। पूरी टीम एक सप्ताह से ज्यादा पूर्णिया रुकी। रेणुजी ने ‘तीसरी कसम’ के कैमरामैन सुब्रत
मित्र के नयनाभिराम छायांकन को रेखांकित करते हुए लिखा है-“सुब्रत मित्र मेरे गांव-मेरे घर में कई दिन ठहरे
ही नहीं थे, मेरी हवेली के अंदर कथांचल के लोगों के चलने-फिरने, बोलने-बतियाने के ढंग को चित्रबद्ध करने के लिए
परिवार की महिलाओं का चलचित्र लिया था। तीन दर्जन बैलगाड़ियों की दौड़, आम बाग की
ढलती हुई छाया, सिंदुरी सांझ की पृष्ठभूमि में उड़ते हुए बगुलों की पंक्तियां...इन
सारे दृश्यों को ग्रहण करते समय सुब्रत बाबू के चेहरे पर एक अदभुत चमक खिल आती थी।”
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राज कपूर और वहीदा रहमान |
नायक-नायिका का चयन
14 जनवरी, 1961 को ‘तीसरी कसम’ का मुहूर्त
कार्यक्रम पूर्णिया में संपन्न हो गया। लेकिन अभी तक नायक-नायिका चयन नहीं हो पाया
था। शैलेंद्र ने अपने मित्र प्रो. शिवचरण सक्सैना (देहरादून) को एक पत्र में लिखा-“तीसरी कसम फिल्म की पटकथा पर कार्य चल रहा है और
फिल्म की शूटिंग सितंबर से प्रारंभ होगी। राजकपूर फिल्म में नायक की भूमिका
निभाएंगे। नायिका के लिए मीना कुमारी, बैजयंती माला या वहीदा रहमान जो भी
सुविधानुसार उपलब्ध हों, में से किसी एक को चुना जायेगा। संगीतकार निश्चित रूप से
शंकर-जयकिशन होंगे।“
शैलेंद्रजी ने रेणुजी को जब मुंबई बुलाया और
उनसे पूछा “कहानी लिखते समय आपके सामने हीराबाई की कोई
तस्वीर तो जरूर होगी। फिल्म इंडस्ट्री में आप की उस सूरत से कोई सूरत मिलती-जुलती
नजर आती है”? थोड़ी देर बाद रेणुजी ने कहा- “प्यासा में माला सिन्हा के साथ कोई लड़की भी थी
न!” शैलेंद्र जी बोले, “हमारे मन में भी उसी की सूरत है।...वह वहीदा रहमान है।“
वहीदा
रहमान को कहानी सुनाई गई।
कहानी सुनकर वहीदाजी की आंखें छलछला आईं।
उन्होंने तीसरी कसम की नायिका हीराबाई के लिए अपनी स्वीकृति दे दी।
अब बारी थी फिल्म के नायक हीरामन की। रेणुजी के
मन में ‘जागते रहे’ के भोले भाले मजदूर
की छवि थी जिसे राजकपूर साहब ने अपने भावप्रवण अभिनय से अमर कर दिया था। शैलेंद्र
ने राजकपूर के सामने हीरामन की भूमिका का प्रस्ताव रखा। राज साहब ने गंभीर होकर
कहा-“तीसरी कसम का हीरामन बनने को तो तैयार हूं लेकिन
पारिश्रमिक पूरा लूंगा। वो भी अडवांस।“ शैलेंद्रजी के
चेहरे पर हवाइयां उड़ रही थीं। शैलेंद्रजी की घबराहट को देखकर राज साहब मुस्कराये
और बोले-“लाओ, मेरा पूरा अडवांस एक रुपया।“ शैलेंद्रजी की जान में जान आई।
‘तीसरी कसम’ फिल्म का आरंभिक बजट लगभग ढाई लाख तय किया गया
था। फिल्म को छै माह के भीतर पूरी कर लेने की योजना थी। लेकिन ईश्वर को शायद यह
मंजूर नहीं था। घटनाएं कुछ ऐसी घटती गईं कि फिल्म निर्माण में लगभग छै साल का समय
लगा और बजट ढाई लाख से बढ़कर तेईस लाख तक पहुंच गया। फिल्म के निर्देशक बासु
भट्टाचार्य जाने-माने फिल्म निर्देशक विमल राय की बेटी
रिंकी को दिल दे बैठे। विमलजी को यह बात अनुचित प्रतीत हुई। शैलेंद्रजी ने बासु का
साथ दिया तो विमल राय शैलेंद्रजी से भी खफा हो गए। राजकपूर अपनी फिल्म ‘संगम’ की शूटिंग्स में
व्यस्त हो गए। कभी डेट की समस्या, कभी स्टूडियो, कभी पैसे की कमी लिहाजा फिल्म
निर्माण में बाधाएं दिन प्रतिदिन बढ़ती जा रही थी।
17 जुलाई, 1965 को शैलेंद्र ने अपने सभी साथियों
–मित्रों के लिए ‘तीसरी कसम’ का शो आयोजित किया।
जिससे फिल्म के प्रति लोगों की प्रतिक्रिया को जाना जा सके। और आवश्यकतानुसार
उसमें अपेक्षित संशोधन किया जा सके। राजकपूर ने फिल्म की तारीफ़ की। जयकिशन बोले-“बॉक्स ऑफिस को ध्यान में रखकर मैं कुछ नहीं कह
सकता लेकिन व्यक्तिगत रूप से यह फिल्म मुझे पसंद है।“ हसरत जयपुरी ने
अपने फीडबैक में कहा-“यह फिल्म अवॉर्ड जीतेगी और
कामयाब भी होगी।“ बासु चटर्जी ने बेबाक राय इस प्रकार दी-“फिल्म के गानों का चित्रांकन अच्छे ढंग से नहीं
हुआ है।“ फिल्म निर्देशक बासु भट्टाचार्य ने अपनी
प्रतितक्रिया दी- “जैसा मैं फिल्म को लेकर सोचता था, वह अब पर्दे
पर आ चुका है। दो वितरक भी मौजूद थे। उन्हें फिल्म रास नहीं आई।“
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शैलेंद्र |
फिल्म पूरी हो चुकी थी। शैलेंद्रजी ने 18 फरवरी
1966 को रेणुजी को फिल्म के संपूर्ण हो जाने की सूचना दी।
रेणुजी ने शैलेंद्रजी के पत्र के उत्तर में जो
लिखा वह इस प्रकार है-
“तीसरी कसम जिंदाबाद,
भाईजान, भाईजान,
मेरी जान, मेरी जान
आपका 18 फरवरी का पत्र मुझे कल मिला। घर भर में–गांव
भर में-इलाके भर में आनंद- उत्साह की एक नई लहर दौड़ आई है। हर आदमी अपनी आंख से
पत्र पढ़ लेना चाहता है। आपने पत्र लिखा है-जादूगर सुब्रत जिंदाबाद। मैं कहता
हूं-कविराज शैलेंद्र जिंदाबाद। जिंदाबाद। जिंदाबाद।
मेरा प्रोग्राम? अब तक कोई प्रोग्राम भी नहीं था। अब होली के बाद
पटने में एक सप्ताह रहकर बंबई के लिए प्रस्थान।
अचरज की बात। मुझे यहां एक ज्योतिषी ने 15 फरवरी
66 को महत्वपूर्ण बताते हुए कहा कि इसी तारीख को किसी महत्वाकांक्षा की पूर्ति
होने की संभावना है। फिल्म के संबंध मैंने कुछ नहीं बताया था। किंतु उसने
कहा-चूंकि कार्यारम्भ तिल संक्रांति के दिन हुआ था। इसलिए काम तिल तिल कर हो रहा
है। किंतु श्रेष्ठ हो रहा है।
इधर मैं एक अनुष्ठान में लगा हुआ हूं। (मैं यह
सब ढोंग करता हूं और इन पर पूर्ण आस्था रखता हूं।) पंद्रह दिन और रह गये हैं। यह
पत्र मैं आपको आसन पर बैठकर ही लिख रहा हूं। पंद्रह दिन हो गए-एक शब्द मुंह से
नहीं निकला है। मैं सुन रहा हूं। इस अंध कोठरी में बैठकर-सभी तीसरी कसम जिंदाबाद
कर रहे हैं।
एक उपन्यास (180 पृष्ठों का) लिखकर समाप्त किया
है। दूसरे में हाथ लगाया है। माया विशेषांक (भारत-1966) में एक कहानी प्रकाशित हुई
है-आत्म-साक्षी। आपको अच्छी लगेगी।
आप पढ़कर देखिएगा। तीसरी कसम रिलीज होने के
बाद-तुरंत-तीसरी कमस खाने की बेला-शीर्षक संस्मरण-पुस्तक (अणिमा के नए अंक में
श्रीमती अमृता प्रीतम ने तीसरी कसम शीर्षक एक कहानी प्रकाशित करवाई है। जिसमें नई
कविता की एक पंक्ति है-आओ हम सब तीसरी कसम खायें-यह तीसरी कसम खाने की बेला है।) आ
जायेगी। लिख रहा हूं-लिखता जा रहा हूं। जब जब जिसकी सूरत उभर कर सामने आएगी, जब जब
बंबई की याद आएगी, लिखता गया हूं।
स्वास्थ्य दुरुस्त है। चाहता हूं कि जब मिलूं
आपसे-लाल लाल गाल मैं आपका देखूं और आप मेरा। मुझे ख्वाहिश है कि तू मुझको देखा
करे और दिलोंजान मैं तुझको देखा करूं।
खबर है-लतिका ने मुझे निकाल दिया है-झूठा, बेईमान
कहकर। ...एमए की परीक्षा की जोरदार तैयारी में लगी हुई हैं और मैं यहां ढोंग धरकर
घर में बैठा हूं। हो...हल्ला है यहां।
प्लीज प्लीज...रुपये शीघ्र भेजिए, भाई साहब।
बहुत दुर्गत मांग रहा हूं। और कितना भेजिएगा? 500/-तो मैं कर्ज खाकर बैठा हूं। रुपये TMO से ही भेजिएगा। और Telegram Office है Forbesganj । P.O. Simraha Rly St. लिखने से पत्र मिल तो जाता है लेकिन अपना P.O. अपना गांव ही है (औराही हिंगना)- By the way –Simraha Rly. St. की बात आपको कैसे याद आई? मैंने तो लिखा ही नहीं था?
छोटे-बड़े, सभी को सश्रद्ध प्रणाम। पत्र
दें-निश्चय।
भाई ही-रेणु“
(पत्र सौजन्य-दिनेश शैलेंद्र)
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फणीश्वरनााथ रेणु |
राजकपूर
भी फिल्म की सफलता को लेकर आश्वस्त नहीं थे।
जुलाई, 1966 में राज साहब, शैलेंद्र जी,
रेणुजी और सभी वितरकों की एक मीटिंग बुलाई गई। वितरकों की एक स्वर में राय थी कि
फिल्म के अंत को बदला जाये और हीरामन और हीराबाई को मिलन करा दिया जाये। कहानी
सुखांत होगी तो दर्शक फिल्म को पसंद करेंगे।
शैलेंद्र कहानी में फेरबदल के पक्ष में नहीं थे।
रेणु भी शैलेंद्र के ही पक्ष में खड़े थे। रेणु ने वितरकों को खरी-खरी सुनाई और
साफ कहा कि अगर फिल्म में हीराबाई और हीरामन का संगम कराना है तो कृपया लेखक के
रूप में मेरा नाम ना दें। मीटिंग बर्खास्त हो गई।
सितंबर, 1966 में दिल्ली के गोलचा सिनेमा घर में
बिना प्रचार प्रसार के फिल्म का प्रदर्शन करा दिया गया। हॉल खाली रहने के कारण
फिल्म अगले ही दिन उतार ली गई।
29 सितंबर, 1966 को शैलेंद्र जी ने रेणु जी को
अंतिम पत्र लिखा-
प्रिय भाई रेणु जी, सप्रेम नमस्कार।
फिल्म आखिर रिलीज हो गई। आपको मालूम ही होगा। जो
नहीं मालूम बताता हूं। दिल्ली-यूपी के डिस्ट्रीब्यूटर और सरदार फायनेंसर्स का आपसी
झगड़ा, छै अदालतों में इंजक्शन-मेरे ऊपर वारंट-कोई पब्लिसिटी न होते हुए फिल्म
लगी। मुझे अपनी पहली फिल्म का प्रीमियर देखना भी नसीब न हुआ। यह तो उन सरदार
फायनेंसर का ही दम था कि चित्र प्रदर्शित हो सका। अन्यथा यहां से दिल्ली सपरिवार
गए हुए राज साहब अपमानित लौटते। मुझे यहां आप ने इस बार झेला है। कल्पना कर सकते
हैं कि क्या हालत हुई होगी। इस सबके बावजूद पिक्चर की रिपोर्ट बहुत अच्छी रही।
रिव्यूज तो सभी टॉप क्लास मिले।
सीपी बरार में भी रिलीज हो गई। वहां भी एकदम
बढ़िया रिपोर्ट है। कल सीआई राजस्थान में रिलीज हो जाएगी।
कम से कम बम्बई रिलीज पर तो आपको अवश्य बुला
सकूंगा। पत्र दीजिएगा।
लतिका जी को मेरा नमस्कार।
शेष कुशल।
आपका भाई., शैलेंद्र
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इस्स्स्स...काहे को दुनिया बनाई...! |
फिल्म को दर्शकों ने सिरे
से नकार दिया। रेणुजी की दिल को छू लेने वाली कहानी और संवाद, नवेंदु घोष की
बेहतरीन पटकथा, राज साहब-वहीदा जी का बेजोड़ अभिनय, शंकर-जयकिशन जी का कर्णप्रिय
संगीत, शैलेंद्र और हसरत जयपुरी जी के कालजयी मार्मिक गीत, सुब्रत मित्र का
नयनाभिराम छायांकन, बासु भट्टाचार्य के काबिलेतारीफ निर्देशन के बावजूद फिल्म
बॉक्स ऑफिस पर फ्लॉप सिद्ध हुई।
1966 के राष्ट्रीय फिल्म
पुरस्कारों की घोषणा 1967 में की गई। फिल्म को सर्वश्रेष्ठ फिल्म का स्वर्ण पदक
मिला। प्रतियोगिता में कालजयी फिल्म निर्देशक सत्यजीत रे की फिल्म ‘नायक’ भी शामिल थी।
शैलेंद्रजी फिल्म की आरंभित
असफलता से अत्यंत आहत हुए। चर्चित लेखक प्रह्लाद अग्रवाल के मुताबिक “आज तीसरी कमस का आकर्षण मौजूद है इसलिए कि
शैलेंद्र के लिए तीसरी कसम धंधा नहीं, मुहब्बत थी। वह उनके कवि ह्दय की मुक्ति है”।
14 दिसंबर, 1966 को
शैलेंद्र ‘हम तो जाते अपने धाम, सबको राम राम राम’-कहते हुए इस दुनिया से अलविदा हो गए।
सितंबर 1966 में जिन
दर्शकों ने इस फिल्म का नकारा, उन्हीं ने 1967 के आरंभ में हाथों हाथ लिया। मुंबई
में फिल्म चार हफ्ते हाउसफुल चली। दर्शकों ने अपना प्यार निहाल कर दिया। समीक्षकों
ने भी दिल खोलकर फिल्म की सराहना की। कविराज शैलेंद्र को और उनके योगदान को
सिनेप्रेमी लंबे समय तक याद रखेंगे।
रेणुजी ने शैलेन्द्र के
बारे में उचित ही लिखा है-“शैलेंद्र को शराब या कर्ज
ने नहीं मारा, वह एक धर्मययुद्ध में लड़ता हुआ शहीद हो गया।“
(लेखक 'शैलेंद्र सम्मान' के संस्थापक हैं,'जनकवि शैलेंद्र' के संपादक हैं तथा केद्रीय विद्यालय, देहरादून में प्रिंसिपल हैं। ईमेल-indrajeetrita@rediffmail.com
यह लेख ‘पिक्चर प्लस’ के सितंबर 2016 के अंक में
प्रकाशित हुआ था।
पुनर्प्रकाशन हेतु पूर्वानुमति आवश्यक है।)
वाह जैसे एक कालखण्ड पुनर्जीवित हो उठा। बेहतरीन लिखा है।
जवाब देंहटाएंइन्द्रजीत जी आप का लेख पठनीय और रोचक है । सूचना प्रद तो है ही । मेरी बधाई लेँ ।.
जवाब देंहटाएंVery beautiful. No words. We reached in the era of 1960.
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