हिन्दी दिवस पर विशेष
हिंदी को ग्लोबल बनाने में सिनेमा का
योगदान![]() |
'आवारा' और 'श्री 420' के जरिये राजकपूर ने हिन्दी को रूस तक पहुंचाया |
-संजीव श्रीवास्तव
दुनिया के सबसे शक्तिशाली देश के राष्ट्रपति बराक ओबामा गणतंत्र दिवस के
मौके पर भारत आते हैं और भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की मौजूदगी में अपने
सार्वजनिक संबोधन में ‘नमस्ते’ और ‘जय हिंद’ के साथ-साथ जिस एक फिल्मी संवाद पर भारतवासियों
का सबसे अधिक दिल जीत लेते हैं वह संवाद हैं-‘बड़े-बड़े देशों
में...’। इसी भाव के साथ प्रेसिडेंट बराक ओबामा अमेरिका की धरती पर अभिनेता
शाहरुख खान; और उनकी ही नहीं, बल्कि तमाम हिंदी फिल्मों की
लोकप्रियता का संकेत देने से भी नहीं चूकते। बराक ओबामा का यह संबोधन भारतीयों
खासतौर पर हिंदी भाषी जनता को सर्वथा नवीन गौरव का अहसास कराता है। दरअसल अमेरिका
में भी हिंदी जिस तरीके से बॉलीवुडिया फिल्मों के माध्यम से वहां की ना केवल
एशियाई बल्कि यूरोपीय और अमेरिकी जनता की जुबान पर भी अपनी छाप और रंग जमाने लगी
है उससे यह संकेत साफ है कि हिंदी भाषा का प्रभाव केवल भारत या भारतीय
उप-महाद्वीपों तक सीमित नहीं रहा। टीवी समाचार हों, टीवी धारावाहिक हों याकि हिंदी
फिल्में और हिंदी गाने-सबने सात समंदर पार हिंदी भाषा का मान बढ़ाया है और
रचनात्मकता के साथ-साथ खुद में बाजार को पकड़ने की बड़ी ताकत होने का भी अहसास
कराया है। वास्तव में हिंदी सिनेमा ने हिंदी भाषा को अब ग्लोबल बना दिया है। बराक
ओबामा की जुबान पर हिंदी फिल्म के संवाद निश्चय ही अंतरराष्ट्रीय मंच पर हिंदी की
बड़ी जीत थी। यह उन देशों और उन लोगों के लिए हिंदी का फीडबैक था, जो हिंदी को
लेकर संकोच करके रह जाते हैं।
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'डीडीएलजे' और 'माई नेम इज़ खान' ने यूएस में हिन्दी की पताका लहराई |
गौरतलब है कि ‘बड़े-बड़े देशों में...’ जिस अतिलोकप्रिय हिंदी फिल्म का मशहूर संवाद है,
उसका नाम है-‘दिल वाले दुल्हनिया ले जाएंगे’; और कोई आश्चर्य नहीं कि राजकपूर की ‘आवारा’, ‘श्री420’, ‘संगम’, महबूब खान की ‘मदर इंडिया’, के. आसिफ की ‘मुगल-ए-आजम’, देवानंद की ‘गाइड’, धर्मेंद्र-संजीव कुमार की ‘शोले’, अमिताभ बच्चन की ‘दीवार’, मिथुन चक्रवर्ती की ‘डिस्को डांसर’ के बाद शाहरुख खान
की ‘दिल वाले दुल्हनिया ले जाएंगे’ एक ऐसी फिल्म के तौर पर हमारे सामने आती है
जो लोकप्रियता की हर सीमा को लांघ कर अपनी देसी
परंपरा और देसी भाषा के ठाठ की ठसक का अहसास उस दुनिया को भी करा जाती है, जहां
हिंदी या अन्य भारतीय भाषाओं को समृद्ध मानने से एक तरह का परहेज रहा है। पश्चिम
की दुनिया के दृष्टिकोण से इस परहेज को हम नस्लवादी भी कह सकते हैं। इस परहेज में
समृद्ध देशों का वास्तव में अपना एक नजरिया था, लेकिन जब उसी भाषा की पहुंच और
ताकत का बोध विससित और शक्तिशाली देशों के कारोबारियों और फिल्मकारों को बखूबी
होने लगा तो वे ना केवल हिंदी में अपनी भाषा की फिल्मों का धड़ल्ले से डब कराने
लगे बल्कि हिंदी क्षेत्र के पात्रों और कहानियों का चुनाव भी करने लगे और कोई हैरत
नहीं कि उनके इस चुनाव ने व्यावसायिक सफलता भी खूब अर्जित की। यानी पश्चिम ने मान
लिया कि हिंदी भाषा पिछड़े क्षेत्र की भाषा नहीं रही। संस्कृत जैसी प्राचीन भाषा
की कोख से जन्मीं हिंदी कविंद्र गुरुदेव की भाषा में तमाम आयातित और सत्तासीन
भाषाओं और देश की कोने-कोने की बोलियों का एक ऐसा स्वाभाविक प्रवाह बन गई है जहां
उम्मीद की किरणें अब नई चकाचौंध भरने लगी हैं और जिसकी रोशनी में पूरा समाज रोशन हो
रहा है। इस मायने में बराक ओबामा के मुंह से निकला फिल्मी संवाद ‘बड़े-बड़े देशों में…’ सार्थक साबित हो गया। इसी संदर्भ में एक
लोकप्रिय गीत मौजूं है-‘दिल ले गई तेरी बिंदिया, याद आ गया मुझको इंडिया, मैं कहीं भी रहूं इस
जहान में, मेरा दिल है हिंदुस्तान में...’ या फिर ‘चल भाग चलें पूरब की ओर...प्यार मेरा ना चोरी कर ले ये पश्चिम के चोर
रे…’ ऐसे कई गीत हिंदुस्तान की उस परंपरा, भाषा और
संस्कृति की ओर जिस तरीके से लोकप्रियतावादी या मनोरंजनवादी शैली में इशारा करती
है, उसमें वाकई दुनिया को मानना पड़ा कि दिल वाले ही दुल्हनिया को ले जाते
हैं, जहां लोग साथ-साथ रहते हैं और हम इंडियावाले कहकर इतराते हैं
गोकि महान् शोमैन राज कपूर ने सालों पहले गाया मेरा जूता है जापानी..sss..फिर भी दिल है हिंदुस्तानी...। यानी दुनिया के पटल पर हिंदी की पताका को लहराने की परंपरा भी नई नहीं
है।
‘आवारा’ से ‘पीकू’ तक
वैसे बात ‘दिलवाले दुल्हनिया
ले जाएंगे’ तक ही सीमित नहीं है। हाल के कुछ सालों में विदेशों में बॉलीवुड की
और भी कई फिल्मों ने बेहद धमाल मचाया है। हां, यह सही है कि इनमें शाहरुख खान की
फिल्मों मसलन ‘चेन्नई एक्सप्रेस’ हों या कि उससे पहले ‘माई नेम इज खान’ और ‘स्वदेश’; इन फिल्मों ने एक अलग
स्वरूप विकसित किया। आमिर की ‘लगान’, ‘दिल चाहता है’, ‘थ्री इडियट’, संजय दत्त की ‘मुन्ना भाई एमबीबीएस’, ‘लगे रहो मुन्नाभाई’ सलमान खान की ‘हम साथ-साथ हैं’, ‘हम दिल दे चुके सनम’, ’दबंग’, ‘बॉडीगार्ड’, ऋतिक रोशन की ‘कृष’, ‘कोई मिल गया’, ‘कहो ना प्यार है’, ‘जोधा अकबर’, ‘वीर-जारा’ अजय देवगन की ‘सिंघम’, अक्षय कुमार और परेश
रावल की ‘हेरा फेरी’, ‘ओ माई गॉड’, अमिताभ बच्चन की ‘चीनी कम’, ‘पा’, ऐश्वर्या राय की ‘देवदास’, शबाना आजमी और
नंदिता दास की ‘फायर’ या फिर लिविंग लीजेंड मिल्खा सिंह और मेरी कॉम के
जीवन पर आधारित फरहान अख्तर और प्रियंका चोपड़ा द्वारा अभिनित इसी नाम की फिल्मों ने विदेशों में हिंदी का परचम लहराने में कोई कसर
नहीं छोड़ी।
गौरतलब है कि नब्बे के दशक के बाद विदेशों में हिंदी
फिल्मों की लोकप्रियता और भी बढ़ी। इसकी वजह फिल्मों का विषय और कहानी का चुनाव
था। पहले की फिल्मों के मुख्य किरदार शहर से पढ़कर गांव लौटते थे तब फिल्म की
कहानी शुरू होती थी लेकिन नब्बे के दशक के बाद की फिल्मों में नायक विदेश से पढ़कर
हिंदुस्तान की धरती पर लौटने लगे और कहानी को आगे बढ़ाने लगे। ‘हम साथ-साथ हैं’ के अलावा शरत् बाबू के उपन्यास ‘देवदास’ के प्लॉट को याद
कीजिए-पीसी बरुआ और बिमल रॉय ने ‘देवदास’ की कहानी को मूल कृति के मुताबिक ही रखा था लेकिन संजय लीला भंसाली
ने ‘देवदास’ को विदेश रिटर्न बना दिया। जाहिर है यह बदलाव वक्त की मांग था।
क्योंकि नब्बे के दशक तक आते-आते भारतीय सिनेमा का मिजाज बदलने लगा था। उसे तकनीक
तौर पर ही नहीं बल्कि विषयवस्तु के चुनाव के स्तर पर भी आधुनिक कहलाने का शौक हो
गया था। हिंदी क्षेत्र में हिंदी की महत्ता और बढ़ते बाजार को देखते हुए विदेशी
फिल्मों का हिंदी डब धड़ल्ले से होने लगा था। गांव से लेकर शहर तक के लोग उन
फिल्मों के परिवेश से वाकिफ होने लगे थे यानी उनका रुख और टेस्ट तेजी से बदलने लगा
था। ऐसे में हिंदी सिनेमा ने भी अपनी पुरानी पोशाक को उतारना जरूरी समझा। लिहाजा ‘हम आपके हैं कौन’ के अलावा बात करें तो ‘हम दिल दे चुके सनम’, ‘दिलवाले दुल्हनिया
ले जाएंगे’, ‘हम साथ-साथ हैं’, ‘सन ऑफ सरदार’ जैसी ऐसी कई फिल्में सामने आती हैं जिनकी कहानियों में प्रवासी भारतीयों और उनके जीवन को इस मकसद से दिखाया गया ताकि विदेश
में भी अच्छी तादाद में दर्शक मिल सकें। लेकिन इसी बहाने ये फिल्में हिंदी भाषा को
बढ़ावा देने के साथ-साथ देशी-विदेशी संस्कृति को दिखाने का बेहतरीन फार्मूंला भी
साबित हुईं। यह एक प्रयोग था जब गांवों का कस्बाईकरण और कस्बों का शहरीकरण हो रहा
था और वहां की नई पीढ़ी अपने से पुरानी पीढ़ी के सामने आधुनिक साबित करने में तुली
थी। ऐसे में प्रवासी भारतीयों के प्लॉटवाली फिल्मों ने जितना विदेशों में
लोकप्रियता हासिल की उतनी ही देश के छोटे शहरों के छोटे सिनेमा घरों मे। इसी सफतला
को देखते हुए नब्बे के दशक के बाद विदेशों में हिंदी फिल्मों की शूटिंग्स का
सिलसिला भी पहले के मुकाबले और ज्यादा बढ़ गया। फिल्म कारोबार से जुड़े विश्लेषकों
की मानें तो विदेशी बाजार से होने वाली आमदनी फिल्मों की कमाई का एक अहम हिस्सा
बनने लगी और यह सिलसिला लगातार जारी है।
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'मदर इंडिया': ऑस्कर नामांकन से हिन्दी को दुनिया में मिली मान्यता |
लेकिन जरा इतिहास के आइने में झांककर देखें तो हमें बॉलीवुड के महान्
शो मैन कहे जाने वाले राजकपूर इस मायने में सबसे बड़े लीजेंड नजर आते हैं। सबसे
पहले उन्होंने ने ही हिंदी सिनेमा को विदेश की धरती पर लोकप्रिय बनाया। राजकपूर
पश्चिम की सिनेमाई शैली से प्रेरित थे, लिहाजा उनके भीतर एक तुलनात्मक नजरिया बसता
था। ऐसे में वो उस सामंजस्य के साथ फिल्में बनाते थे कि भारत के दर्शक और विदेश के
दर्शक दोनों को उनकी फिल्मों में एक नवीनता नजर आ सके। इस दृष्टिकोण से राजकपूर
कितनी बार सफल और विफल हुए, ये एक अलग बात है लेकिन इसमें कोई दो राय नहीं राजकपूर
का सिनेमा संसार एशियाई और यूरोरीय देशों में खूब चर्चा बटोरता था। कहा जाता है कि
उनकी ‘आवारा’ फिल्म के गाने पचास के दशक में पूर्व सोवियत संघ के देशों में यूं
गाए जाते थे मानों हिंदुस्तान की धरती पर अक्सर हर तरफ कोई ‘आवारा हूं...’ गुनगुनाता रहता हो।
बाद के दौर में छात्र जीवन में देर रात रेडियो मास्को से यह गीत मैंने भी कई बार
सुने हैं। खास बात यह कि रेडियो मास्को से केवल मुकेश की आवाज में ही यह गाना
प्रसारित नहीं किया जाता था बल्कि स्थानीय रूसी गायकों की आवाज में गाए गए गीत भी
बजाये जाते थे जो कि एक अलग ही कशिश लिये हुए होती थी। इसी तरह राजकपूर की फिल्म
श्री 420 के गाने ‘मेरा जूता है जापानी, ये पतलूम इंगलिस्तानी, सर पे लाल टोपी रूसी फिर
भी दिल है हिंदुस्तानी’ ने एशियाई और यूरोपीय देशों में धूम मचा दी थी। इन गीतों के जरिये
राजकपूर की और भी कई फिल्में मसलन ‘संगम’, ‘जिस देश में गंगा
बहती है’, ‘बरसात’, ‘तीसरी कसम’ और ‘मेरा नाम जोकर’ ने रूस, रोमानिया, तुर्की, अफगानिस्तान और चीन में रिकॉर्ड सफलता प्राप्त की थी। ‘आवारा’ 1953 में कान फिल्म
समारोह के ग्रैंड प्राइज के लिए नामांकित भी हुई। इसके बाद साल 1957 की महबूब खान की
फिल्म 'मदर इंडिया’ का नामांकन जब ऑस्कर
अवॉर्ड के लिए विदेशी भाषा की बेहतरीन फिल्म के तौर पर हुआ तब वैश्विक स्तर पर
हिंदी फिल्म को गंभीरता से लिया जाने लगा और इन फिल्मों के माध्यम से हिंदी भाषा
को विशेष पहचान मिलनी शुरू हो गई।
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'डिस्को डांसर' : चीन और जापान में भी हिट हुई हिन्दी |
एशियाई देशों खासतौर पर चीन, बांग्लादेश, नेपाल, भूटान, पाकिस्तान,
श्रीलंका और बर्मा में तो हिंदी फिल्मों का दबदबा है। हाल की प्रदर्शित अमिताभ
बच्चन और दीपिका पादुकोण अभिनीत फिल्म ‘पीकू’ ने तो चीन में
रिकॉर्ड सफलता हासिल की है। ‘भाग मिल्खा भाग’ और ‘मेरी कॉम’ ने जितनी प्रशंसा
भारत में बटोरी उतनी ही अमेरिका, पाकिस्तान, चीन, जापान और मॉरीशस के दर्शकों ने
इन फिल्मों को सराहा। बात पाकिस्तान की करें तो यहां के दर्शकों को हिंदी फिल्में
देखने में कोई परेशानी नहीं होती क्योंकि भारतीय हिंदी को उन्हें समझने में जरा भी
कठिनाई नहीं होती। एक दौर में अफगानिस्तान में ‘जंजीर’, ‘धर्मात्मा’, ‘अंधा कानून’, ‘खुदा गवाह’ और ‘काबुल एक्सप्रेस’ जैसी कई फिल्मों ने वहां के दर्शकों के दिलों पर राज किया है। जिस
तरह चीन और रूस में राजकपूर लोकप्रिय थे उसी तरह जापान में गुरुदत्त की फिल्मों की
धूम रहा करती थी। जर्मनी में भी बॉलीवुड की हिंदी फिल्मों का खासा जोर रहा है।
जर्मन टीवी चैनलों पर भारतीय फिल्मों का बाकायदा प्रसारण होता है। इसी तरह यूरोप
और अमेरिका में यशराज बैनर की फिल्मों का एक बड़ा दर्शक वर्ग है। साल दो हजार में
सुपरस्टार अमिताभ बच्चन को स्टार ऑफ द मिलेनियम का खिताब यूं ही नहीं दिया
गया था। याकि उससे पहले लता मंगेश्कर को सर्वश्रेष्ठ गायिका यूं ही नहीं मान लिया
गया था। लता और अमिताभ की लोकप्रियता वास्तव में हिंदी भाषा की स्वीकार्यकर्ता थी,
जिसे बड़े-बड़े देशों... ने माना। म्यूजियम तुसाद में भारत के सितारों की
प्रतिमा भी वास्तव में हिंदी भाषा की गौरवशाली प्रतिमा की स्थापना है। यह सिलसिला
आगे भी जारी है।
इनके अलावा फिल्मकारों का एक वर्ग और है
जिन्होंने कला और मिडिल रोड सिनेमा निर्माण में दुनिया भर में अपनी खास पहचान बनाई
है और उन्होंने भारतीय परिवार की कहानी को बहुत ही अलग अंदाज में प्रस्तुत किया
है। इस दृष्टिकोण से शेखर कपूर, मीरा नायर, दीपा मेहता, जगमोहन मुंदड़ा जैसे
फिल्मकार बेहद अहम हैं। इन जैसे फिल्मकारों ने कभी ‘बैंडिट क्वीन’ तो कभी ‘मॉनसून वेडिंग’ तो कभी ‘माया मेमसाहब’ तो कभी ‘सलाम बॉम्बे’, तो कभी ‘फायर’ और ‘वाटर’ जैसी फिल्मों का निर्माण किया। इन फिल्मों ने ना केवल विदेशी फिल्म
समारोहों में चर्चा बटोरी बल्कि जनमानस तक भी पहुंचने में सफलता पाई। इस दृष्टिकोण
से रामगोपाल वर्मा की ‘सत्या’, मधुर भंडारकर की ‘पेज थ्री’ और ‘कॉरपोरेट’ या फिर संजय लीला भंसाली की ‘ब्लैक’ और अंशुमान खुराना अभिनीत ‘विक्की डोनर’, जॉन अब्राहम की
फिल्म ‘मद्रास कैफे’ और आमिर खान की ‘पीपली लाइव’ ने भी विदेशी धरती
पर बेहतरीन कारोबार कर हिंदी का गौरव बढ़ाया है। हिंदी सब-टाइटल्स के साथ ये
फिल्में यहां खूब देखी गईं। अमेरिका में शाहरुख खान की पिल्म ‘माई नेम इज खान’ ने तो रिकॉर्ड ही बना लिया।
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'लगान' से यूरोपीय देशों में हिन्दी का परचम लहराया |
अब हाल यह है कि हिंदी फिल्मों का व्यवसाय दुनिया भर के करीब नब्बे
देशों में फैल चुका है। हिंदी फिल्में यहां बसे भारतीय और भारतीय संस्कृति, भाषा
में दिलचस्पी रखने वालों के लिए खासी अहम साबित हो रही हैं। विदेशों में बसे
भारतीय इन फिल्मों से खुद को भारतीय संस्कृति से जुड़ाव महसूस करते हैं।
अंतरराष्ट्रीय मंच पर हिंदी की बढ़ती जा रही ताकत का अंदाजा इसी बात से लगाया जा
सकता है कि साल उन्नीस सौ बयासी में जब रिचर्ड एटनबरो और बेन किंगस्ले की ‘गांधी’ फिल्म आती है तो वे अंग्रेजी के साथ-साथ हिंदी भाषा में भी उसे बनाकर
भारत के सिनेमाघरों में एक साथ उतारते हैं। और करीब ढाई दशक बाद दो हजार आठ में
डैनी बॉयल जब 'स्लमडॉग मिलिनेयर’ लेकर आते हैं तब भी
वो उसे अंग्रेजी के साथ-साथ हिंदी में एक ही साथ जारी करते हैं।
छोटे पर्दे का बड़ा योगदान
छोटे पर्दे पर प्रस्तुत किये जा रहे मनोरंजन को हम सिनेमा से अलग नहीं
कर सकते। अपनी गतिविधियों, उपलब्धियों और सफलताओं की बदौलत वे अब बड़े पर्दे के
पूरक बन गए हैं। बड़े से बड़े फिल्म निर्माता और अभिनेता टीवी की लोकप्रियता के
शरणागत हुए हैं। लिहाजा छोटे पर्दे पर प्रसारित होने वाले धारावाहिक, रियलिटी शो
और चौबीस घंटे समाचार के सीधा प्रसारण ने भी हिंदी को ग्लोबल बनाने में अपनी
महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हुए उसमें गति प्रदान किया है। याद कीजिए जब हिंदी में
चौबीस घंटे के समाचार चैनल ने जोर नहीं पकड़ा था तब फिक्की, एसोचेम की गतिविधियां,
अंतरराष्ट्रीय फिल्म समारोह की खबरें, कोर्ट के फैसले, संसद की कार्यवाही क्या
सीधे हिंदी में जानने को मिला करती थीं, शायद ही। क्या बिजनेसमैन और फिल्म
प्रोड्यूसर टीवी पर हिंदी में बोलते देखे जाते थे, शायद ही कभी कभार। बहुत अफसोस
के साथ कहना पड़ रहा है कि आज से दो दशक पहले तक हिंदी केवल अनुवाद की भाषा हुआ
करती थी। लेकिन आज ऐसा नहीं है तो केवल सिनेमा और टीवी की बदौलत। अब जानी मानी
हस्तियां अगर एक साथ दो भाषाओं (हिंदी और अंग्रेजी) में एक समान वक्तव्य देती हैं
तो जाहिर है इससे हिंदी को बड़ा आत्मबल मिला है। देश का हर वर्ग हिंदी समझने लगा
है। उत्तर से दक्षिण तक ही नहीं बल्कि बल्कि हिंदी की ऐसी स्वीकार्यर्ता देश की
सीमाओं के बाहर अंतरराष्ट्रीय स्तर तक सगर्व हुई है।
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केबीसी से ग्लोबल हुई हिन्दी |
गौरतलब है कि अस्सी और नब्बे के दशक में
दूरदर्शन ने राष्ट्रीय कार्यक्रम और समाचारों के प्रसारण के माध्यम से हिन्दी को
जनप्रिय बनाया और इसे देश के विकास से जोड़ा था। नब्बे के दशक में मनोरंजन और
समाचार के निज़ी चैनलों के आने के बाद इस प्रक्रिया में और भी तेजी आई। मनोरंजक
कार्यक्रमों में फ़िल्मों का भरपूर उपयोग किया गया और फ़ीचर फ़िल्में, डॉक्यूमेंटरी, फ़िल्मी गीतों के प्रसारण से हिंदी भाषा का भरपूर प्रचार-प्रसार
हुआ। पौराणिक, धार्मिक, ऐतिहासिक और पारिवारिक
धारावाहिकों के प्रसारण से लोगों में भाषा और संस्कृति का प्रेम जागृत हुआ। आम
बोलचाल की हिंदी के अलावा संस्कृतनिष्ठ हिंदी का भी प्रचलन बढ़ा और लोगों में इसके
प्रति एक तरह की नई जागरुकता आई। ‘रामायण’, ‘महाभारत’, ‘हमलोग’, ‘भारत: एक
खोज’ जैसे धारावाहिक हिंदी भाषा के विकास के साथ-साथ राष्ट्रीय एकता के
सूत्र भी बने। इन धारावाहिकों का प्रसारण केवल देश में नहीं देखा गया बल्कि दुनिया
भर में जहां भी भारतीय बसे थे, याकि जिन अ-भारतीयों को भारतीयता से जरा भी लगाव
था, वे भी इन धारावाहिकों के दर्शक बनें और हिंदी भाषा को बखूबी जाना और समझा।
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चैनलों ने बाजार में हिन्दी की ताकत बढ़ाई |
धार्मिक,
सामाजिक धारावाहिकों के बाद ‘कौन
बनेगा करोड़पति’ शो और
एकता कपूर के कॉरपोरेट घरानों की कहानियों पर आधारित धारावाहिकों ने तो हिंदी को एक अलग ही फ्लेवर दे दिया। हिंदी अब पिछड़ों की भाषा
नहीं रही। उसमें धीरे-धीरे ग्लैमर आने लगा। कॉरपोरेट क्षेत्र में भी हिंदी चहकने
लगी। हम कह सकते हैं कि हिंदी ने अपनी पोशाक बदल ली। अब हिंदी भी आधुनिक और कमाऊ
भाषा हो गई। ‘कौन बनेगा करोड़पति’ शो में फिल्म अभिनेता अमिताभ बच्चन की भाषा और उच्चारण ने तो
हिंदी को अहिंदी भाषी जनता को भी खूब आकर्षित किया। यही वजह है कि आज यह कहें कि
लोकप्रियता के मामले में हिन्दी अंग्रेजी पर हावी होने लगी है तो इसमें कोई
अतिश्योक्ति नहीं होगी। आज जितने भी सेटेलाइट या डिजिटल माध्यम शुरू हो रहे हैं,
उनमें हिंदी का प्रभाव सबसे ज्यादा है। और सबसे प्रसन्नता की बात तो ये कि उन सबकी
पहुंच भारतीय सीमा से बाहर अंतरराष्ट्रीय स्तर तक है। लेकिन चिंता तब वहां ज्यादा होने लग जाती है जब हम सिनेमा का
माध्यम हिंदी तो बनाते हैं लेकिन उसकी पटकथा और निर्देशन के तरीके पर अब भी
अंग्रेजी का ही प्रभुत्व देखते हैं। सवाल है बॉलीवुडिया सिनेमा के आउटपुट क्षेत्र
की तरह सिनेमा के इनपुट क्षेत्र में भी हिंदी अपनी खास जगह कब बनाएगी?
(यह लेख भारतीय सांस्कृतिक संबंध परिषद की
पत्रिका ‘गगनांचल’ के विश्व हिन्दी विशेषांक, 2015 में
प्रकाशित हुआ था। इस विशेषांक के संपादक थे-देश के जाने-माने रचनाकार-अशोक चक्रधर।)
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