सेंसर बोर्ड भोजपुरी फिल्मों की स्तरीयता पर
ध्यान दे - सलिल सुधाकर
ध्यान दे - सलिल सुधाकर
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अभिनेता सलिल सुधाकर |
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संजीव श्रीवास्तव – दशहरे के मौके पर आपकी फिल्म आ रही है- ‘सईंया सुपरस्टार’ इसमें किस तरह की
भूमिका निभा रहे हैं?
सलिल सुधाकर - ये गांव के समृद्ध इज्जतदार ठाकुर परिवार के मुखिया की भूमिका है
जो अपने बेटे को आईपीएस अधिकारी बनाना चाहता है लेकिन समाज में मौजूद ‘खल’ तत्व उसके बेटे को हिंसक
रूप अख्तियार करने को बाध्य कर देते हैं, जिससे पिता-पुत्र के बीच एक सैद्धांतिक
लड़ाई पर्दे पर चलती है। भूमिका महत्वपूर्ण है। दर्शकों को पसंद आयेगी।
संजीव श्रीवास्तव – भोजपुरी फिल्में आमतौर पर शुद्ध मनोरंजन के लिए बनाई जाती हैं। क्या
‘सईंया सुपरस्टार’ भी क्या उसी परंपरा की फिल्म है या किसी मुद्दे को उठाती है?
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'सईंया सुपरस्टार' का एक दृश्य |
सलिल सुधाकर – भोजपुरी फिल्में ही नहीं किसी भी भाषा की मुख्यधारा की फिल्में
शुद्ध मनोरंजन के लिये ही बनाई जाती हैं। यह सिनेमा विधा की जरूरत है और मजबूरी
भी। जितने पैसों का समावेश फिल्म बनाने में होता है उसकी वापसी का कोई फॉर्मूला तय
नहीं है। दरअसल मोटे तौर पर यह कहा जाये कि फिल्म आम दर्शकों को पसंद आयेगी या
नहीं, फिल्म का निर्माण करते समय मुख्य कसौटी यही रहती है। इसके पीछे भयानक
आर्थिक हानि से बचने का प्रयास ही मुख्य कारण है। हिन्दी या इतर भाषा की कुछ
फिल्में अगर प्रयोगधर्मी और शुद्ध व्यवसायिकता से हटकर भी रही हैं तो उनके
निर्माताओं को प्राय: आर्थिक नुकसान झेलना पड़ा है - इसका सबसे बड़ा उदाहरण फिल्मोद्योग में
शशि कपूर हैं। 'उत्सव', 'त्रिकाल', 'जुनून' जैसी फिल्में बनाते हुये वो दिवालिया हो गये
थे। तो इसीलिये आर्थिक संकट उठाना छोटे-छोटे निर्माताओं के वश का तो बिल्कुल ही
नहीं है। भोजपुरी फिल्मों के निर्माता अपेक्षाकृत छोटी पूंजी वाले होते हैं-उनके
पास बड़ा आर्थिक नुकसान झेलने की सामर्थ्य नहीं होती है। इस घबराहट में भी कई तरह
से कथित व्यावसायिक समझौते कर लिये जाते हैं। लेकिन सारा दोष निर्माताओं का ही
नहीं है। ‘चोली के पीछे क्या है…’-इस गाने की देशभर में लाखों कॉपियां बिक गई थीं। जाहिर है निर्माता
ऐसे गानों से परहेज नहीं करेगा। परहेज तो दर्शकों-श्रोताओं को भी करना चाहिये न! इसलिये भोजपुरी पर
सीधे-सीधे टूट पड़ना मुनासिब नहीं है, क्योंकि यह इंडस्ट्री भी अपनी
गलतियों से सीख रही है। और इसे कितना बेहतर होना है इसका फीडबैक भी दर्शकों के ही
जिम्मे है। ‘सईंया सुपरस्टार’ भी मूलत: समाज की बुराइयों के विरुद्ध ही एक फिल्म है, थोड़े बहुत लटके-झटके उसकी बाध्यता
है।
संजीव श्रीवास्तव – भोजपुरी फिल्मों पर एक समय भोंडा
प्रदर्शन का भी आरोप लगता रहा है, जबकि हम देखते हैं कि हरियाणा, पंजाब और राजस्थान
के पॉप भी इससे अछूते नहीं हैं, ऐसे में भोजपुरी ही टारगेट पर क्यों?
सलिल सुधाकर – देश में एक प्रवृति है कि हिन्दी भाषी क्षेत्र की जनपदीय बोलियों
को (काऊबेल्ट की भाषा कह कर) गंवार की निगाहों से देखा जाता है। यह प्रवृत्ति सही
नहीं है। गांव और गंवार तो हर भाषाई इलाके में है। मैं तो गंवार को नकारात्मक भी
नहीं मानता हूं। गांव का व्यक्ति गंवार ही होगा। एक और कारण है कि हिन्दी भाषी
क्षेत्रों की जनपदीय बोलियों को खड़ी हिन्दी के बरक्स तोला जाता है। इसके पहले जिम्मेदार
हिन्दी भाषी ही हैं जो खड़ी हिन्दी सीखते ही अपनी ग्रामीण भाषा को महत्व नहीं
देते। उसे तथाकथित सभ्य समाज में बोलने में परहेज करते हैं। देश के दूसरे भाषाई
इलाकों में भी हिन्दी भाषी क्षेत्र के लोगों से हिन्दी की अपेक्षा की जाती है,
कारण उन्हें उन इलाकों की जनपदीय बोलियों का कोई ज्ञान नहीं है। इसलिये वे भी खड़ी
हिन्दी के मुकाबले भोजपुरी जैसी भाषाओं को उपहास या मजाक के नजरिये से देखते हैं, जिसका
असर भोजपुरी फिल्मों के स्तर पर भी पड़ता है। क्योंकि भोजपुरी का ही शिक्षित वर्ग उसे
विशेष तवज्जो न देकर खुद को ‘एलिट’ साबित करना चाहता है।
इससे भोजपुरी के दर्शकों की संख्या कम होती है। और
स्तरीयता की अपेक्षा भी कम हो जाती है। बचे हुये दर्शकों के लिए व्यावसायिक लटके-झटके
ही सफलता का पैमाना मान लिये जाते हैं। जाहिर है दूसरी भाषाओं के लोगों को भी भोजपुरी
को टारगेट करने का मौका मिल जाता है। यहां यह बताना भी जरूरी है कि दूसरी भाषाओं
में क्या हो रहा है, इसका तो राष्ट्रीय स्तर पर पता नहीं चल पाता है क्योंकि वे
भाषाएं उस मूल के लोग ही बोलते, समझते और जानते हैं। जबकि भोजपुरी कमोबेश हर जगह
समझ ली जाती है। इसके बावजूद मैं कहूंगा कि भोजपुरी फिल्मों को लेकर सेंसर बोर्ड
की सख्ती बहुत जरूरी है।
संजीव श्रीवास्तव – ‘सईंया सुपरस्टार’ के अलावा क्या कर रहे हैं?
आगामी प्रोजेक्ट?
सलिल सुधाकर – जी हां, कुछ हिन्दी फिल्मों में काम कर रहा हूं - जैसे कि ‘लिटिल गांधी’ और ‘मुंबई किसकी है?’। इन फिल्मों में मैं
दिखाई पड़ूंगा। इसके अलावा एक इंटरनेशल फिल्म ‘गुलमकई’ भी है। यह एक बायोपिक फिल्म
है जोकि नोबेल पुरस्कार विजेता अफगानी लडकी मलाला युसुफज़ई के जीवन पर बनी रही है।
इसमें मैं एक पाकिस्तानी मेजर की भूमिका में दिखूंगा। साल के अंत तक दो और हिन्दी
फिल्में और चार भोजपुरी फिल्में फ्लोर पर जाने की संभावना हैं।
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मलाला युसुफज़ई पर बन रही बायोपिक 'गुलमकई' में सलिल सुधाकर सबसे बायें |
संजीव श्रीवास्तव –आपके फिल्मी करियर की बात करें तो आपका फिल्मों में कैसे जाना हुआ?
सलिल सुधाकर – यह एक लंबी दास्तान है। पता नहीं क्यों मुझे बचपन से लगता था कि
मैं फिल्मों में काम करूंगा। बाद में स्कूल, कॉलेज के दिनों में पढ़ाई के साथ-साथ थियेटर
भी चलता रहा। हालांकि हमारा कोई परिवेश नहीं था, ना ही कोई गॉडफादर। जीवन में
चुनौतियां थीं, जैसेकि अभिनेता बनने पर घर-गृहस्थी की दाल रोटी का क्या होगा? चूंकि प्रोत्साहन तो
कहीं से मिलता नहीं, लोग आपकी इच्छा की राहों में बाधाएं अवश्य खड़ी करते हैं। लोग
बाधाएं खड़ी भी करते रहे, लेकिन हमारा कारवां धीरे-धीरे चलता रहा। पृष्ठभूमि में
थियेटर का अनुभव था तो फिल्मों में भी प्रयास के बाद काम मिला। मुंबई आने के बाद भी लंबा संघर्ष है। संघर्ष केवल फिल्मों में काम
पाने का नहीं है बल्कि मुंबई में सरवाइव करने का भी होता है। काफी समय तक
पत्रकारिता करने के बाद प्रबंधकीय परेशानियों ने नौकरी से विरत किया। उसे छोड़कर
फिर पूरी तरह संघर्ष को आत्मसात किया। अब तक अपराजिता, अर्धांगनी, विराट, शक्तिमान,
ओम नम: शिवाय, चंद्रकांता, बंधन, शगुन, कुछ झुकी सी पलकें, एक दिन अचानक,
कारावास, आंचल, स से सरस्वती आदि दर्जनों धारावाहिकों में प्रमुख भूमिकाएं करते
हुये गाड़ी यहां तक पहुंची है। आगे देखते हैं...! इस दौरान मुंबई से लेकर दक्षिण भारत तक बड़े-बड़े निर्दैशकों के साथ
काम करने का सौभाग्य मिला, इनमें ‘बॉम्बे टू गोवा’ व ‘महान’ फेम एस. रामानाथन और ‘हम पांच’, ‘वो सात दिन’ के बापू जैसे
निर्देशक शामिल हैं। इनके साथ काम करना हमारे लिए सौभाग्य की बात रही।
संजीव श्रीवास्तव – क्या ये रोमांचक सफर नहीं लगता कि पहले आप ‘आज’, ‘पाटलीपुत्र टाइम्स’, ‘लोकमत समाचार’ जैसे दैनिक अखबारों
के वरिष्ठ संपादकीय सहयोगी रहे फिर अभिनेता बन गये?
संजीव श्रीवास्तव – आपकी पर्सनाल्टी हैंडसम हंक कहे जाने वाले विनोद खन्ना की याद दिलाती
है-यह आपको खुद में कितना रोमांचित करता है? इस संबंध में कोई ऐसा वाकया जिसे
शेयर करने लायक आप उचित समझते हों?
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स्व. विनोद खन्ना के साथ सलिल सुधाकर |
सलिल सुधाकर – विनोद खन्ना मेरे पसंदीदा नायक थे। मेरा व्यक्तिगत तौर पर मानता है
कि पर्दे पर कोई अभिनेता, अभिनेत्री अपनी युवावस्था की ताजगी से दर्शकों के एक
विराट वर्ग से प्रेरित करता है, उनके भीतर एक सकारात्मक स्फूर्ति जगाता है, जिसे
हम आइडल्स कहते हैं। विनोद खन्ना की स्फूर्ति भी हमें आकर्षित करती थी। हमें ताकत
देती थी। मैंने उनके साथ ‘महाराणा प्रताप’ में काम भी किया था। और निधन से एक साल पहले श्रीश्री रविशंकर जी के
आश्रम में हमलोग साथ-साथ भी थे। मैं उनको एक सब्जेक्ट सुनाने गया था। साथ-साथ हमलोग
काफी देर कर बातें करते रहते थे। बहुत कमजोर हो गये थे। उनका उपचार चल रहा था। लेकिन
पता नहीं था कि इतनी जल्दी उनका दु:खद अवसान हो जायेगा। रही बात समानता की – विनोद खन्ना बहुत हैंडसम थे,
मैं उतना नहीं हूं।
संजीव श्रीवास्तव – अंतिम सवाल, बॉलीवुड में इन दिनों नेपोटिज्म की चर्चा चल रही है। आप
करीब दो दशक से इस इंडस्ट्री में हैं-आपको इसमें कितना दम लगता है? क्या यह सही नहीं
है कि भाई-भतीजे अक्सर असफल कलाकार होने पर कम से कम प्रोड्यूसर तो बन जाते हैं
लेकिन स्ट्रगलरों को जब ओपनिंग भी नहीं मिल पाती तो वो उस पेशे से ही कट जाते हैं?
सलिल सुधाकर - दरअसल यह आरोप बहुत आधारयुक्त नहीं है। सिनेमा इंडस्ट्री सरकार के
पैसे पर नहीं चलती है। इसीलिये यहां कोई आरक्षण का मुद्दा नहीं उठ पाता है। ये
शुद्ध पुरुषार्थ और व्यक्तिगत पूंजी का क्षेत्र है-जो सीधे-सीधे दर्शकों को
प्रभावित कर सकने की क्षमता पर निर्भर करता है। यहां किसी को कोई तनख्वाह नहीं मिलती
है और ना ही किसी की तीस साल की गारंटी होती है। सबकुछ बड़ा ही एडहॉक बेसिस पर
होता है। इसलिये यह आरोप कि प्रोड्यूसर का बेटा प्रोड्यूसर-ऐसा नहीं। प्रोड्यूसर
का बेटा जो बचपन से काम देखेगा, वही तो सीखेगा! यही उसकी विरासत है। भविष्य में वह
निर्माता बना या नहीं बना-यह उसकी व्यक्तिगत योग्यता पर निर्भर करता है। अगर
फिल्में न बना पाया तो? पैसे डुबो दिये तो? बर्बाद हो गया तो? कोई सरकारी पैसा उसे बचाने नहीं आयेगा। यह व्यक्तिगत कमाई है। अमिताभ
बच्चन का बेटा अगर इंडस्ट्री में है तो उससे किसी को क्या समस्या है? अमिताभ बच्चन को
सरकार ने अभिनेता नहीं बनाया। कोई साहित्यकार का बेटा अगर साहित्यकार बन जाता है
तो यह सवाल क्यों नहीं उठाया जाता? अमिताभ बच्चन का संघर्ष जिंदगी का संघर्ष रहा है। मैं इसे गलत नहीं
मानता। बाप ने कमाया, बेटे को दिया तो इसमें क्या गलत है? ये कोई सरकार का
पैसा तो नहीं है! फिल्में बनाने के बाद तो सरकारें उल्टा पैसे लेती हैं। सच बताऊं सरकार
के भारी भरकम टैक्सों के चलते कई बार अच्छी फिल्में नहीं बन पाती हैं।
संजीव श्रीवास्तव – आपने ‘पिक्चर प्लस’ को अपना कीमती वक्त
दिया इसके लिए बहुत-बहुत शुक्रिया और आगामी फिल्मों के लिए आपको ढेर सारी
शुभकामनाएं।
सलिल सुधाकर - आपका भी धन्यवाद। मोस्ट वेलकम।
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(नोट: यह साक्षात्कार ‘पिक्चर प्लस’ के लिए लिया गया
है। इसे अन्यत्र पुनर्प्रकाशित करना कॉपीराइट नियमों का उल्लंघन माना जायेगा।
पुनर्प्रकाशन के लिए पूर्वानुमति आवश्यक है।
संपर्क – Email
: pictureplus2016@gmail.com ; M. 9313677771)
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