‘माधुरी’ के संस्थापक-संपादक अरविंद कुमार से
जीवनीपरक सिनेवार्ता भाग–दो
संजीव श्रीवास्तव – अरविंद जी, अभी तक
यह बात साफ नहीं हो पाई कि ‘माधुरी’ के संपादक बनाये जाने के
दौरान आपका सिनेमा प्रेम कैसा था? किस अभिनेता-अभिनेत्री या फिल्म
ने आपके मन मस्तिष्क पर विशेष प्रभाव डाले थे, जिनके बारे में
आप लिख देने को आतुर हो जाते थे।
अरविंद कुमार- उस समय, यानी 1963 तक ‘सरिता’ तथा ‘कैरेवान’ मेँ फ़िल्म समीक्षाएं
लिखता था, और ‘कैरेवान’ में लगभग सभी कलाओँ
की समीक्षा करता था। मंच प्रस्तुतियां (संगीत, नृत्य, नाटक), चित्र और मूर्तिकला की
मेरी समीक्षाएं चर्चा का विषय बन जाती थीँ। साथ साथ शीला भाटिया के संचालन मेँ चलने
वाले दिल्ली आर्ट थिएटर का सक्रिय सदस्य था (यह इप्टा की दिल्ली शाखा थी)। मैँने सबसे
पहले उनका जो आपेरानुमा राजनीतिक नाटक देखा वह था ‘काल आफ़ द
वैली’– विषय था कश्मीर। मुझे अंगरेजी सरकार के प्रतीक के रूप
मेँ एक पात्र की पंक्ति अभी तक याद है –‘बनजारा मैँ विलैती...’मैँ इतना प्रभावित हुआ कि संस्था का सदस्य बन गया। शीला जी के क्लासिक ‘हीर रांझा’ की प्रस्तुतियों को मैँ लगभग स्टेज मैनेजर
ही बन गया था। दिल्ली आर्ट थियेटर ने मेरे द्वारा सुझाए गए एक हंगेरियन नाटक का भारतीयकरण
भी मंचित किया गया था। उस का नाम शायद दादा दामोदर था – एक पत्रकार की द्विधा की कहानी
थी, जहां तक मुझे अब याद है।
मुझे गर्व है कि तब मैँने दिल्ली में सभी महारथियों
के नाटक देखे, और रामलीला मैदान में इप्टा का वार्षिक मंच मेला देखा – बंगाली नाटक
‘एक पैसार भोंपू’ अभी तक याद है। हज़ारोँ की भीड़ में देर रात तक एक के बाद एक नाटक देखने का
नशा ही कुछ और होता है। और पृथ्वीराज जी ने जब करौल बाग़ के अजमलखां पार्क में अपने
नाटक मंचित किए तो दर्शकों मेँ मैँ भी था। शैक्सपीयराना ने पंचकुईँ रोड पर शैक्सपीयर
के नाटक किए तो शशि कपूर को भी मंच पर देखा था।
इस प्रकार मेरे पास संसार को और फ़िल्मों के समझने
का एक विस्तृत पार्श्व तैयार था। फ़िल्मेँ देखता था। नई भी, और सुबह के शोज़ मेँ पुरानी
भी। प्रसंगवश जब मैँ शाम को आगे की पढ़ाई कर रहा था, तो हमेशा किसी परचे से पहली शाम
भीड़ मेँ घुस कर टिकट ख़रीदना और फ़िल्म देखना मेरा रूटीन था। कई फ़िल्मेँ याद हैँ।
सोहराब मोदी की ‘पृथ्वीवल्लभ’ और ‘सिकंदर’ (1941)। ‘सिकंदर’ मेँ पृथ्वीराज
सिकंदर बने थे। वह अंदाज, वह बांकपन, वह चुस्ती, वह बार-बार अपनी जांघ पर हाथ मारने
की अदा, बाद में किसी और अभिनेता को शायद ही नसीब हुई हो। उस का एक गाना (दो भागों
मेँ) ‘ज़िंदगी है प्यार से प्यार से निभाए जा’– बेहद लोकप्रिय हुआ था। बीसियोँ पैरोडियां बनी थीँ। एक पैरोडी कुछ इस तरह
थी- “जिंदगी जुनून है – फटी हुई पतलून है – जितनी देर चल सके चलाए जा‘
। किसी को फ़िल्म संपादन सीखना हो तो यह गीत देखे, बार बार देखे। आप
यह देख और सुन सकते हैँ इन लिंकोँ पर-
ख़ैर आगे बढ़ता हूं। बहुत कुछ वह न कह कर 1951 तक
आता हूं। राज कपूर की ‘आवारा’ ने मेरी ज़िंदगी ही बदल दी। उन दिनोँ हर लड़का
राज कपूर की तरह पतलून की मोहरी ऊंची कर के चल रहा था। ‘आवारा
हूं’ गीत दुनिया भर में बज रहा था।
मुझे ख़ास पसंद था शैलेंद्र का यह गीत। जज साहब ने
अपनी गर्भवती पत्नी को त्याग दिया है। उस का अपराध मात्र यह है कि जग्गा डाकू ने कभी
पहले उसे अपने पास चार दिन रखा था। वह बारिश मेँ भटक रही है। बाज़ार में किसी दुकान
के थड़े पर कुछ भैया गा रहे हैं
पतिवरता सीता माई को/तू ने दिया बनवास
क्योँ न फटा धरती का कलेजा/क्योँ न फटा आकाश
जुलुम सहे भारी जनक दुलारी/जनक दुलारी राम की प्यारी
फिरे मारी मारी जनक दुलारी/जुलुम सहे भारी जनक दुलारी
दिल को चीर जाने वाले बोल, नारी पर शक़ करने की मर्दों
की हिमाक़त पर चोट करता शंकर जयकिशन का संगीत। मुझे स्त्री-पुरुष संबंधोँ को देखने
का सही नज़रिया मिला। कोई महानायक हो, कोई फ़िल्म सदी की सबसे लोकप्रिय फ़िल्म हो,
मेरे लिए राज कपूर सदी के सब से बड़े फ़िल्मकार हैं, वह और शैलेंद्र मेरे दो नायक हैँ।
हां, एक और फ़िल्म की बात करूंगा – महल। जिसे माहौल
निर्माण कहते हैं, वह महल मेँ दिखता था। उस के आएगा आएगा आने वाला आएगा गीत को लीजिए।
बोल रहस्यमय हैं (दीपक बग़ैर कैसे, परवाने जल रहे हैं/कोई नहीं चलाता,और तीर चल रहे हैं/कोई नहीँ चलाता पर तीर चल रहे हैँ), संगीत कभी इधर से आता है कभी उधर से,कैमरा कभी इधर
डोलता है कभी उधर)। और कहानी का तानाबाना ऐसे उलझाता है कि दर्शक अपने को भूल जाता
है। आज आप को इस का जो प्रिंट देखने को मिलेगा वह हमेशा के लिए सैंसर्ड है क्योँकि
उस के अंत का अंतिम अंश भारत सरकार ने कटवा दिया था। अब कहानी जहां ख़त्म होती है उस
से आगे नायक और नायिका का अगले जन्म मेँ मिलन होता है। तो हुआ यह कि शहर शहर से प्रेमियोँ
के आत्महत्या करने लगे पुनर्जन्म मेँ मिलने के लिए। जनता की आवाज़ पर वे दृश्य कटवा
दिए गए थे।
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(अगली किस्त अगली बार)
(कृपया बिना पूर्वानुमति
इस साक्षात्कार को कहीं भी न प्रकाशित करें)
संपर्क Email : http://arvindlexicon.com /
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