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चर्चित होकर भी कमाई में पीछे रहती है नारी प्रधान फिल्में |
महिला प्रधान फिल्में आखिर पुरुष प्रधान फिल्मों की बराबरी क्यों नहीं
कर पाती? उस लेख की ये अगली कड़ी है। मेरे एक मित्र लकुलीश ने मुझसे सवाल पूछा
कि पिछली कड़ी में तो जो बातें लिखी गई वो तो सार्वभौम है, इस पर मेरे विचार
कहां है? तो इस बार मैं ‘ज़रा’ विस्तार से लिख रहा हूं।
अब हम ‘अर्थ’, ‘फायर’ और ‘वॉटर’ को ही ले लें। इन
फिल्मों में नारी की विभिन्न मानसिकता को दर्शाया गया है। लेकिन इसे सामान्य
नागरिक के बीच स्वीकृति नहीं मिल पाई। एक वजह तो ये है कि कॉरपोरेट नारी प्रधान
फिल्मों को हाथ नहीं लगाता, क्योंकि उसे श्योर शॉट कमाई चाहिये। वो सिर्फ़ बड़े बजट की फिल्में ही
रिलीज़ करता है, वो भी पुरुष प्रधान। और दूसरी बात कि हमारे देश का युवा
वर्ग अभी भी नारी को भोगने वाली वस्तु समझता है। फिल्म देखने वाले पुरुष ये बर्दाश्त
नहीं कर पाते कि एक नारी उनकी बराबरी कैसे कर सकती है? इसका उदाहरण है, ‘No one killed Jassica’ ।
अगर हम ‘चक दे इंडिया’ को ही देखें, तो वो फिल्म शाहरुख
खान की वजह से चली। जबकि ‘मेरी कॉम’ को सफलता ही नहीं मिली। वही हालत ‘निल बटे सन्नाटा’ की भी हुई। जबकि हम
गौर करें तो पायेंगे, ‘हाई-वे’ एक ऐसी कहानी थी जो कुछ अलग बात कहती थी। और उसे इम्तियाज़ अली ने
डायरेक्ट किया था, फिर भी उसे उतनी सफलता नहीं मिली। फिर ‘N H 10’ के बारे में आप
जानते ही है, और ‘फिलहाल’ का नाम तो आपको याद भी नहीं होगा। ‘नीरजा’ को अगर नेशनल अवॉर्ड
ना मिला होता तो वो भी बहुत कम लोगों ने देखी होती।
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एक मशहूर नारी प्रधान फिल्म |
अगर मैं नाम गिनाना शुरू करूं तो आपको पता चलेगा कि नारी प्रधान बहुत
सी ऐसी फिल्में है जो आपके दिमाग पर दस्तक भी नहीं दे पाईं। जैसे ‘मातृ’ जिस पर बाद में ‘मॉम’ बनी। ‘बेगम जान’ ‘नूर’। क्या इनकी कहानी
खराब थी? या इसमें स्टार हिरोइन नहीं थी?
मेरे हिसाब से हमारे देश की जनता, नारी के बढ़ते
अस्तित्व को बर्दास्त नहीं कर पाती है। उसे ‘क्वीन’ और ‘तनु वेड्स मनु’ की वो बिंदास लड़की
पसंद है जो मर्दों जैसे काम कर सके। उन्हें ‘मैं करूंगा गंदी बात’ जैसे गाने पसंद हैं।
नारी को ले कर हमारे देश का माहौल अभी भी वही पुराना है। गर्लफ्रेंड अभी भी लड़के
की मिल्कियत होती है। और बीवियां पैरों की जूती। मैं आम जनता की बात कर रहा हूं, खास की नहीं। अगर
ऐसा ना होता तो क्या, हमारे देश में देहज प्रथा रहती? क्या बिहार में
दहेज के खिलाफ़ मुहीम चलानी पड़ती? और क्या देश के एक खास हिस्से में रोज़ बलात्कार हो रहे होते?
कहने का मतलब सिर्फ़ इतना है कि हमारे फिल्मकार समय समय पर चाहे जो भी
कर लें, लेकिन अभी भी हमारा देश नारी के बारे अपने विचार बदलने के लिये कत्तई
तैयार नहीं है। और यही वजह है कि इस देश में नारी प्रधान फिल्में सफल नहीं हो
पाती।
-गौतम सिद्धार्थ (लेखक फिल्म निर्देशक और स्क्रीन राइटर हैं। मुंबई में
निवास।)
Email:pictureplus2016@gmail.com
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