'माधुरी' के दिन
फिल्म पत्रकारिता का आदर्श मानदंड स्थापित करने वाले
अरविंद
कुमार से जीवनीपरक सिनेवार्ता ; भाग-एक
(फिल्म पत्रकारिता के क्षेत्र में ‘माधुरी’ पत्रिका का प्रकाशन एक
आधारभूत स्तंभ है। इस पत्रिका ने बाद के दौर की पत्रकारिता को कई अहम फिल्म
पत्रकार दिये हैं। पत्रिका ने फिल्म पत्रकारिता के प्रतिमान को अपनी ही शैली में
स्थापित किया है, जहां सिनेमा को समाज के हर व्यक्ति के लिए एक जिम्मेदार माध्यम
समझा गया। इसलिये यहां निर्रथक मनोरंजन या कहें कि फिजूल की गॉसिप से एक निश्चित
दूरी बनाकर रखी गई थी। इसके बदले तात्कालिक सिनेगत प्रवृत्तियां, उनका अनुशीलन,
सिनेमा का राजनीतिक-सामाजिक संदर्श, बेबाक टिप्पणी, नवीन फिल्मों की त्वरित
समीक्षा, साक्षात्कार तथा सिनेमा का साहित्य और साहित्यकारों से संबंध आदि जैसे विषय
प्रमुख होते थे। यही वजह थी कि ‘माधुरी’ सिनेमा की एक वैसी पारिवारिक पत्रिका थी, जिसे गंभीर लेखक भी
पढ़ते थे या कहें कि उनके बीच उसका किसी गंभीर साहित्यिक पत्रिका जैसा ही आदर
प्राप्त था। लेकिन किसी बड़े व्यावसायिक संस्थान से प्रकाशित होने वाली कोई
पत्रिका बाजारवादी दबाव और व्यावसायिक लचीलापन से अछूती
रह सके, इसके लिए संपादक को कितना रचनात्मक और साहसी होना चाहिये, इसका अनुमान लगा
सकते हैं!
मित्रो, ‘पिक्चर प्लस’ में इसीलिए हम एक नया स्तंभ
प्रारंभ कर रहे हैं-‘माधुरी’ के दिन। जैसा कि सभी जानते हैं ‘माधुरी’ के संस्थापक-संपादक श्री
अरविंद कुमार जी रहे हैं। उनके संपादन में निकली ‘माधुरी’ आज की तारीख़ में पुस्तकालय
की धरोहर और सिनेमा के शोधार्थियों के लिए एक अनमोल दस्तावेज की तरह हैं।
‘माधुरी’ के दिन में हमने श्री अरविंद कुमार जी से समय-समय पर संस्मरण लिखने का तो अनुरोध किया ही है साथ ही हम उनके
जीवनीपरक साक्षात्कार भी प्रकाशित कर रहे हैं। आप सबकी प्रतिक्रिया का इंतजार रहेगा। प्रस्तुत है-अरविंद
कुमार से वार्ता का पहला भाग :
-संजीव
श्रीवास्तव)
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'माधुरी' के संस्थापक-संपादक अरविंद कुमार |
संजीव श्रीवास्तव : आज का दौर आपके सामने है। इसी दरम्यान जब आप अपने
पत्रकारीय जीवन की शुरुआत को याद करते हैं तो वो कौन-कौन सी बड़ी बातें हैं जो आप
को रोमांचित और अचंभित करती हैं?
अरविंद कुमार : आज के दौर की बात करें तो बहुत कुछ बदल गया है। 1963-64 में
सूचना प्रौद्योगिकी नहीँ थी. यूनिकोड नहीँ था। लगता है सदियोँ पहले की बात है। आज
की दुनिया की हर चीज़ अचंभित करती है। कई बार सोचता हूं कि अगर मेरे पिताजी मेरी
आज की मेज़ देख लें तो शायद फ़्यूचर शौक के सदमे से फिर मर जाएं। मेरा कम्प्यूर पर
टाइपसैटिंग करना। ज़रूरत पड़ने पर अपने लिखे में काली और रंगीन तस्वीरें शामिल
करना, और फिर पास ही रखे प्रिंटर पर सतरंगी प्रिंटिंग करना...उनके ज़माने मेँ तो
पहले कंपोज़िंग करनी होती थी, गेलियोँ मेँ रखे मैटर को जोड़ कर पेज बनाने होते थे।
छपाई की मशीन पर जाने से पहले चेसिस मेँ कसना होता था। फिर चार रंग के ब्लाक बनवा
कर उसी पेज को चार बार छापना होता था।
संजीव श्रीवास्तव : क्या आपने आरंभ से ही पत्रकार बनना तय किया था? मुख्यधारा की पत्रकारिता में आने से पहले छात्र जीवन के समय की राजनीतिक पत्रकारिता, फिल्म पत्रकारिता और उन पत्रकारों के बारे में बतायें जो आपको प्रभावित करते थे।
अरविंद कुमार : पत्रकार बनूंगा – यह सपने मेँ भी नहीँ था। दसवीं का इम्तहान
दे कर, रिज़ल्ट का इंतज़ार किए, पंद्रह साल की उमर मेँ इंग्लिश की कैरेवान पत्रिका
छापने और प्रकाशित करने वाले नई दिल्ली के कनाट सरकस मेँ कंपोज़िग सीखने दाख़िल
हुआ था। तनख़्वाह थी पच्चीस रुपए महीना। ये छोटे भाई बहनों की पढ़ाई लिखाई और पूरे
परिवार के मासिक ख़र्च मेँ मदद करने के लिए थे। मुझे तो महीने में (पुराने चौंसठ
पैसे वाले) दो रुपए जेब ख़र्च के लिए मिलते थे – यानी दो पैसे रोज़. अम्मां की
सिली निकर कमीज़ पहनता था। सर्दी में करंडी की लोई। जब तक साइकिल नहीँ ख़रीदी करोलबाग़
के देवनगर से तीन-साढ़े तीन मील पैदल जाता था। लंच के लिए निकर की छोटी सी जेब मेँ
छोटे से कटोरदान मेँ एक परांठा और सूखी सब्ज़ी। वहां से प्रेस के सभी विभागोँ में
(जिल्दसाज़ी तक) बहुत कुछ सीखा और समझा, जो अब तक काम आता है। कुछ साल बाद (इस बीच
मैट्रिक में सर्वोच्च नंबर पाने के आधार पर कैशियर बन चुका था, असफल कैशियर) शाम
के समय पढ़ाई शुरू की। इंग्लिश-हिंदी टाइपिस्ट बना, फिर प्रूफ़रीडर, कुछ कुछ लिखने
लगा था, तो उपसंपादक, और 1957 से 1963 तक वहां से प्रकाशित होने वाली सभी
पत्रिकाओं (इंग्लिश कैरेवान, सरिता, उर्दू सरिता, हिंदी मुक्ता) का कार्यकारी
(वास्तव मेँ पूरा स्वतंत्र) संपादक बन चुका था। समीक्षाएं भी करता था, किताबोँ की,
मंच प्रस्तुतियों की (संगीत, नाटक, फ़िल्म, सभी ललित कलाओँ की)। नाटकोँ में स्टेज
के पीछे सक्रिय भी था।
संजीव श्रीवास्तव : फिल्म पत्रकारिता ने कैसे आपको साध लिया? क्या सिनेमा और सिने पत्रकारिता का आकर्षण पहले से मन पर
अंकित था?
अरविंद कुमार
: अब हुआ यह कि प्रकाशक-संपादक श्री विश्वनाथ से अनबन हो गई। तब के संघर्ष
की दास्तान लंबी है और यहां उसकी जगह भी नहीँ है। 1963 के शायद अगस्त में मैंने
त्यागपत्र दे दिया। तभी टाइम्स आफ़ इंडिया समूह के लिए फ़िल्म पत्रिका शुरू करने
का प्रस्ताव पक्का हो गया। वे लोग कई दिन से मुझसे संपर्क करते रहते थे। संक्षेप
में कहूं तो वहां के ऊपर से लेकर मध्य स्तर के (मालिकों, मैनेजरोँ) लगभग ग्यारह
मुलाक़ातेँ हो चुकी थीं। अक्तूबर 1963 के मध्य में श्रीमती रमा जैन ने कहा कि मुझे
जनवरी 1964 के गणतंत्र दिवस कर पत्रिका छाप देनी है। समय नहीँ था। हम लोगोँ ने
वेतन के बारे में कोई बात नहीँ की। उस पर गंवाने के लिए समय नहीं था. इतना याद है
कि यह ख़बर दिल्ली के पत्रकार जगत में आश्चर्य और प्रसन्नता से स्वीकार की गई। तब
नई दिल्ली से बंबई तक डीलक्स ट्रेन नई नई चली थी। जिस तारीख़ की जो सीट मिली, बुक
करा ली। तीस चालीस परिवार जन और दोस्त अहबाब विदा करने आए। वह दिन छोटी दीवाली का
था।
(अगली
किस्त अगले सप्ताह)
(नोट - कृपया बिना पूर्वानुमति इस साक्षात्कार को कहीं भी न प्रकाशित करें)
संपर्क Email
: arvindlexicon.com / pictureplus2016@gmail.com
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बहुत अच्छी शुरुआत 👌
जवाब देंहटाएंअच्छा लगा
जवाब देंहटाएंरोचक।
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