‘हंटरवाली’ से ‘सिमरन’ तक नारीप्रधान
हिन्दी फिल्में
भारत
में हमेशा से महिलाओं की सामाजिक स्थिति को लेकर कई फिल्में बनती रहीं हैं। उनमें
से कुछ यादगार फिल्में हैं, जैसे
‘मदर इंडिया’ और ‘पाक़ीज़ा’। सन 1935 से आज तक हमने भारतीय महिलाओं के विभिन्न रूप और
रंग को फिल्मों में देखा है। वो चाहे ‘हंटर वाली’ हो या ‘सात खून माफ़’।
आज़ादी
से पहले नारी प्रधान फिल्मों का विषय ज्यादातर ‘मर्दानगी’ पर होता था, जैसे ‘डायमंड क्वीन‘, ‘मिस फ्रंटियर मेल’, ‘लुटारू
ललना’ इत्यादि। लेकिन ‘हंटर वाली’ का जलवा ऐसा था कि इसी नाम से 1972 और 1977 में फिर फिल्में बनीं, और ये सिलसिला अभी हाल ही में रिलीज़ फिल्म ‘रंगून’ तक चला आया है। आज़ादी मिलने से पहले महबूब खान ने गांव की विधवा पर ‘औरत’
फिल्म बनाई, लेकिन उसे उस समय सिनेमा घरों में सफलता
नहीं मिली।
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'पाकीजा' में मीना कुमारी |
1947
में बंटवारा हो गया और कई आज़ाद ख्याल फिल्मकार पाकिस्तान छोड़ कर हिंदुस्तान आ गये।
क्योंकि उनको लग गया कि धर्म के नाम पर बने देश में वो अपनी भावना को ठीक से
व्यक्त नहीं कर पायेंगे। और इसी दौर में एक फिल्म आई दिलीप कुमार और नरगिस की ‘मेला’। जिसमें नरगिस ने अपने अभिनय का लोहा लोगों से मनवाया। अब निर्देशकों ने अपनी
फिल्मों में महिलाओं को प्रमुखता देनी शुरू कर दी, क्योंकि उन्हें नरगिस जैसी एक कलाकार मिल गई थी। दिलीप कुमार और नरगिस की
जोड़ी चल निकली। जहां एक तरफ़ वो गांव की लजीली लड़की का अभिनय
कर सकती थी, वहीं ‘अंदाज़’ में
उन्होंने एक मॉडर्न ख्यालात वाली लड़की का किरदार निभाया। और बस, महबूब खान ने एक बार फिर, अपनी पुरानी फिल्म ‘औरत’ बनाई,
जिसमें उन्होंने नरगिस को लिया, और
इस बार उस फिल्म का नाम था ‘मदर
इंडिया’।
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रजिया सुल्तान में हेमा मालिनी |
देखा
जाये तो ‘मदर इंडिया’ महिला प्रधान फिल्मों के लिये एक मील का पत्थर साबित हुई है। और फिर आई ‘बंदिनी’। इस
फिल्म की अभिनेत्री एक समय की मिस इंडिया रहीं नूतन थीं। अब तक हीरोइनों ने अपने
बल पर फिल्मों को बॉक्स ऑफिस पर सफलता दिलानी शुरू कर दी थी, जिसमें वहीदा रहमान, मीना कुमारी और वैजयंती माला जैसी कई हीरोइनें शामिल थीं।
मैं
इसमें उन फिल्मों का ज़िक्र नहीं कर रहा हूं जिसका मुख्य विषय महिलाप्रधान था पर हीरो
ने उसे अपनी भूमिका से नगण्य कर दिया था। जैसे ‘फूल और पत्थर’ और ‘आराधना’। इसके पश्चात ‘रजिया
सुल्तान’ में हेमा मालिनी और ‘तवायफ’ में रति
अग्निहोत्री ने महिलाप्रधान फिल्म को अलग दर्जा प्रदान किया।
फिर
महिला प्रधान फिल्मों का ऐसा दौर आया जो सामांतर सिनेमा का था। जिसमें ‘मिर्च मसाला’, ‘बेंडेट क्वीन’ और ‘भूमिका’ जैसी
फिल्में आई। लेकिन कॉमर्शियल फिल्मों में ‘अर्थ’ ने शबाना और स्मिता को ऐसी हीरोईन बनाया
जो, महिला प्रधान फिल्मों की मुख्य पात्र
बनी।
इसी
दरम्यान एक फिल्म आई जिसका नाम था ‘क्या कहना’। इस फिल्म ने महिलाओं के विषय में एक नया
अध्याय जोड़ा। और उस फिल्म की हीरोईन थी प्रीति ज़िंटा।
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'हंटर वाली' पर आधारित थी 'रंगून'? |
‘लज्जा’ और ‘डोर’ जैसी फिल्में आज के समय में नारी शक्ति
की विचारधारा पर बन कर उभरीं, जिसकी अगली कड़ी थी-‘गुलाबी
गैंग’। अब तक माधुरी दिक्षित ने अपना ऐसा स्थान
बना लिया था। जिन्होंने महिलाओं के परिपेक्ष्य में बनाई जाने वाली फिल्मों को
सार्थकता देनी शुरू कर दी थी।
लेकिन
आजकल महिलाप्रधान फिल्मों के लिए सबसे पहले जिस हीरोइन का नाम
आता है, वो है, विद्या बालन। इन्होंने ‘डर्टी पिक्चर’ और ‘कहानी’ जैसी फिल्मों को सफलता दिलवाई। फिर आता है नाम कंगना रैनॉट का, जिन्होंने ‘तनु
वेड्स मनु’ और ‘क्वीन’ से अलग पहचान बनाई। हाल ही में उसकी एक और
फिल्म ‘सिमरन’ ने उसकी प्रतिभा को
निखारा। इसी कड़ी में झांसी की रानी पर उसकी आने वाली एक महिला प्रधान फिल्म है। ऐसा ही श्रीदेवी का भी प्रभाव देखने को मिला है। ‘ईंगलिश विंगलिश’ और ‘मॉम’ उनकी नई पहचान हैं। इसी तरह कई हीरोइनों में मसलन तब्बू, ऐश्वर्या
राय, दीपिका पादुकोण या रानी मुखर्जी या फिर तापसी पन्नू ने भी इस तरफ़ अपने कदम
बढ़ाये हैं। लेकिन यह एक कड़वा सच है कि पुरुषप्रधान देश में
नारीप्रधान फिल्मों को अब भी वैसा स्पेस नहीं मिलता जैसा कि स्टार अभिनेताओं को मिलता
है।
-गौतम सिद्धार्थ (लेखक
‘पिक्चर प्लस’ के सलाहकार संपादक हैं; स्क्रीन तथा डायलॉग राइटर हैं। मुंबई में निवास। संपर्क–Email:pictureplus2016@gmail.com)
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