झारखंड के
सिमडेगा में 11 वर्षीया संतोषी कुमारी भात भात कहते हुए दम तोड़ देती है।
राशन नहीं मिलने से घर में आठ दिनों तक चूल्हा नहीं जल पाया था। संतोषी मलेरिया
पीड़ित भी थी और उसकी मृत्यु के बाद उसकी मां को गांववालों ने गांव की बदनामी करा
देने के एवज में गांव से भी निकाल दिया। इस घटना के दो दिन बाद फिर झारखंड में ही
झरिया के चालीस वर्षीय एक रिक्शाचालक बैजनाथ दास की भूख से मौत हो गई, वह राशन
कार्ड के लिए चक्कर लगा रहा था।
*मनीष जैसल
ये दोनों ही तस्वीरें उस समाज के
बदरंग कैनवस की हैं जहां सेल्युलॉयड की रंगीन तस्वीरों को सामान्यतया गंभीरता से
नहीं लिया जाता बल्कि उसे समाज से परे समझा जाता है। लेकिन यह बात फिर से कहने की
घड़ी आ गई है कि ऐसी ही कई कहानियां हिन्दी सिनेमा के पर्दे पर भी हमने कई-कई बार
देखी है। उन फिल्मों में दिखाये दारुण प्रसंग सत्ता, सियासत, प्रशासन और जागरुक
नागरिकों को आईना दिखा चुके हैं। इसके बावजूद सामाजिक/यथार्थवादी सिनेमा मनोरंजनवाद के आक्रांत अनुभव के आगे हमारी
नजरों से ओझल है।
देश में पब्लिक डिस्ट्रीब्यूशन स्कीम
यानी सार्वजनिक वितरण प्रणाली होने के बावजूद संतोषी की मौत को क्या सामाजिक
गैर-जिम्मेदारी से हत्या की श्रेणी में नहीं गिना जाना चाहिए? दोषी अधिकारियों को सजा क्या मिल पाएगी? आधार जैसी व्यवस्था क्या किसी की ज़िंदगी से बढ़कर है?
सिनेमा अभिव्यक्ति का सबसे लोकप्रिय
और सशक्त माध्यम में गिना जाता है। जब प्रेमचंद के साहित्य में भूख और गरीबी का
चित्रण हो रहा था, उसी के बरक्स सिनेकारों ने भी उससे पीछे नहीं रहना चाहा। यहां
राजनेता के एम मुंशी की पत्नी श्रीमती मुंशी के नवंबर 1954 में दिये राज्यसभा में
सिनेमा के बढ़ते नकारात्मक प्रभाव संबंधी बयान और कथन को जानना जरूरी है, जिसमें वो
कहती हैं कि ‘सिनेमा में वह ताकत है कि वो या तो
किसी पीढ़ी और देश को सही दिशा दे सकता है या उसे बर्बाद कर सकता है’। मामला 1952 में कलकत्ता विश्वविद्यालय के सिंडीकेट द्वारा
गठित समिति की रिपोर्ट से उठा जिसमें बताया गया कि परीक्षाओं में अनुत्तीर्ण होने
वाले छात्रों की संख्या में बढ़ोत्तरी की मुख्य वजह सिनेमा देखने में वक्त ज्यादा
बिताना था। 1954 में प्रधानमंत्री को भेजे गए 13000 महिलाओं के हस्ताक्षर वाले
ज्ञापन, जिसमें फिल्मों की वजह से देश का नैतिक स्वास्थ्य खतरे में पड़ जाने का भी
जिक्र था। ऐसे में मौजूदा सिने स्थिति को देखकर एक दूसरी ही कहानी सामने आती है।
हमारे सिनेकारों ने ऐसे ज्वलंत
सामाजिक विषयों पर कई फिल्में समाज के समक्ष रखी है। लेकिन हैरत यह कि इस बार
सिनेमा अधिक बोलता रहा और दर्शक मूक रह गये। सन् 1974 में मनमोहन देसाई की फिल्म ‘रोटी’ भूख और रोटी की महत्ता को स्पष्ट
करती हुई पर्दे पर चलती है। उससे काफी पहले विमल रॉय की ‘दो बीघा जमीन’ गरीबी और उसके परिणामों, जमींदारों, सरकारी तंत्र आदि की पोल
खोलती है। और उससे भी पहले महबूब खान की ‘रोटी’ 1942 का अगर मैं सिर्फ एक गीत ‘गरीबों पर दया करके…’ को यहां उदाहरण स्वरूप रख
दूं तो भी काफी है। तेलगु फिल्म ‘मनुशुलु मरली’ को जब हिन्दी में वी नाधुसूदन राव ने बनाया तो वह भी भूख और
गरीबी को सशक्त रूप में व्यक्त कर पाने में सफल रहे। सत्ता पक्ष पर कई सवाल भी खड़े
करने में वो सफल रहे लेकिन अफसोस दर्शक वर्ग
तब भी मूक बना रहा। फिल्म का नाम ‘समाज को बदल डालो था’ और उसका रफी साहब का गाया गीत ‘समाज को बदल डालो, लूट और जुल्म के रिवाजो को
बदल डालो’ पूरी स्थिति को स्पष्ट करते हुए कर्णप्रिय
भी लगता है, लेकिन फिर भी की नहीं बदला। रमेश पूरी निर्देशित ‘भूख’ 1978 को इस श्रेणी में रखा
जा सकता है। मनोज कुमार की ‘रोटी कपड़ा और मकान’ गरीबी, भुखमरी, सरकारों की अनदेखी के
साथ अन्य सामाजिक कुरीतियों को दिखाती और चोट करती है। फिल्म कमाई में उन दिनों भले
ही अव्वल रही हो लेकिन दर्शकों और सरकारी तंत्रों तक इसका संदेश नहीं पहुंच सका।
आज भी देश में भूख से मौतें आम हैं। एक और फिल्म का जिक्र यहां जरूरी है ‘मिस्टर एंड मिसेस 55’, जिसकी कहानी एक दरिद्र
कार्टूनिस्ट प्रीतम (गुरुदत्त )की है और वह अपने फोटोग्राफर मित्र जॉनी पर निर्भर
रहता है। जॉनी प्रीतम को भुखमरी से बचाता है। फिल्म एक अच्छे प्लॉट में चलते हुए
दर्शकों को संदेश देते हुए चलती है।
इसके अलावा ऐसी कई और फिल्में इसी
विषय को दर्शाते हुए बनी है जिनमे निर्देशकों ने अपने संदेश को दिखाने का भरसक
प्रयास किया है। 1954 में लिखे गए 13,000 महिलाओं के ज्ञापन को अगर
जोड़ते हुए देखा जाए तो उन दिनों जो महिलाएं अपने बच्चों के अनुत्तीर्ण होने की
मुख्य वजहें फिल्मों को मान रही थीं, उसी तरह आज की महिलाएं क्या आज के संदर्भ में
गरीबी, भुखमरी और सरकारी तंत्रों की लापरवाही को चित्रित करने वाली उन फिल्मों से
सीख लेती दिखती हैं? हमने इन फिल्मों से क्या सीखा? क्या कोई दर्शक समूह बता पाएगा?
![]() |
'रोटी' (1940) का चर्चित पोस्टर |
दर्शकों में सरकारी तंत्र भी शामिल
है। जिसकी गैर-जवाबदारी के चलते ऐसे कृत्य खूब होते हैं। सरकारी आधार से ज्यादा
जरूरी यहां मानवता का आधार था। क्या उस अधिकारी ने इनमें से कोई भी एक फिल्म नहीं
देखी होगी?
अगर नहीं भी देखी होगी तो दुनिया में सबसे बड़ी फिल्म इंडस्ट्री होने का दंभ
भी हमारे निर्देशकों को अब नहीं भरना चाहिए। करोड़ों टन अनाज आवागमन की सुविधा और
खाद्यान रखने की जगह न होने के चलते बर्बाद चला जाता है वहां एक इंसान की भूख से
मौत लचर व्यवस्था पर सवाल उठाती है।
वॉशिंगटन की इंटरनेशनल फूड पॉलिसी
रिसर्च इंस्टीट्यूट (आईएफपीआरआई) की ओर से वैश्विक भूख सूचकांक पर जारी एक रिपोर्ट कहती है कि दुनिया के 119 विकासशील देशों में
भूख के मामले में भारत 100वें स्थान पर है। पहले यह संख्या 97 थी। यही नहीं, यह
संख्या भारत को उत्तर कोरिया, इराक और बांग्लादेश से भी
बदतर बनाती है। एक अन्य रिपोर्ट "स्टेट ऑफ फूड सिक्योरिटी एंड न्यूट्रीशन इन
द वर्ल्ड, 2017" में इस बात की पुष्टि है
कि पूरी दुनिया में कुपोषित लोगों की संख्या 2015 में करीब 78 करोड़ थी तो 2016
में यह बढ़कर साढ़े 81 करोड़ हो गयी है। और भूखे लोगों की करीब 23 फीसदी आबादी भारत में निवास करती है।
इतिहासकार रामचन्द्र गुहा अपनी किताब
भारत नेहरू के बाद में बताते हैं कि उन दिनों ज़्यादातर लोग सिनेमा देखकर अपना समय
बिताते थे। भारतीयों के लिए फीचर फिल्में समय बिताने का लोकप्रिय साधन थीं। अब भी
है। वहीं एरिक होब्सबोम बताते हैं कि
उन्नीसवीं शताब्दी में कला के नए आयामों में सिनेमा के होने की मुख्य वजह “इस असाधारण उपलब्धि का मुख्य कारण फिल्मों के निर्माताओं की रुचि
जनसाधारण के लिए लाभदायक मनोरंजन प्रस्तुत करने के अतिरिक्त किसी बात में बात में
न होना थी। ऐसे में क्या सिनेमा सिर्फ मनोरंजन का ही एक साधन अब तक बना हुआ है? अगर हां, तो ऐसा
क्यों? तो फिर देश में इसके पठन पाठन पर
करोड़ों रुपये क्यों बर्बाद किए जा रहे हैं, जब हम सजग दर्शक वर्ग ही नहीं बना पा
रहे हैं। यहां निर्देशकों पर सिर्फ इल्जाम लगाकर बाकियों को नजरंदाज नहीं किया जा
सकता है। सन् 1976 में ही 507 फिल्में बनाने वाला भारत
अग्रणी फिल्म निर्माता देश बन चुका था। भारत दुनिया में सबसे ज्यादा फिल्में बनाता
है। एक मिलियन से अधिक लोग इस उद्योग में उन दिनों नौकरी कर रहे थे। इन वर्षों में
बॉक्स ऑफिस में औसत तीस सौ करोड़ की कमाई भी होने लगी। 8 मिलियन दर्शक रोजाना 9000
से अधिक थियेटर में फिल्में देखते थे। फिल्मों
के बढ़ते प्रभावों और प्रसार पर कई शोध पत्र तथा लेखन कार्य हिन्दी तथा अंग्रेजी के
अलावा अन्य भाषाओं में होने लगा था। लेकिन
फिर भी दर्शकों ने, सरकारी तंत्रों ने अधिकारियों ने, हमने, आपने, सबने क्यों नहीं
गरीबी, भुखमरी और इससे होने वाली मौतों से कोई सबक नहीं लिया? तथ्यों पर गौर करेंगे तो पाएंगे कि ऐसी फिल्मों को दर्शक तो
देखने भी नहीं जाते। जो जाते हैं नज़रअंदाज़ करते हुए देखे गये। फ़िल्मकारों ने अपनी
सामाजिक चेतना से फिल्मों का निर्माण तो किया लेकिन उन्होंने सिनेमा माध्यम से जिस
अरस्तू के संचार मॉडल के प्रापक को संदेश देना चाहा, वो निष्क्रिय निकला। संदेश
मिलने के बावजूद वो शांत चित है। अनदेखा, अनसुना होने का ढोंग रचता है।
खैर छोड़िए, आने वाले दिनों में वोट
बैंक की राजनीति में शामिल होगा तभी कुछ बदलाव आने की उम्मीद है। क्योकि अभी सिनेमा
से कोई वोट बैंक प्रभावित नहीं होता। गरीबी भुखमरी और भूख से मरने वाले लोगों, उन पर हुए अत्याचारों और उनकी सहनशीलता को चित्रित करने वाली
फिल्मों, जैसे अमीरी गरीबी 1990 का वो गीत ‘तवायफ कहां किसी के साथ मुहब्बत करती है मगर जब करती है तो हाय
कयामत करती है’ गरीबी से तवायफ बनने की कहानी वयान
करती है। निर्देशक मृणाल सेन की कई फिल्में-अंतरीन, एक
दिन प्रतिदिन, अकलर संधाने में माध्यम वर्ग की
समस्याएं निहित हैं। खुद मृणाल सेन ने प्रेमचन्द्र की कहानी कफ़न पर ओका ओरी कथा
बनाई। और कहीं पर उनसे जब किसी ने जाड़े
के समय के सीन को दर्शाने से संबन्धित सवाल किए गए तो उन्होंने साफतौर पर कहां
गर्मी हो या सर्दी गरीबों की दशा एक सी होती है। उनके साथ हुए शोषण भी हर मौसम
में एक से होते हैं। हालांकि मौजूदा समय में गरीबों को चुनावी वादे दे देकर थोड़ा
फुसलाया जाना शुरू हुआ है। श्याम बेनेगल की मंथन 1976 फिल्म की कहानी एक डॉक्टर पर केंद्रित है, जो दूध के उत्पादन के लिए एक सहकारी समिति के गठन की उम्मीद
लिए एक गांव में पहुंचते हैं। एक रईस व्यवसाई और सरपंच के अलावा इस डॉक्टर को धर्मगत
और जातिगत विसंगतियों का भी सामना भी फिल्म में करते हुए दिखाया गया है । फिल्म
प्रसिद्ध सामाजिक उद्यमी और 'फादर ऑफ़ द वाइट रेवोलुशन' डॉ. वर्गीज कुरियन के जीवन पर आधारित है। फिल्म में व्यवसाय
के नियमों को तोड़ते हुए कुरियन साहब एक ऐसे उद्यम का सफलतापूर्वक गठन करते हैं
जिससे किसी एक अमीर को नहीं, बल्कि हर गरीब किसान को
फायदा पहुंचता है। राजकपूर की फिल्म ‘संगम’ में भी अमीरी गरीबी के फ़ासलों पर स्वस्थ चर्चा है। गरीब
मजदूर हरी की कहानी को जब राजकपूर ने कि अपनी फिल्म अब दिल्ली दूर नहीं में दिखाया
कि कैसे एक मजदूर शोषण के कारण एक हत्यारा बनता है सरकारी तंत्र इसमें किस तरह
तल्लीन है आसानी से देखा जा सकता है । हालांकि यह फिल्म आज के समय में बनाना
मुश्किल है । फिल्म ‘अंकुर’ की
लक्ष्मी और जमींदारों के शोषण को उकेरती हुई चलती है। अमिताभ के जमाने में यह
फिल्म नहीं चल पायी। दर्शक एंग्री एंग मैं देख रहा था उन दिनों।
हमारा
दर्शक तो कुक्कू माथुर की झंड हो गयी, गोलमाल सीरीज, हाउसफुल, क्या कूल हैं हम सीरीज में
ही इतना व्यस्त हो चुका है कि अब उन फिल्मों की सुध लेगा भी कैसे? और निर्देशकों को जब इन्हीं से इतनी कमाई हो रही है तो क्यों
बनाएगा वो गरीबी और भुखमरी से शोषित परिवार क संवेदनशील सिनेमा। चूंकि सिनेमा में
व्यवसाय अंतर्निहित है। निर्देशक और निर्माता दोनों के अपने अपने व्यक्तिगत स्वार्थ
हैं।
![]() |
फिल्म : 'दो बीघा ज़मीन' (1953) |
![]() |
फिल्म : 'रोटी कपड़ा और मकान' (1974) |
000
(*ये लेखक के अपने विचार हैं। लेखक महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय
हिन्दी विश्वविद्यालय, वर्धा (महाराष्ट्र) में सिनेमा के शोधार्थी हैं।)
(नोट-इस लेख को बिना अनुमति प्रकाशित
न करें। लिंक समेत पिक्चर प्लस से साभार लिखना अनिवार्य है।)
कोई टिप्पणी नहीं:
टिप्पणी पोस्ट करें