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अलाउद्दीन खिलजी के किरदार में रणवीर सिंह |
कल्पना कीजिये ‘शोले’ में गब्बर सिंह का नाम अगर गब्बर खान या गब्बर आलम होता या ‘पद्मावती’ में अल्लाउद्दीन
खिलजी के बदले ठाकुर जगत सिंह होता तो...?
*संजीव श्रीवास्तव
‘पद्मावती’ फिल्म पर हंगामे का लब्बोलुआब समझ आ गया। विवाद के संग्राम में
पद्मावती महज एक वाटरमार्क है, असली निशाना तो अलाउद्दीन खिलजी है। खिलजी की
भूमिका निभाई है रणवीर सिंह ने, जिसका गेटअप इन दिनों चर्चा का विषय बना हुआ है।
फिल्म के प्रोमो में फड़कती भुजाओं वाला, लंबे बालों को लहराता हुआ, निंतात बदसूरत
और खूनी खंजर सी आंखों से घूरने वाला, दैत्य की भांति मांसाहार करने वाला और
मल्लयुद्ध में जीत के पश्चात् सिंह हुंकार भरता हुआ एक क्रूर शासक जब बहती नदी को
रोकने जैसा दंभ भरता हुआ दिखता है तो हमारे भीतर एक हीन भावना भर जाती है। खिलजी
की क्रूरता भरी वीरता या कहें कि विजयता की आक्रामता वाले किरदार को जिस तरीके से
रणवीर सिंह ने निभाया है, उसमें खिलजी की ऐतिहासिकता की एक झलक जरूर मिलती है
लेकिन अफ़सोस कि हम उस झलक की प्रतीति कराने वाले कलाकार की उत्कट कला न स्वीकार
कर खिलजी की खतरनाक खलनायक वाली प्रतिच्छवि के छलावे के ईर्द-गिर्द ही खुद को
सीमित कर लेते हैं।
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क्रूरता का चेहरा |
4जी के ज़माने में सिनेमा के मूल्यांकन का यह नया दौर है, जहां 3डी
चश्मे से भी काम नहीं चलता; क्योंकि सिनेमा का अब एक चौथा आयाम भी विकसित हो चुका है। पद्मावती
फिल्म के विरोध के अब तक जितने भी स्वर सुनाई दिये हैं, उनमें पद्मावती की
ऐतिहासिकता को लेकर सवाल तो उठाये ही गये हैं साथ ही पद्मावती की शुचिता को लेकर
भारी आशंका व्यक्त की गई है। मसलन पद्मावती और खिलजी का सपने में भी आमना-सामना
हुआ या नहीं! पद्मावती वीरांगना थी, रूपवती थी, कलावंती थी लिहाजा उसने प्रसन्नता
के क्षण में राजभवन में अपने योद्धा पति राजा रतन सिंह के समक्ष भी गायन-नर्तन
किया या नहीं, इसका भले ही कोई साक्ष्य न हो लेकिन विरोधियों में इस बात का भी
मलाल है कि फिल्म में पद्मावती नाचती हुई क्यों दिखाई देती है! जैसे कि बाजीराव
मस्तानी में नायिका राजमहल में नृत्य प्रस्तुत करती है। और जैसे कि देवदास में
पारो और चंद्रमुखी एक साथ नृत्य करती हुई दिखाई देती है। यह भंसाली की अपनी शैली
है जहां मिलन विंदु की अपनी एक फिलॉस्फी है। लेकिन यह मिलन विन्दु सबको गंवारा
नहीं।
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फिल्म में रानी पद्मावती बनी हैं दीपिका पादुकोण |
वास्तव में यह विरोध
कल्पनाशक्ति का भावातिरेक है।
लेकिन बात इतनी तलक नहीं है। सारे विवाद का फसाना उस तरफ इशारा करता
है कि एक खलनायक चरित्र को फिल्म में इतनी विकरालता के साथ क्यों प्रस्तुत किया
गया है? उसमें भी तब जबकि वह आक्रांता खलनायक एक मुस्लिम शासक अलाउद्दीन खिलजी
है। यानी एक क्रूर मुसलमान शासक को इतना वीर और योद्धा की तरह क्यों दिखाया गया है
कि उसके आगे राजा रतन सिंह की वीरता और पद्मावती के जौहर की धधकती आभा भी फीकी
पड़ती सी दिखाई देती है। गोकि हम ऐतिहासिक तौर पर इस तथ्य से अवगत हैं कि खिलजी ने
चित्तौड़ को लूटा था और वह विजयी भी हुआ था। तो जाहिर है खिलजी चित्तौड़ के
तत्कालीन शासक से ज्यादा ताकतवर था, वरना वह तो वहीं मारा जाता। इसके बावजूद रणवीर
सिंह द्वारा निभाई गई खिलजी की खतरनाक खलनायकी से हमें बर्दाश्त नहीं। भले कि
रणवीर सिंह ने अपने एटिट्यूट के स्पार्क से खिलजी के किरदार में करंट पैदा कर दिया
है। यह एक अभिनेता की बड़ी उपलब्धि है। अगर यह फिल्म चल गई तो खिलजी की भूमिका के
लिए रणवीर सिंह उसी तरह से याद किये जायेंगे जैसेकि इतिहास की कई अमर फिल्में नायक
नहीं बल्कि खलनायक की अदाकारी के नाम दर्ज हैं।
ना हिन्दू ना मुसलमान, कई फिल्में हैं खलनायक
के नाम
इस क्रम में मुझे याद आता है फिल्म ‘मेरा गांव मेरा देश’ (1971) का किरदार डाकू जब्बर सिंह। लुटेरा है, शैतान है,
खूनी है लेकिन रंगीन मिजाज भी क्योंकि उसका कुर्ता है नीला और रंग पगड़ी का है
पीला। जब्बर सिंह के किरदार को निभाया था विनोद खन्ना ने। एक दृश्य में वह
धर्मेंद्र को पेड़ से बांध देता है और उसके बगल में गोली आर-पार करते हुये कहता
है- “घबराओ नहीं, तेरे को अगर मारना होता तो जब्बर सिंह का निशाना कभी नहीं
चूकता।“ फिल्म का जब्बर सिंह किरदार कई सालों तक लोगों के जेहन में खौफ का
पर्याय बना रहा जब तक कि फिजां में ‘शोले’ (1975) का गब्बर सिंह नहीं आ गया। दुनिया जानती है ‘शोले’ को ऐतिहासिक फिल्म
बनाने में गब्बर सिंह के किरदार में अमजद खान की अदाकारी का कितना बड़ा योगदान है।
इसी क्रम में याद कीजिये ‘शान’ (1980) के शाकाल को, ‘हीरो’ (1983) के पाशा को, ‘कर्मा’ (1986) के डॉ. डैंग को, मि.इंडिया (1987) के मोगेम्बो को;
हिन्दी सिनेमा में ऐसे कई खल किरदारों ने फिल्म
में बाकी किरदारों के आगे अपनी ऐसी अदाकारी की मिसाल पेश की है जिसकी बदौलत फिल्म
को अभूतपूर्व शोहरत मिली। आगे आलम तो यह हुआ कि एक पूरी फिल्म ही बन गई जिसका नाम
रखा गया ‘खलनायक’ (1993)। लेकिन तब क्या किसी ने उन खलनायकों की जाति और धर्म का मसला
उठाया? सबने यही माना कि खलनायक चाहे रावण की शक्ल में हो अथवा कंस या दुर्योधन की शक्ल में या
फिर गब्बर सिंह के तौर पर या फिर मोगेम्बो की शक्ल में वह इतिहास में हमेशा नफरत
का चेहरा था और रहेगा भी।
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गब्बर सिंह : लोकप्रियता में हीरो से ऊपर (फिल्म-शोले) |
तो फिर आज यह सवाल क्यों है कि एक मुस्लिम आक्रांता को हीरो की तरह
दिखाया जा रहा है? क्या यह खलनायक हमारे आदर्श और वीर नायकों की चमक को धूमिल क्यों
करता है? अगर नहीं, तो आज खिलजी की जीवंत और उत्कट अदाकारी को देखकर यह सवाल
क्यों उठाया जा रहा है कि फिल्म में नायक पर प्रतिनायक हावी है? क्या यह इसलिये कि हिन्दी सिनेमा के इतिहास में ऐसे कम मौके आये जब
खलनायक का किरदार मुस्लिम वर्ग से ताल्लुक रखता हो? कल्पना कीजिये ‘शोले’ में अमजद खान द्वारा निभाये गये किरदार का नाम गब्बर सिंह न होकर
गब्बर खान या गब्बर आलम होता तो? क्या तब भी आज की तरह सवालों भरे आंदोलन होते? इसी तरह अल्लाउद्दीन
खिलजी का नाम अगर ठाकुर जगत सिंह होता तो? क्या तब भी विवाद का मौजूदा रूप देखने को मिलता? इसका जवाब मैं तो नहीं हां
हमारे आदरणीय समाज विज्ञानी अच्छी तरह जरूर दे सकते हैं।
वैसे इसमें कोई दो राय नहीं कि रणवीर सिंह ने खिलजी के किरदार को अमर
कर दिया है। हमारे कुछ मित्रों का तो यहां तक कहना है कि रणवीर सिंह ने ‘खलनायक’ और ‘वास्तव’ के संजय दत्त की
जीवंत अदाकारी की याद दिला दी है। तो ऐसे में हम तो यही कहना चाहेंगे कि खिलजी से
भले ही आप जितनी नफरत करें लेकिन उस भूमिका को निभाने वाले रणवीर सिंह की अदाकारी
को हम सबको जरूर प्रेम से देखना चाहिये।
*लेखक ‘पिक्चर प्लस’ के संपादक हैं। दिल्ली में निवास। संपर्क- pictureplus2016@gmail.com
(इस लेख को बिना अनुमति कहीं भी प्रकाशित
करना कॉपीराइट का उल्लंघन माना जायेगा।)
संजय को हमेशा से ही अपनी फिल्म को लेकर ऐसे विवादों की अपेक्षा रहती ही है !
जवाब देंहटाएंजहां हिंदूवादी सोच आज अपने उठान पे है, भाई को ज़रूरत क्या थी "अपने इमेजिनेशन को परवान चढ़ाने की ?"
खिलजी को एक कमीना और नीच मलेच्छ दिखाने की बजाए, उसे शानदार जानदार विलेन बनाने की ज़रूरत क्या थी भाई ?....
राजपूतों की पीढियां आजतक जोधा का हाथ अक़बर को थमाने तक पे शर्मिंदा होते हैं" ऐसे में संजय ने ये लीला' और कर दी...
बड़ा संवेदनशील बनता है" और राजपूतों के आत्मसम्मान को नज़रंदाज़ भी कर जाता है.....वाह !!!
इस सवाल का जवाब तो भंसाली को ही देना होगा। हमलोग तो समीक्षक हैं, जो दिखता है उसके बारे में विश्लेषण करते हैें। भंसाली के दिमाग में क्या है? इसका खुलासा वही कर सकते हैं। हां, लेकिन इतिहास में इससे पहले भी जितने बड़े खलनायक दिखाये गये हैं-(जिनका नाम इस लेख में हैं।) वे भी कई बार हीरो पर हावी होते रहे हैं। पच्चीस, चालीस साल पहले भी निर्देशकों ने उन खलनायकों को पूरे गेटअप के साथ दिखाया था, भले ही वह जैसा भी दुराचारी रहा हो।
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