कुँवर नारायण जितने बड़े कवि थे उतने ही गहरे
कला,
रंगमंच और सिनेमा के पारखी भी थे
*मनीष जैसल
उत्तर प्रदेश
के फ़ैज़ाबाद में 19 सितंबर 1927 को जन्में, लखनऊ
विश्वविद्यालय में अंग्रेजी से एम.ए. करने वाले वाले कुँवर नारायण नाटक, सिनेमा और कला-संगीत के क्षेत्र में भी अहम योगदान के लिये सदा स्मरण में
रहेंगे। जीवन के चक्रव्यूह को तोड़ते हुए उन्होंने कवि होने का धर्म तो निभाया ही, साथ ही अन्य कलाओं पर उनका मूल्यवान लेखन आज हमारे
सामने है, और युगों युगों तक रहेगा। उनकी काव्य यात्रा की शुरू ‘चक्रव्यूह’ से ही होती है। आगे चल कर उनकी कविता के जरिये हिन्दी कविता की धारा को नयी
दिशा भी मिलती है। उसी प्रकार कला, रंगमंच और सिनेमा पर उनका लेखन भी उस दौर की
पीढ़ी को इन विधाओं को गंभीरता से समझने की नई दृष्टि प्रदान करता है। फिल्मकार सत्यजीत
राय के संदर्भ में वह अपनी किताब ‘लेखक का सिनेमा’ में लिखते हैं-“मेरे लिए सत्यजित राय को उनके कामों के द्वारा जानना इस युग के अत्यंत
प्रतिभा-सम्पन्न, कुशल और संवेदनशील फिल्मकार को जानना था। उन्हें व्यक्तिगत स्तर पर निकट
से जानना एक बहुत ही उदार, सुहृद, स्नेही और सुसंस्कृत इंसान को जानना था”।
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सत्यजीत रे; कुंवर नारायण थे इनसे प्रभावित |
अपनी किताब के जरिये उन्होंने सत्यजीत राय की फिल्म ‘जलसाघर’, ‘शतरंज के खिलाड़ी’ आदि में दिखाई गई लखनऊ की संस्कृति का सुंदर वर्णन किया है। उनकी यह किताब
बताती है कि कैसे सत्यजीत राय लखनऊ को सिर्फ फ़िल्मकार की नज़र से ही नहीं बल्कि एक साहित्यकार
और कवि की संवेदना की दृष्टि से भी देखते
हैं। इस तरह का अंतर्वस्तु विश्लेषण सिने लेखन के हिसाब से काफी उम्दा काम माना जाता है। ‘लेखक का सिनेमा’ पुस्तक के जरिये कुँवर साहब सत्यजीत राय के पूरे सिने जीवन को बहुत ही
संजीदगी से उकेरते हैं। जिससे उनके और सत्यजीत राय दोनों के प्रति पाठक का झुकाव
होने लगता है। उनकी यह किताब कई पाठकों को दर्शकों में बदलती है।
सिने समाचोलना में उनका योगदान सिर्फ भारतीय फ़िल्मकारों तक सीमित नहीं रहा।
क्रिस्तॉफ क्लिस्वोव्स्की, इग्मार बर्गमैन, तारकोव्स्की, आंद्रेई वाज्दा जैसे दुनिया के बेहतरीन फिल्मकार उनके प्रिय रहें। अमेरिकी
निर्देशक और अभिनेता ऑरसन वेल्स से कुँवर नारायण
काफी प्रभावित दिखते हैं। जिस प्रकार ऑरसन वेल्स कविता को फिल्म की श्रेणी में
मानते थे। खुद कुँवर नारायण भी कविता को नरेटिव न लिखकर टुकड़ों में लिखते थे। ऑरसन
ने ही कहा था कि “मेरे लिए सिनेमा विभ्रांति है, भ्रम के प्रयोगों से सिनेमा सजीव हो सकता है। मेरी फिल्में रंगमंचीय हैं
और सिनेमा के बारे में मेरी सोच शेक्सपियर जैसी है”। ग्रीस के फ़िल्मकार लुई माल का कुँवर जी जीवन में काफी
सकारात्मक प्रभाव पड़ता दिखता है। लुई अपनी फिल्मों को बनाते समय पहले सड़कों पर
शूटिंग करते थे फिर बाद में कथानक बनाते थे। कुँवर जी की कई कविताओं और लेखों में
यह समानता आसानी से देखी जा सकती है। रूसी फ़िल्मकार आन्द्रे तारकोव्स्की उनके
प्रिय इसलिए भी थे क्योंकि आन्द्रे का सिनेमा उनकी कविता की ही तरह समाज से काफी
करीब दिखता था। तारकोव्स्की का खुद यह मानना था कि फिल्म गुणवत्ता के लिए पटकथा
अपने आप में गारंटी नहीं है। फिल्मांकन व निर्देशन के दृष्टिकोण के अनुकूल फिल्म की
दिशा का तय होना भी जरूरी है। अच्छे दृश्य विधान के बावजूद तारकोव्स्की ने खुद
अच्छा सिनेमा बनाया है। कुँवर नारायण तारकोव्स्की को फिल्मों का कवि मानते थे। उन्होंने
कहा कि एक कवि शब्द इस्तेमाल करता है, और फ़िल्मकार बिम्ब का इस्तेमाल, लेकिन दोनों एक रचना को जन्म देते
हैं।
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कुंवर नारायण; कवि तथा कला व सिनेमा समालोचक |
सिनेमा साहित्य, नाटक के अलावा, कुँवर नारायण कला की अनेक विधाओं में गहरी रुचि रखने वाले रसिक विचारक रहे
हैं। उनके प्रिय लेखक, फ़िल्मकार संगीतकार आदि को अगर हम जानने की कोशिश करें तो पाएंगे कि वह भी
कहीं न कहीं उन्हीं की ही तरह बहुमुखी प्रतिभा के धनी व्यक्तित्व होंगे। कुँवर जी की
ही कविता ‘अयोध्या 1992’ की कुछ पंक्तियों में मिथक और इतिहास के जरिये वर्तमान को समझने की कोशिश
करते हुए उन्हें अंतिम विदाई देता हूँ। चूंकि सिनेमा से जुड़े होने के नाते उनसे
आत्मीय लगाव रहा इसीलिए आंखें नम हैं । अब सिनेमा पर उनका लिखा पढ़ना एक सदी को
पढ़ने के बराबर होगा । पेश है उनकी कविता अयोध्या के कुछ अंश;
इससे बड़ा क्या
हो सकता है
हमारा दुर्भाग्य
एक विवादित स्थल में सिमट कर
रह गया तुम्हारा साम्राज्य
हमारा दुर्भाग्य
एक विवादित स्थल में सिमट कर
रह गया तुम्हारा साम्राज्य
अयोध्या इस समय
तुम्हारी अयोध्या नहीं
योद्धाओं की लंका है,
'मानस' तुम्हारा 'चरित' नहीं
चुनाव का डंका है !
योद्धाओं की लंका है,
'मानस' तुम्हारा 'चरित' नहीं
चुनाव का डंका है !
हे राम,
कहाँ
यह समय
कहाँ तुम्हारा त्रेता युग,
कहाँ तुम मर्यादा पुरुषोत्तम
और कहाँ यह नेता-युग
कहाँ तुम्हारा त्रेता युग,
कहाँ तुम मर्यादा पुरुषोत्तम
और कहाँ यह नेता-युग
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*लेखक महात्मा
गांधी अंतरराष्ट्रीय हिन्दी विश्वविद्यालय, वर्धा में हिन्दी सिनेमा विषय अंतर्गत
पीएचडी स्कॉलर हैं।
(नोट-यह टिप्पणी विशेष तौर पर ‘पिक्चर प्लस’ के लिए लिखी
गई है, इसे पूर्व अनुमति के पश्चात् ही अन्यत्र प्रकाशित किया जा सकता है।)
सादर नमन। आलेख सारगर्भित है।
जवाब देंहटाएंAchhi jankari,
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