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फिल्म को बिना देखे विरोध करना गलत - दीपिका पादुकोण |
*संजीव श्रीवास्तव
बिना फिल्म देखे उसका अंधविरोध बड़ा ख़तरनाक होता है, समाज के लिए
अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के लिए तथा लोकतंत्र के लिए । ‘पद्मावती’ फिल्म का विरोध
उसका ताजा नजीर है। राजपूत करणी सेना मानती है कि रानी मां पद्मावती उनके लिए देवी
हैं और उनका चरित्र चित्रण उनके समाज का अपमान है। यह उनका पक्ष है। लेकिन करणी
सेना से कोई यह पूछे कि अपमान का सवाल क्या किसी दूसरे संदर्भ में भी लागू होता है
या नहीं? रानी पद्मिनी का जौहर या उनकी तरह दूसरी रानियों/राजकुमारियों के
बलिदान का चित्रण गलत है तो सीता का चरित्र चित्रण क्यों और कैसे गौरवान्वित करने
वाला होना चाहिये? हर साल रामलीला और ना जाने कितनी बार टीवी धारावाहिकों में सीता हरण,
सीता बनवास और सीता की अग्निपरीक्षा को क्यों दिखाया गया? क्या यह सीता की
मर्यादा का अपमान नहीं? क्या कभी किसी संगठन या सेना ने इस पर प्रश्न उठाया?
राजपूत करणी सेना का दूसरा सवाल कि रानी पद्मावती का नृत्य करना या
गीत गाना उन्हें बिल्कुल वाजिब नहीं लगता, और उनके विरोध की यह दूसरी बड़ी वजह है।
लेकिन सवाल है आखिर क्यों? उनके मुताबिक रानी पद्मिनी के चरित्र चरित्र के दौरान कल्पनाशीलता की
कोई गुंजाइश नहीं होनी चाहिये। चलिये यह भी मान लेते हैं। लेकिन इस सवाल का दायरा
भी केवल पद्मावती तक ही क्यों रहना चाहिये?
कृष्ण की गोपियों संग रासलीला, गीत-संगीत-नृत्य
और राधा-कृष्ण के प्रेम-प्रसंग, सीता-राम के प्रेम-जीवन अथवा शिव-पार्वती के
प्रेम-जीवन का चित्रण हो सकता है तो महाराजा रतन सिंह और रानी पद्मिनी के
प्रेम-जीवन, उनके राजमहल में गीत-संगीत का कार्यक्रम आखिर क्यों नहीं हो सकता? रानी-राजा का
प्रेम-प्रसंग, राजा के समक्ष रानी का गीत-नृत्य, सौन्दर्य-संप्रेषण एक स्वाभाविक
प्रक्रिया है-उस पर प्रतिबंध क्यों होना चाहिये? रानी वहां कोई मंच प्रस्तुति तो नहीं दे रही हैं! वह तो अपने महाराजा
पति को अपनी कला और सौन्दर्य का बोध करा रही है। जरूरत पड़ने पर शूरवीर पति के संग
खुद को वीरांगना की तरह भी प्रस्तुत भी कर रही हैं। इसमें किसी बाहरी तत्व के लिए
अतिरेकी भावना की गुंजाइश कहां है!
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'अशोका' में वीर सम्राट को सौन्दर्य लोलुप की तरह दिखाया गया, कोई मुद्दा नहीं बना |
लेकिन हाय रे अंधविरोध! वस्तुत: किसी भी अंधविरोध में बुद्धिमतापूर्ण तर्क सबसे पहले खत्म हो जाता
है। और यही वजह है कि लोग बिना फिल्म देखे उसका विरोध करना शुरू कर देते हैं। कई
बार ऐसा साबित हुआ है। विरोध करने वाले ऐसे लोग महज भाड़े के मोहरे होते हैं। कई
बार कई फिल्मों में लोग बड़े से बड़े प्रसंग को यूं ही छोड़ देते हैं। क्योंकि वे
प्रायोजित मुद्दे नहीं होते।
मुझे याद है ‘अशोका’ फिल्म दिखाने के लिए शाहरुख खान लालकृष्ण आडवाणी के पास पहुंचे थे।
आडवाणी ने फिल्म देखी लेकिन कुछ बोले नहीं। फिल्म रिलीज हुई। करीना कपूर का ताजा-ताजा
मदमाता सौन्दर्य फिल्म में आकर्षण का विषय था। ऊपर से अशोका के किरदार में शाहरुख
खान का किरदार सोना-चांदी च्यवनप्राश के विज्ञापन शैली में उछल-उछल कर तलवारबाजी
करता हुआ दिखा था। ऊर्जा और सौन्दर्य का अदभुत मिश्रण। उस वक्त किसी को यह समझ
नहीं आया कि एक महान् हिन्दू सम्राट का चित्रण इस रूप में क्यों किया गया, जिसमें
वह बार-बार करीना कपूर के पीछे-पीछे दौड़ लगाता, कभी झील में संग नहाता तो कभी नाव
दौड़ाता हुआ दिखता है। सम्राट अशोक जिस शूरवीरता और कलिंग विजय के पश्चात जिस
ह्रदय परिवर्तन के लिए इतिहास में विख्यात हैं, उसे उस फिल्म में कहीं दिखाया ही
नहीं गया। फिल्म भले ही फ्लॉप हो गई लेकिन सम्राट अशोक के गलत चित्रण को लेकर
विरोध तो दूर आलोचना का स्वर भी कहीं सुनाई नहीं दिया। क्योंकि किसी ने उसे मुद्दा
ही नहीं बनाया।
शाहरुख खान की ही फिल्म थी-‘चेन्नई एक्सप्रेस’। फिल्म में दादाजी के अस्थि-कलश को जिस तरह से पूरी फिल्म में गेंद
की भांति कभी इस हाथ तो कभी उस हाथ उछाला जाता रहा, वह सरासर हिन्दू मान्यताओं का
मखौल उड़ाने की श्रेणी में आता है लेकिन सुपर-डुपर हिट उस फिल्म में उस तरफ किसी
का ध्यान ही नहीं गया। क्योंकि उसे किसी ने मुद्दा ही नहीं बनाया।
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रिलीज के बाद भी 'फायर' के कई दृश्य आपत्तिजनक थे लेकिन विवादों में उनका कोई जिक्र नहीं था |
बात ‘फायर’ फिल्म की करते हैं। आज की करणी सेना की तरह ही तब शिवसेना ने उस
फिल्म का कड़ा विरोध किया-लेकिन केवल स्त्री समलैंगिकता के विषय तथा राधा और सीता
नाम की दो किरदार को लेकर। विवाद के बाद राधा-सीता का नाम बदला गया। तब फिल्म
रिलीज हुई। लेकिन जब मैंने वह फिल्म देखी तो दंग रह गया। साफ पता चला कि विरोधियों
ने फिल्म देखी ही नहीं थी। क्योंकि राधा और सीता किरदार के नाम से कहीं ज्यादा
दूसरे कई दृश्य थे जो उस फिल्म में आपत्तिजनक थे। सवाल यह भी उठा कि आखिर सेंसर
बोर्ड ने वैसे दृश्य को कैसे पास कर दिया होगा
? उदाहरण के लिए बता दूं कि एक दृश्य में घंटी
बजाती मूक वृद्धा की उपस्थिति में घर का नौकर ब्लू फिल्म देख रहा होता है और
हस्तमैथुन करता है, जबकि बाहर रामलीला चल रही होती है। ऐसे और भी कई दृश्य थे
जिसकी कोई जरूरत नहीं थी क्योंकि फिल्म तो स्त्री समलैंगिकता के विषय पर आधारित थी।
इसी तरह ‘वाटर’ फिल्म को ही लीजिये। वृंदावन के आश्रमों में महिलाओं की दशा सुधार पर
भले ही कोई सामाजिक चिंतन न होता हो लेकिन अगर किसी फिल्मकार ने वहां के धूमिल
पक्ष को उजागर करने का प्रयास किया तो वह हमले और विरोध की वजह बन गया।
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'चेन्नई एक्सप्रेस' में अस्थिकलश को गेंद की तरह उछाला गया, लेकिन किसी ने ध्यान नहीं दिया |
कहने का आशय यही कि फिल्मों का विरोध महज अंधविरोध होता है। जो अब
प्रायोजित शक्ल अख्तियार कर चुका है।
अंधविरोध की अपनी पृष्ठभूमि होती है, और वह
मोटिवेशन से संचालित होता है। ‘संन्यासी’ जैसी फिल्म के रिलीज के वक्त सेंसर बोर्ड का जो पैमाना था, क्या वह
42 साल के बाद उसे और विकसित होना चाहिये या संकुचित? सबसे बड़ा सवाल तो
यह कि 42 साल बाद समाज की सोच में कितना विकास हुआ-यह एक विचारणीय मुद्दा है।
Shandaar
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