‘पद्मावती’
फिल्म विवाद पर उठे गंभीर सवाल
पद्मावती फिल्म पर दंगल
छिड़ा है। देश भर में क्षत्रिय समाज इस फिल्म के विरोध में सड़कों पर उतर आया है।
लेकिन हैरत इस बात की है कि अब तक किसी ने इस फिल्म को देखा ही नहीं है। इस विरोध
का समर्थन कुछ सत्ताधारी सदस्य भी कर रहे हैं। जबकि विपक्षी दल के सदस्य इस मुद्दे
पर प्रगतिशील सोच को जाहिर कर रहे हैं। तो इसका आशय क्या समझा जाये? पद्मावती फिल्म का विरोध सोची समझी साजिश का हिस्सा है? क्या इस फिल्म के बहाने उस फिल्म संस्कृति का विरोध हो रहा है, जहां जातीय
और मजहबी भेद नगण्य हो जाता है? गौरतलब है कि बॉलीवुड
बिरादरी संजय लीला भंसाली के समर्थन में है। सलमान खान, फरहान अख्तर, करण जौहर से
लेकर कई नामचीन फिल्मकार पद्मावती को लेकर लोगों से कह रहे हैं-फिल्म को पहले देखा
जाना चाहिये। फिल्म के निर्माता-निर्देशक संजय लीला भंसाली, कलाकार-दीपिका
पादुकोण, शाहिद कपूर भी प्रेस को संबोधित करते हुये देशवासियों से यही अपील कर
चुके हैं। लेकिन विरोध का उन्माद थमने का नाम नहीं ले रहा है। एक बेबाक टिप्पणी-
*लकुलीश शर्मा
कहते हैं कि जब दादा साहब फाल्के अपनी फिल्मों के प्रिंट लेकर विदेश गए तो ब्रिटेन और अन्य देशों के फिल्मकार
उनसे इतने प्रभावित हुए कि उन्हें भारत छोड़कर वहीँ बसने और फिल्म बनाने के ऑफर्स
मिलने लगे। दादा साहब फाल्के ने वो प्रस्ताव ठुकरा
दिए और देश लौटकर इस विधा को आगे बढाया। आज इस घटना को तकरीबन 100 साल गुज़र चुके हैं और इन सौ सालों में
हमारे देश ने सिनेमा के क्षेत्र में अभूतपूर्व प्रगति की है। इस प्रगति में जो कलात्मक और विषयगत
प्रगति हैं वो विशेष तौर पर गैर-हिंदी सिनेमा मे दिखाई देती हैं। हमारे देश के कई और फिल्मकारों को भी
इस तरह की पेशकश हुई है। ये बात इस लेख मे उठाने की जरुरत सिर्फ
इतनी है कि क्या आज वो समय आ गया है कि भारत के फिल्मकारों को ऐसे प्रस्तावों को
स्वीकार कर लेना चाहिए?
अपनी फिल्म के लिए एक सुरक्षित माहौल और अभिव्यक्ति की स्वंत्रता हर
निर्देशक की चाह होती है, पर अगर
देश के हर हिस्से में, हर धर्म, जात और वर्ग में एक पृथक सेंसर बोर्ड
बनने लगे और लोगों की भावनाएं पल-पल पर आहत होने लगे तो फिल्मकार क्या करे?
यहां यह कहा जा सकता है कि पलायन कोई हल नहीं है और हालत इतने भी खराब नहीं
है...या क्या पहले भी तो कई फिल्म पर रोक लगाईं थी, तब पलायन क्यों नहीं किया? ये तर्क तब खोखले साबित होते हैं जब
करोड़ों की फिल्म रिलीज़ हुए बिना ही किसी की अस्मिता को चोट पहुंचा दे। हम अभी जानते भी नही कि फिल्म में हुआ
क्या है,पर हमें
पता है कि इससे हमारी भावनाएं आहत हो जायेंगी। क्या इस तरह की सोच रखने वाला हमारा
समाज–नयी और
खुली सोच पर बने सिनेमा के लिए तैयार है?
इन सारे सवालों को सोचने की जरुरत हैं। और ये सोचने की भी जरूरत है कि हम
हिंदी सिनेमा को क्या सिर्फ मसाला सिनेमा बना कर खुश है? क्योंकि मीरा नायर, दीपा मेहता जैसे नामचीन भारतीय नाम, भारत के लिए फिल्म नहीं बनाते है।
*लेखक
हिन्दी फिल्मों के जानकार हैं। मुंबई में निवास।
संपर्क - pictureplus2016@gmail.com
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