एक समय था जब सियासतदां भाईचारे का संदेश देकर
वोट बटोरते थे, एक समय अब आया है कि भाईचारे में आड़ा चलाकर वोट काटा जाता है।
शायद इसीलिये हमारे सियासतदानों को हिन्दी सिनेमा की सामाजिक समझ भी कमतर होती गई
है। जिसके जो मन में जब आता है, वह सवाल उठा देता है। इस बाबत हमें एक तीखी
टिप्पणी मिली है। इस टिप्पणी पर आप भी विचार व्यक्त कर सकते हैं।
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आने वाली फिल्म 'पद्मावती' का पोस्टर |
*गौतम सिद्धार्थ
संजय लीला भंसाली की आने वाली फिल्म ‘पद्मावती’ पर उठे विवाद के बहाने सिनेमा में गंगा-जमुनी
तहज़ीब को लेकर मैंने फेसबुक पर संजीव श्रीवास्तव जी का मंतव्य का पढ़ा। साथ ही साथ लोगों के comments भी पढ़े। उसमें एक सवाल निकल कर आया कि ये गंगा
जमुनी तहज़ीब क्या है? और दूसरा सवाल था कि इस विषय पर फिल्में क्यों नहीं बनती?
आखिर गंगा जमुनी तहज़ीब है क्या? इसको जानने के लिये अवध का और हैदराबाद का इतिहास पढ़ना पड़ेगा। नहीं तो हम पढ़े लिखे लोगों को कहना
पड़ेगा कि ज्ञान तो बढ़ाओ मेरा। अब मैं जो लिखने जा रहा हूं, उस पर आप कह सकते हैं कि ये तो हमें मालूम है, इसके अलावा भी बताओ।
तो पहली बात ये है कि जो भाषा हम बोलते हैं, उसी में ये गंगा जमुनी तहज़ीब छिपी है। हिंदी ही अरबी, फ़ारसी और संस्कृत का मिश्रण है। जब आपकी ज़ुबान ही गंगा जमुनी तहज़ीब से
ओतप्रोत है, तो आप ये नहीं कह सकते कि आपको गंगा जमुनी
तहज़ीब के बारे में नहीं मालूम। खास तौर से उत्तर भारत के लोगों को।
अब बात है कि आज, इस तहज़ीब पर फिल्में क्यों नहीं बनती। तो मेरे हिसाब से ऐसा नहीं है। मुश्किल
ये है कि हम बुद्धिजीवी फिल्में कम देखते हैं। हमने गंगा जमुनी तहज़ीब को nostalgia से जोड़ दिया है। आज ग़ज़लों और शायरियों की ज़रूरत नहीं रह गई। क्योंकि हर बार
फिल्में नई generation
ही चलाती हैं। और नई पीढ़ी का
मिजाज़ तो हम सब जानते ही हैं।
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'बाजीराव मस्तानी' का एक दृश्य |
फिर भी हम इस बात का छोटा सा विशलेषण कर लेते हैं। क्या हम ‘वीर ज़ारा’ भूल गये? मान लिया कि उस फिल्म का समय और काल पुराना है। लेकिन ‘अजब प्रेम की गज़ब कहानी’? ये तो 2009 की फिल्म है। ‘दहक’, ‘बॉम्बे’, ‘My name is khan’, ‘इश्किया’, ‘एक था टाईगर’, ‘इश्क़ज़ादे’, ‘रांझणा’ - ये तो रहीं inter religious फिल्में।
अब हम आजकल की फिल्मों में हिंदू और मुस्लिम
चरित्रों की भागीदारी पर आ जायें तो कई ऐसी फिल्में हैं जिसमें इनकी बराबर की भागीदारी है। जैसे फरहान कुरैशी ‘3 इडियेट्स’, कबीर खान ‘चख दे इंडिया’, इक़बाल ‘इक़बाल’, रेहान ‘फना’, सलीम ‘सरफ़रोश’ बहुत सी ऐसी ही फिल्में हैं जिसमें कई जातियों
की भागीदारी होते हुए भी हमने उस पर ध्यान नहीं दिया। इसमें मैं दक्षिण की फिल्मों
को शामिल नहीं कर रहा हूं। अगर उन्हें भी शामिल कर लूं तो कई गलतफहमियां दूर हो जायेंगी। क्योंकि वो भी हिंदुस्तान में ही बनती हैं।
सबसे बड़ी मुश्किल ये है कि हम गंगा जमुनी तहज़ीब
को हिंदू मुसलमान की निगाह से देखते हैं ‘आजकल’। जबकि तहज़ीब वो Ethics है, जिसे हम चाहें तो अपनायें, और ना चाहें तो ना अपनायें। इसका धार्मिक rituals से कोई लेना देना नहीं है। ये एक व्यवहार है जो
दूसरों को सम्मान देने और लेने से बनता है। हरियाणवी तू तड़ाक से सम्मान देता है, उत्तर प्रदेश वाला आप और आईये से सम्मान देता है और मराठी तुम से सम्मान करता
है। ये उनकी अपनी तहज़ीब है।
अब बात आती है कि मुस्लिम सोशल फिल्में क्यों
नहीं बनतीं? तो ये एक अलग विषय है। जैसे ही हम मुस्लिम सोशल
फिल्मों की बातें करते हैं, तो उसमें फौरन धर्म की तरफ़ से अड़ंगे खड़े हो
जाते हैं। वैसा ही हिंदू सोशल फिल्मों के साथ भी होता है। फिल्में समाज का आईना है, ना कि उन्होंने समाज को बदलने का बीड़ा उठा रखा है। अगर हिंदुस्तानी फिल्में
ऐसा करने लगे तो, ये धंधा ही चौपट हो जाये। आखिर कितनों ने ‘खुदा के लिये’ फिल्म देखी? ‘फिराक़’ और ‘बोल’ तो किसी गिनती में नहीं आती। जबकि ये सब
मुस्लिम सोशल फिल्में हैं।
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'वीर जारा' की एक तस्वीर |
गंगा जमुनी तहज़ीब को शिष्टाचार की प्रतीकात्मकता
के तहत बांधने के बजाये, इंसानियत के दायरे में रख कर सोचना चाहिये।
लीजिये फिर शब्द आया ‘चाहिये’। मतलब Ethics...बस यही एक शब्द सब मुसीबतों की जड़ है।
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संपर्क-pictureplus2016@gmail.com
बहुत अच्छी सहज लेखन शैली है भई !!💐
जवाब देंहटाएंआप भी फ़िल्म इंडस्ट्री के बारे में अपनी राय दीजिये।
हटाएंV good explanation.
जवाब देंहटाएंधन्यवाद सर।
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