'माधुरी के दिन' का विशेष भाग
14 दिसंबर: राज कपूर का जन्मदिवस और शैलेंद्र का अवसान दिवस
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शैलेंद्र और राजकपूर : बेमिसाल दोस्ती |
-अरविंद कुमार
‘माधुरी’ का संपादक बन कर मैं जब
1963 मेँ बंबई पहुंचा तो मेरी पसंद तो कई थे। कुल दो मेरे हीरो थे। लोककवि शैलेंद्र
और अभिनेता-निर्देशक-निर्माता राज कपूर। दोनोँ ने मेरी आधुनिक मानसिकता के विकास
में योगदान किया था। एक पत्रकार मित्र ने मुझे मिलाया शैलेंद्र से जो उम्र में मुझ
से आठ साल बड़े थे। उन्हीं ने लिखा था–“अगर कहीं है स्वर्ग तो उतार ला ज़मीन पर” और ‘आवारा’ में उन्हीं का मारक
गीत था–“ज़ुलम सहे भारी जनक दुलारी”। समाज की दुत्कृता नारियों के असम्मान के विरोध का
गूंजता विरोध। और राज कपूर ने ‘आवारा’ में इसे बड़े जतन से सही सिचुएशन पर फ़िल्माया था।
पहली ही मुलाक़ात में न जाने कैसे अबोले बड़े भाई बन गए। उन्होंने कहा–“राज से तुम्हें मैं मिलवाऊंगा।” अंधा क्या चाहे दो आंखें। पूछ और नेक नेक। तो दो तीन
सप्ताह में समय तय करके वह ले गए आर.के. स्टूडियो। उस दिन से आर.के. के दरवाज़े
मेरे लिए हमेशा के लिए खुल गए।
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देह और आत्मा |
अगर राज कपूर देह और
दिमाग़ थे तो शैलेंद्र उन की आत्मा थे। राज शैलेंद्र को ‘कविराज’ कहते थे। जब किसी फ़िल्म की किसी सिचुएशन पर कोई गीत
तत्काल लिखना हो शैलेंद्र को काटेज मेँ बैठा दिया जाता। स्टूडियो में राज के बैठने
और आराम करने के लिए यह काटेज बनाई गई थी। मैं कभी आर.के. किसी और काम से जाता और
राज फ़्री हों तो मुझे वहीं बुला लिया करते थे। काटेज में शैलेंद्र जिस भी मुद्रा
में हों, लेटे हों या बैठे हों, सोच रहे हों - थोड़ी थोड़ी देर में राज जासूस
भेजते। कविराज ने क़लम उठाया या नहीं, कुछ लिख रहे हैं क्या? एक भी शब्द शैलेंद्र लिखते तो राज का चेहरा खिल
उठता, शंकर या जयकिशन सजग हो जाते।
यह जो राज और शैलेंद्र
का संगम था, उसने कई अमर फ़िल्मों और गीतों को जन्म दिया। इस लेख में मैं बस दोनों
की दो अपनी फ़िल्मों के बारे में लिखूंगा। ‘श्री चार सौ बीस’ में शैलेंद्र से उबरते, निर्धन, संघर्ष करते, आगे बढ़ते भारत की आत्मा का गीत लिखवाया गया -“मेरा जूता है जापानी” जिसे गायक मुकेश ने आवाज़ दी। वह भारत सारी दुनिया
से कुछ न कुछ ले रहा था। जापान से सस्ते जूते, इंगलैंड से पहनावा, रूस से क्रांति
का संदेश पर पूरी तरह देसी था। अपना भविष्य बनाने के लिए वह सीना तान कर खुली सड़क
पर निकल पड़ा है। उस के दिल मेँ तूफ़ानी इरादे हैं। जो तटस्थ बैठे हैं वे नादान
लोग बस राह पूछ रहे हैं। जो सड़क पर निकल पड़े हैं वे बिगड़े दिल शहज़ादे हैं जो
एक न एक दिन सिंहासन पर जा विराजेंगे। इस प्रकार 1955 मेँ बनी यह फ़िल्म हमारे देश
की कशमकश की प्रतीक बन गई। (यह हमारी पंच-वार्षिक योजनाओं के आरंभ होने का काल था)
पढ़िए पूरे गीत के बोल
–“
मेरा जूता है जापानी, ये पतलून इंगलिस्तानी/
सर पे लाल टोपी रूसी, फिर भी दिल है हिंदुस्तानी/
निकल पड़े हैं खुली सड़क पर/
अपना सीना ताने/
मंज़िल कहाँ कहाँ रुकना है/
ऊपर वाला जाने/
बढ़ते जायें हम
सैलानी,
जैसे एक दरिया तूफ़ानी/
ऊपर नीचे नीचे ऊपर लहर चले जीवन की/
नादाँ हैं जो बैठ किनारेपूछें राह वतन की/
चलना जीवन की कहानी,
रुकना मौत की निशानी/
होंगे राजे राजकुँवर हमबिगड़े दिल शहज़ादे/
हम सिंहासन पर जा बैठेँ जब जब करें इरादे/
सूरत है जानी पहचानी, दुनिया वालों को हैरानी/ सर पे लाल…”
इसी फ़िल्म में शैलेंद्र ने अपने कवित्व की
परिभाषा इन शब्दों मेँ की थी -“सीधी सी बात न मिर्च
मसाला, कह के रहेगा कहने वाला।”
राज और शैलेंद्र के संगम के सिलसिले मेँ आर.के.
की एक और फ़िल्म ‘आवारा’ की बात कर यह लेख
समाप्त करूंगा। लेकिन ‘आवारा’ से पहले इन दोनोँ
की मुलाक़ात कैसे हुई – यह बताता हूं।
किसी कवि सम्मेलन मेँ राज कपूर ने शैलेंद्र की
कविता सुनी –“जलता है पंजाब”।
तत्काल उनसे संपर्क किया, लेकिन उन्होंने फ़िल्मों में लिखने से इनकार कर दिया –“मेरी कविता बिकाऊ नहीँ है।” पर राज ने हार नहीँ मानी। कहा –“जब चाहो मेरे स्टूडियो आ जाना।” हुआ यह कि शैलेंद्र की पहली संतान होने वाली थी।
पैसे चाहिए थे। वह चले स्टूडियो की ओर। बरसात का मौसम था। दरवाज़े पर ही दोनों मिल
गए, आंखें चार हुईं, चमकीं। शैलेँद्र ने मिसरा पढ़
दिया –“तुम से मिले हम हम से मिले तुम बरसात में।” राज ने यह गीत तत्काल ख़रीद लिया फ़िल्म ‘बरसात’ के लिए।
‘’आवारा’ से अगर ये तीन गीत निकाल दिए जाएं तो वह ‘आवारा’ नहीँ रहेगी। पहला
है “ज़ुलम सहे भारी जनक दुलारी” आप ध्यान से देखें तो कथाकार-द्वय ख़्वाजा अहमद अब्बास और वी.पी. साठे ने बड़े
कमाल से सीता बनवास और लवकुश की कहानी को जज रघुनाथ के घर से जोड़ दिया था। जज
रघुनाथ सीता को बनवास देने वाला राम भी है और अपने अपनी पालिता बेटी नरगिस (सीता)
से अपने आवारा बेटे राजु का विवाह कराने वाला बाप जनक भी है...
जज की पत्नी लीला चिटणीस को जग्गा डाकू ने अग़वा
कर लिया और चार दिन बाद छोड़ दिया। कुछ मास बाद वह गर्भवती होती है। जज साहब के मन
में अंतर्द्वंद्व व्याप जाता है। भरी बरसात और कड़कती बिजली वाली रात वह लीला को
घर से निकाल देता है, वह इधर उधर भटक रही है। बाज़ार में किसी दूकान के थड़े पर
भक्त भजन कर रहे हैँ–
जनक दुलारी
राम की प्यारी/
फिरे मारी मारी जनक दुलारी/
जुलुम सहे भारी जनक दुलारी/
गगन महल का राजा देखो/
कैसा खेल दिखाए/ सीप का मोती, गंदे जल मेँ/
सुंदर कंवल खिलाए/ अजब तेरी लीला है गिरधारी.’
दूसरा गीत है विश्व प्रसिद्ध ‘आवारा हूँ’ –
“आवारा हूँ, आवारा हूँ/
या गर्दिश मेँ हूँ, आसमान का तारा हूँ/
घरबार नहीँ, संसार नहीँ, मुझ से किसी को प्यार नहीँ…”
और जो तीसरा है वह ‘आवारा’ के स्वप्न दृश्य का है - नौ मिनिट का न-भूतो-न-भविष्यति दृश्य और गीत। गाया है मन्ना डे और लता
मंगेशकर ने। पहले कथानक में इसकी पृष्ठभूमि।
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राज कपूर व नरगिस : अब वो बरसात व बरसात के गीत कहां? |
आवारा राजू अपराध के जीवन से निकलना चाहता है।
वह स्वप्न देखता है – प्रेमिका रीता (नरगिस) किसी स्वर्ग जैसी जगह से उसे पुकार
रही –“तेरे बिना – आग – ये चांदनी, तू आ जा/ तेरे बिना – बेसुरी बांसरी, ये मेरी ज़िंदगी – दर्द की रागिनी /तू आ जा, तू आ जा।”
नीचे धरती पर या नरक में फंसा राजू तड़प रहा है –
“ये नहीं
है, ये नहीं
है – ज़िंदगी – ज़िंदगी/ ये नहीं
ज़िंदगी/ ज़िंदगी की
ये चिता – ज़िंदा जल
रहा हूं, हाय/ सांस के, ये आग के – ये तीर – चीरते हैं – आर पार – आर पार…/ मुझ को ये
नरक ना चाहिए/ मुझ को फूल, मुझ को
गीत, मुझ को
प्रीत चाहिए/ मुझ को
चाहिए बहार, मुझ को
चाहिए बहार…”
उधर स्वर्ग मेँ मधुर घंटियां टनटना रही हैं, रीता गा रही है –
“घर आया
मेरा परदेसी,
प्यास बुझी मेरी अंखियन की/
घर आया मेरा परदेसी,
प्यास बुझी मेरी अँखियन की…/
तू मेरे मन का मोती है,
इन नैनन की ज्योती है/
याद है मेरे बचपन की,
घर आया मेरा परदेसी../
अब दिल तोड़ के मत जाना,
रोती छोड़ के मत जाना/ क़सम तुझे मेरे अँसुअन की,
घर आया मेरा परदेसी/
घर आया मेरा परदेसी, प्यास बुझी मेरी अँखियन की/
घर आया मेरा परदेसी, प्यास बुझी मेरी अँखियन की.. /
तू मेरे मन का मोती है, इन नैनन की ज्योती है/
याद है मेरे बचपन की, घर आया मेरा परदेसी../
अब दिल तोड़ के मत जाना, रोती छोड़ के मत जाना/
क़सम तुझे मेरे अँसुअन की, घर आया मेरा परदेसी.”
पर राजू बच नहीं पाता। करुण हृदयद्रावी संगीत. जग्गा (के.एन. सिंह) उसे
बुला रहा है...
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राज कपूर, शैलेंद्र और संगीतकार शंकर (जयकिशन की जोड़ी वाले) |
इस पूरे स्वप्न दृश्य की सांस्कृतिक पृष्ठभूमि में हैं उदय शंकर आदि
के अनेक नृत्यमंडलोँ की तत्कालीन मंच प्रस्तुतियां। इस स्वप्न दृश्य की नृत्य
निर्देशिका थीँ उदय शंकर की फ़िल्म ‘कल्पना’ की
नृत्य निर्देशिका फ़्रांसीसी मूल की मैडम सिमकी।
पूरे दृश्य में जितने शब्द हैं सब शक्तिशाली हैं। परदे पर जो दिख रहा
है वह और भी शक्तिशाली है। ऐसे गीत और उन के बोल स्क्रीनप्ले (नाट्यालेख) के आधार
पर लिखे जाते हैं। बार बार सोच कर, मन मेँ बार बार घुमा फिरा कर, मन ही मन उन की
ध्वनि सुन कर लिखे जाते हैं। और जब एक बार शुरूआत हो जाती है, तो अकसर एक साथ लिखे
भी जा सकते हैं। मुझे पता नहीं शैलेंद्र ने ये शब्द कैसे लिखे, कितनी बार लिखे,
काटे, लिखे। निश्चय ही उनका जननाट्य संघ के अनेक नृत्य नाट्यों का अनुभव भी काम आया
होगा। वह स्वयं सक्रिय कलाप्रेमी थे, और उदय शंकर की कई मंच प्रस्तुतियां भी
उन्होंने देखी होंगी। 60-65 साल
पहले मैंने जो कुछ परदे पर देखा, वह फिर कई बार देखा, और बाद में फिर कई बार देखा।
मेरे लेख से आज की पीढ़ी को इनका आभास मात्र ही मिल सकता है। चाहें तो
यू ट्यूब पर देख कर वे हिंदी फ़िल्मोँ के स्वर्ण युग की बानगी ले सकते हैँ।
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शैलेंद्र और राजकपूर की जोड़ी की अनूठी और अंतिम कृति : तीसरी कमस |
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(लेखक ‘माधुरी’
पत्रिका के पूर्व संस्थापक-संपादक हैं। गाजियाबाद में निवास।)
संपर्क -arvind@arvindlexicon.com /pictureplus2016@gmail.com
दीवाना बना दिया आपने.....!
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