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काम में तल्लीन अरविंद कुमार फो.सौ. अरविंद कुमार |
‘माधुरी’
के संस्थापक-संपादक अरविंद कुमार से
जीवनीपरक सिनेवार्ता; भाग–
नौ
पहले मुझे टाइम्स के
प्रबंधन वाले फ़्लोर पर एक केबिन अस्थायी तौर पर दिया गया था। अब उसके ऊपर वाली
मंज़िल मेँ जो गैलरी थी उसके अंत मेँ एक बेहद छोटा कमरा था दक्षिण दिशा की ओर, ऊपर
खिड़की थी। वही ख़ाली था, तो मुझे दे दिया गया। तीसरे पहर वह इतना
तपने लगता था कि एअरकंडीशनर भी ठंडा नहीँ कर पाता था। मेरे कमरे से दाहिने था
संपादकोँ का शौचालय जिसमेँ से एक पर दरवाज़ा था और उसकी चाबी हर संपादक और
विभागाध्यक्ष को दी जाती थी। बाईं ओर ‘धर्मयुग’
संपादक भारती जी का केबिन था। गैलरी के दोनोँ ओर अंधे कांच की कोई छह-सात फ़ुट
ऊंची पार्टीशन दीवार थी। बाएं पार्टीशन वाले भाग सब सहायक तथा उपसंपादकोँ के साथ
टाइपिस्टोँ की मेज़ेँ थीँ। दाहिने वाले पार्टीशन के पीछे अनेक चित्रकारों तथा ले-आउट
बनाने वाले थे। ‘फ़ेमिना’ तथा ‘फ़िल्मफ़ेअर’
संपादकोँ और उनके सहयोगियोँ के अलग अलग भाग थे।
भारती जी छुट्टी से
दो-तीन
सप्ताह बाद लौटे। अब हम दोनोँ एक दूसरे के केबिन मेँ चले जाते। कभी कभी वह मेरे
काम के आगंतुक को मेरे पास भेज देते थे मिसाल के तौर पर किशन चंदर जो लेखक होने के
साथ साथ फ़िल्म लेखक भी थे।
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लेखक कृष्ण चंदर |
किशन चंदर आए तो हम
दोनोँ मित्र बनने को उत्सुक थे। वह मुझसे चौदह साल बड़े थे शायद!
एक बार वह दिल्ली मेँ माडल टाउन मेँ कुछ दिन के लिए घर ले कर रहे थे। मैँ उससे
लगभग एक फ़र्लांग दूर वहीँ के ब्लाक के-5/5 वाले
अपने मकान मेँ रहता था। उनसे मिलने भी गया था। तब मैँ कोई 28 साल का रहा हूंगा।
बड़े प्यार से मिले थे जैसे कोई बड़ा भाई अपने से बहुत छोटे भाई से मिलता है। तो
हम दोनों ‘माधुरी’ (तब नाम था ‘सुचित्रा’) की नीतियोँ पर बात करने लगे। मैंने उनसे लिखने
की बात की तो वह तुरंत तैयार हो गए। शुरुआत अच्छी हुई। पहले ही अंक से उनकी एक
लेखमाला छपनी शुरू हुई - एक पेज की, यह
साइज़ मेरे सुझाव पर था। शीर्षक का फ़िल्मों का ककहरा या कुछ ऐसा ‘अ’ से
शुरू कर के ‘ह’ तक
के अक्षरों पर फ़िल्मों या फ़िल्मवालों पर डिक्शनरी स्टाइल टिप्पणियां। इसके
बाद जब भी कभी वह ‘टाइम्स’ के दफ़्तर के आसपास आते तो मिलने चले आते।
हम लोगों का जोश देखते रहते। उन्हीं की पैनी नज़र से पहले ही अंक हमारी पत्रिका के
माथे पर कलंक का काला टीका लग जाता। पूरा बंबई फ़िल्म उद्योग हमारी खिल्ली उड़ा
रहा होता। पर वह प्रसंग मैँ गणतंत्र दिवस पर जो हमारा पहला अंक निकला, उस वाली क़िस्त मेँ विस्तार से बताऊंगा।
किशन चंदर जी की उस कृपा की कृतज्ञता का भार मैँ मरते दम तक नहीँ चुका पाऊंगा।
मेरा केबिन हर एक के
लिए हमेशा खुला था, खुला रहा – पहले
से अंतिम दिन तक। मेरे सहकर्मी और मैँ अब लगभग पूरे दिन एक साथ थे। समय तेज़ी से
बीत रहा था। काम की गति तेज़ करनी थी। जैनेंद्र ‘धर्मयुग’ से
आया था। ‘माधुरी’
मेँ उसे सोचने और बताने की ख़ुली छूट मिली। उत्साह से भर गया। ट्रेनी विनोद तिवारी
और आर.सी. जैन
के मन मेँ उत्साह था कि सौभाग्य से
किसी नई पत्रिका को बनते देखना और उसका
बराबरी का सहभागी होना हम सबको उत्साह से भर रहा था। हम सब किसी कंपनी के नौकर बाद
मेँ थे,
अपनी
नई पत्रिका के सर्जक पहले थे।
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सिनेवार्ता जारी है...
अगली कड़ी, अगले रविवार
संपर्क - arvind@arvindlexicon.com / pictureplus2016@gmail.com
(नोट : श्री अरविंद कुमार
जी की ये शृंखलाबद्ध सिनेवार्ता विशेष तौर पर 'पिक्चर प्लस' के लिए तैयार की गई है।
इसके किसी भी भाग को अन्यत्र प्रकाशित करना कॉपीराइट का उल्लंघन माना जायेगा। संपादक-पिक्चर प्लस)
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