त्वरित टिप्पणी
वरिष्ठ फिल्म पत्रकार अजय ब्रह्मात्मज से
संजीव श्रीवास्तव की बातचीत
“भंसाली
चाहें तो रिवाइजिंग कमेटी में जा सकते हैं,
ट्रिब्यूनल
में जा सकते हैं, कोर्ट में भी जा सकते हैं...”
सवाल : पद्मावती फिल्म को लेकर सीबीएफसी की तरफ से जो सुझाव
आये हैं उसको लेकर आप क्या कहना चाहेंगे?
अजय ब्रह्मात्मज : सीबीएफसी और सरकार
का रवैया शुरू से ही करणी सेना की लोकप्रिय मांग के दबाव में रहा है। उसी दबाव में
सीबीएफसी का यह फैसला भी आया है। यह फैसला फिल्म जगत और रचनात्मकता के लिए अच्छी
बात बिल्कुल नहीं है। आगे इसका बहुत नुकसान होगा। ये एक तरह से वाटर लू टेस्ट था,
जिसमें सत्ता पक्ष फेल हुआ है।
सवाल : भंसाली की तरफ से पद्मावती की जो स्क्रीप्ट तैयार
की गई थी, क्या आपको लगता है कि उसमें वह उसी प्रकार का किरदार था जो साहित्य और
इतिहास में वर्णित था?
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निर्माता-निर्देशक संजय लीला भंसाली और सीबीएफसी के चेयरमैन प्रसून जोशी |
अजय ब्रह्मात्मज : देखिये बिना फिल्म
देखे इस पर बात करना फिजूल होगा, और जो लोग भी विवाद कर रहे थे वह भी फिजूल था।
वैसे उन्होंने कहा भी था कि यह आंशिक रूप से साहित्य और ऐतिहासिक तथ्यों पर आधारित
है। ये तो अपने यहां परम्परा भी रही है लेखन की। प्राचीन साहित्य को देखें तो
बाणभट्ट ने जब हर्षचरित लिखा था तो उसे आख्यायिका कहा था। आख्यायिका का मतलब होता
है इतिहास और कल्पना का मिश्रण। आज की तारीख़ में भी जब हम कोई साहित्य और सिनेमा
रचते हैं तो उसमें ऐतिहासिक तथ्य लेते हैं और उसमें कल्पनात्मक व्याख्या भी होती
है। लेकिन ये सब अपने विवेक पर निर्भर करता है। फिल्में इसी से रोचक भी बनती हैं।
अगर केवल ऐतिहासिक साक्ष्य ही दिखाना है तो डॉक्यूमेंट्री बना दें न, फिल्म क्यों
बनाये? सिनेमा बनाना है तो उसमें कल्पनाशीलता का समावेश
होगा ही, क्योंकि उसे मास ऑडियेंस को अपील करना है।ऐसे में मुझे नहीं लगता कि संजय
लीला भंसाली ने कोई जानबूझ कर कुछ ऐसा करना चाहा जिससे विवाद हो। वो अपनी एक फिल्म
बना रहे थे, जो लोगों को नागवार गुजरी बगैर देखे हुये।
सवाल : हालांकि साहित्य में इतिहास और कल्पना के मिश्रण
से विवाद नहीं होते, केवल सिनेमा में ही क्यों?
जायसी की ‘पद्मावत’
भी तो इतिहास और कल्पना का मिश्रण है।
अजय ब्रह्मात्मज: देखिये ये तो
राष्ट्रवाद की लहर चल रही है न, उसमें ये सबकुछ हो रहा है। पद्मावती पर पहले भी
फिल्म बन चुकी है। मैं इन दिनों शोध कर रहा हूं और मैंने पाया है कि आजादी के पहले
भी पद्मावती पर फिल्म बन चुकी है। उस समय भी सेंसर बोर्ड हुआ करता था, अंग्रेजों
का था। लेकिन उस समय राष्ट्रवाद का ऐसा भूकम्प नहीं आया हुआ था। इस भूकम्प में
साहित्यिक कृतियां और लोगों की सृजनात्मकता भहरा रही हैं। आगे और होगा!
दुखद बात है कि प्रसून जोशी जैसे व्यक्ति सत्ता की भाषा बोलने लगे हैं। उनसे
उम्मीद थी कि पहलाज निहलानी से आगे होंगे, लेकिन ऐसा लगता नहीं है। ये
थोड़े सभ्य भाषा में वो ही सारे काम कर रहे हैं जो पहलाज करते थे।
सवाल: बोर्ड के नियम तो वही रहते हैं। सरकारें बदलती
हैं तो केवल अध्यक्ष बदलते हैं। ऐसे में एक समय जब ‘संन्यासी’
जैसी फिल्म आ जाती है और उसके गाने घर-घर में सुपरहिट हो जाते
हैं तो आज की तारीख में मामूली बात पर इतना विवाद क्यों? आज
तो लोग वैसे गाने लिख ही नहीं सकते, रिलीज की बात तो दूर है।
अजय ब्रह्मात्मज : देखिये मैं बार-बार
कहता हूं कि सत्ता पक्ष के लोगों ने जिस तरह से चुप्पी ओढ़ रखी है उसमें ऐसे
तत्वों को बढ़ावा मिल रहा है। आगे और भी इसके खतरनाक रूप देखने को मिल सकते हैं! स्थिति
तो यह आ गई है कि स्क्रीप्ट लिखे जाने के दौरान लोग खुद ही इतना काट-छांट देते हैं
कि आगे चलकर कोई समस्या न हो। सवाल है इसमें कितनी रचनात्मकता बची रह जायेगी?
बहुत ही संकट के दौर से हमलोग गुजर रहे हैं। पद्मावती फिल्म इसका बेहतरीन उदाहरण
है। पद्मावती का नाम पद्मावत होगा! 'आई' निकालने का क्या मतलब है? कुल मिलाकर संजय लीला भंसाली की जो रचनात्मकता थी, उसका हनन किया गया है। फिल्म से
उनकी पहचान को ही निकाल दिया गया है। फिल्म तो आयेगी, लेकिन उसमें संजय लीला भंसाली की ‘इंडीविजुअलिटी’
नहीं रह जायेगी।
सवाल : असल में भंसाली ने खुद भी पहले यह बयान दिया था
कि उनकी फिल्म की कहानी का आधार जायसी की पद्मावत है। तो क्या फिल्म का नाम भी
इसीलिए पद्मावत रखने का सुझाव दिया गया होगा?
अजय ब्रह्मात्मज : नाम आप चाहें कुछ भी कर दें। पद्मावती का पद्मावत
कर दें या हाथी का नाम ऐरावत कर दें, उससे क्या फर्क पड़ता है। कहते हैं न कि नाम
में क्या रखा है? लेकिन जिस तरह से विवाद हुआ और उसे घसीटा गया, वह
दुखद था। पहले ही कहा जा रहा था कि गुजरात चुनाव के बाद फैसला हो जायेगा, वही हुआ।
सवाल : विवाद को घसीटने के दौरान एक बड़ी चौंकाने वाली
बात यह भी हुई कि विरोध करने वालों को बोर्ड या बोर्ड के अध्यक्ष पर जैसे भरोसा ही
नहीं रहा, जबकि अध्यक्ष हमेशा वर्तमान सरकार द्वारा ही चुना जाता रहा है। ऊपर से
सरकार के अंग से जुड़े लोग भी विरोध की लहर में शामिल हो गये। यह कैसा विरोधाभास
था?
अजय ब्रह्मात्मज: देखिये रास्ते तो
अब भी हैं कई। लेकिन देखना होगा कि संजय लीला भंसाली कितनी हिम्मत कर पाते हैं। दुर्भाग्य
की बात है कि फिल्म इंडस्ट्री के लोग भी भंसाली के साथ अब भी नहीं हैं। अगर वो
चाहें तो रिवाइजिंग कमेटी में जा सकते हैं, जिसके बाद ट्रिब्यूनल में जा सकते हैं,
इसके बाद कोर्ट में जा सकते हैं, लेकिन इससे मामला बहुत लम्बा खिंच सकता है। अगर
सरकार और सत्ता पक्ष चाह ले कि फिल्म को अटकाना है तो कहीं भी फैसला जल्दी नहीं हो
सकेगा। हालांकि इसके बावजूद संजय लीला भंसाली को मैं बिल्कुल दोषी नहीं मानता कि
वो झुक गये हैं या घुटने टेक दिये हैं। एक सौ नब्बे करोड़ रुपये लगाकर कोई फिल्म
बन रही है तो सोचा जा सकता है कि उसका निर्माता-निर्देशक कितने दबाव में होगा! कोई
भी उसके दबाव में आ जायेगा। जबकि फिल्म तीन साल से बन रही है। मैं तो कई फिल्मों
के उदाहरण दे सकता हूं जब निर्माता-निर्देशक लगभग टूट गये। आपका एक लेख कंप्यूटर
से डिलीट हो जाये तो तकलीफ होती है लेकिन जो तीन साल से फिल्म बना रहे हैं उस पर
क्या गुजर रही होगी! झूठे आरोपों में फिल्म को फंसा देना कितना वाजिब
है! लेकिन देखते हैं कि संजय लीला भंसाली का अगला कदम
क्या होता है! परोक्ष रूप से तो यह भी कहा जा रहा है कि
पद्मावती फिल्म में अंबानी का पैसा लगा हुआ है, इसलिए जो भी फैसला होगा उसे वो
स्वीकार कर लेंगे।
सवाल: कुल मिलाकर पिछले दिनों विरोध का जो रूप दिखा,
उसमें बोर्ड की साख तो बिल्कुल गिर गई?
अजय ब्रह्मात्मज: जीहां, बिल्कुल
गिरी है बोर्ड की साख। बोर्ड ही क्यों उन सबकी साख गिरी है जोकि क्रिएटिव हैं।
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(अजय ब्रह्मात्मज वरिष्ठ फिल्म पत्रकार व चिंतक
हैं। इन्होंने सिनेमा पर कई पुस्तकें लिखी हैं। मुंबई
में निवास।)
नोट
- यह साक्षात्कार
विशेष रूप से ‘पिक्चर प्लस’ के लिए लिया गया है। अगर
आप इसे कहीं पुनर्प्रकाशित करना चाहते हैं तो पूर्व सूचना देना तथा प्रकाशित प्रति को हम तक
प्रेषित करना आवश्यक है।
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