‘माधुरी’ के संस्थापक-संपादक अरविंद कुमार से
जीवनीपरक
सिनेवार्ता;
भाग–बारह
मैंने स्लाइड रूल ख़रीदवाया।
हमारा संपादन विभाग स्थिर हो गया था। मेरे लिए
बहुत सारी चीज़ेँ नई थीँ। जैसे सैलो टेप, इसका इस्तेमाल किसी ब्लैक एंड व्हाइट चित्रों का
ऐसा फ़्रेम बनाना जिसका वांछित अंश दिखता रहे और उसका अवांछित चारों तरफ़ सफ़ेद
मोटे काग़ज़ से ढक दिया जाए। सैलो टेप एक बार बंद कर दो तो दोबारा खोलना मुझे भारी
लगता था।
ऐसा ही एक उपकरण था स्लाइड रूल। मैंने इसका नाम
तक नहीँ सुना था। यह काम आता था रंगीन फ़ोटुओं यानी ट्रांसपेरेंसियोँ के वांछित
अंश की ऊंचाई-चौड़ाई का आकलन करने के लिए। जैनेंद्र इसका अभ्यस्त था। विनोद और
आर.सी.जैन को ट्रेनिंग के दौरान इसके बारे मेँ समझाया गया होगा! ख़ैर,
बात यह है कि हमारे विभाग को यह दरकार था। हमलोग अपने आप कुछ नहीं ख़रीद सकते थे।
ख़रीद विभाग से कहना होता था। कहा, दो तीन दिन में आ गया। साथ में बिल था, जो
मुझे विभागाध्यक्ष के रूप मेँ पास करना था। मैँ कंपनी के क़ायदे क़ानून से अनजान
था। विभागोँ की कार्यसीमाओँ का भी पता नहीँ था। जो बिल आया वह रु. 128/- का
था। संयोगवश उसी दिन 'ब्लिट्ज़' के मुखपृष्ठ पर छपे विज्ञापन मेँ क़ीमत थी – रु.64/-;
मैं हैरत में था। मैंने सोचा सप्यालयर कंपनी ख़रीद विभाग को ठग रही है। तो मैंने वह
विज्ञापन बिल के साथ नत्थी करके वापस कर दिया। फ़ोन आया कि हमने दो स्लाइड रूल
भेजा है, वह किसी और कंपनी का है। आप वापस भेज दीजिए, हम
नया मंगवा देँगे। मेरा माथा ठनकने लगा। मैंने उस रूल के पीछे एक कोने मेँ अपना
निशान लगा दिया। जो नया रूल आया, उस पर मेरा निशान मौजूद था! साथ
ही ख़रीद विभाग के अध्यक्ष का फ़ोन भी आया, आप अपने काम से काम रखिए,
दूसरों को उनका अपना काम करने दें। मैं समझ गया कि मुझे अब चुप लगानी चाहिए।
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साधना : मोहक मुस्कान और हेयर कट से चर्चित |
जैनेंद्र फ़िल्मों का अच्छा जानकार निकला। मैंने जनरल मैनेजर श्री राय से कहा था मुझे चार कर्मियों
में एक वह चाहिए जो कंपनी मेँ कौन सा विभाग कहां है और उससे डील करना जानता हो, दो
बिल्कुल कोरे अनुभवहीन जिन्हें मैं अपने अनुसार ढाल सकूं और एक फ़िल्मों का जानकार।
जानकार के तौर मैंने हिंदी 'ब्लिट्ज़' के संपादक मुनीश नारायण की सिफ़ारिश पर मिले
महेंद्र सरल। पर फ़िल्म उद्योग के बारे में जैनेंद्र की अच्छी ख़ासी जान पहचान
निकली। वह निर्देशक आर. के. नैयर की टीम में रह चुका था। उसके पिताजी को लगा
कि लड़का फ़िल्मी माहौल मेँ बिगड़ जाएगा। राय से पहले टाइम्स के जनरल मैनेजर थे
जे.सी. जैन। वह जैनेंद्र के पिताजी के परिचित थे। उनके
कहने पर जे.सी. ने उसे‘ धर्मयुग’ में फ़िट कर दिया था। यह भारती जी को पसंद नहीँ
था। ‘माधुरी’ ज्वाइन करने का सर्कुलर मिला तो वह तत्काल आ गया।
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'मेरा साया' में साधना |
आर.के.नैयर के साथ वाले दिनोँ से बहुत
सारे कलाकार उसे निजी लैवल पर जानते थे। आर.के. नैयर की पहली फ़िल्म थी ‘लव
इन शिमला’। अपने समय की ज़बरदस्त हिट।
बाइस साल के नैयर और सोलह साल की साधना का प्रेम और विवाह स्वाभाविक था। साधना की
कुछ अविस्मरणीय फ़िल्में थीं – राज खोसला निर्देशित 1964 की ‘वो कौन थी’, 1966 की ‘मेरा साया‘ और 1967 की ‘अनीता’। बी.आर. चोपड़ा की ‘वक़्त’ में वह अब तक याद की जाती हैं।
बहुत कम लोगों को याद होगा कि राज कपूर की ‘श्री 420’ में गीत ‘मुड़ मुड़ के ना देख…’ में साधना चमकी थीं। जब साधना
फ़िल्मों से गईं तो कई क़िस्से सुनने मेँ आते थे। एक था साधना की आंखोँ की बिगड़ती
हालत का प्रचार। जो भी हो, मुझे तो यहां माधुरी की बात
करनी है...
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'वक्त' में साधना और राजकुमार |
जैनेंद्र के कल्पनाशील दिमाग़ मेँ एक से एक
आइडिया उछलता था। नाम से तो नहीं पर काम से वह एक तरह से सहायक संपादक ही बन गया
था। 'माधुरी' में उसे खुली छूट और अनवरत प्रोत्साहन मिला तो वह खुलकर आगे बढ़ा। अपनी
जान-पहचान के बल पर वह अनेक कलाकारों को बुलाता। पत्रिका में छपने की उनकी इच्छा
और 'माधुरी' का निमंत्रण हमारे लिए ही नहीँ पाठकों को भी पसंद आने लगा।
मेरे बाद जैनेंद्र फ़िल्मोँ मेँ चल गए। शुरुआत की
राज कपूर के साथ ‘बॉबी’ मेँ संवाद लेखक के तौर पर, वहीं
कई फ़िल्मेँ लिखीं। अनिल कपूर की पहली फ़िल्म ‘वो सात दिन’ भी जैनेंद्र ने लिखी थी। उसके बाद ढेर सारी
फ़िल्में लिखीं। आज वह हमारे साथ नहीँ है। मेरे पास उस का कोई फ़ोटो भी नहीँ है। 'माधुरी' में उसका योगदान मैं कभी नहीं भूलूंगा।
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सिनेवार्ता जारी है...
अगली कड़ी, अगले रविवार
संपर्क - arvind@arvindlexicon.com / pictureplus2016@gmail.com
(नोट : श्री अरविंद कुमार
जी की ये शृंखलाबद्ध सिनेवार्ता विशेष तौर पर 'पिक्चर प्लस' के लिए तैयार की गई है।
इसके किसी भी भाग को अन्यत्र प्रकाशित करना कॉपीराइट का उल्लंघन माना जायेगा। संपादक-पिक्चर प्लस)
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