सिनेमा
की बात
अजय
ब्रह्मात्मज /
संजीव श्रीवास्तव
क्या ‘दो आंखें बारह हाथ’, ‘दुश्मन’
और ‘अंधा कानून’
जैसी फिल्में आज नहीं बन सकतीं?
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'जॉली एलएलबी' का एक दृश्य |
संजीव श्रीवास्तव - अजय जी, आज हम आपसे हिंदी
फिल्मों में जज, वकील के किरदार, अदालती प्रक्रियाओं और फिल्मों में जजों के कुछ
यादगार फैसलों पर बातें करना चाहेंगे। सबसे पहले यह बतायें कि हमारा सिनेमा इस
गंभीर विषय को लेकर कितना गंभीर रहा है?
अजय ब्रह्मात्मज – देखिये, लोकतंत्र के चार बड़े
स्तम्भों में एक मजबूत स्तंभ न्यायपालिका है। लोकतंत्र में कोर्ट, कानून की बड़ी
भूमिका रहती है। लेकिन बात जहां तक सिनेमा की है तो यहां सबसे पहले यह ख़तरा रहता
है कि कहीं अदालत की अवमानना न हो जाये! हालांकि कई फिल्में ऐसी बनीं हैं जिनमें कानूनी प्रक्रियाओं
की उलझनों को लेकर फिल्मकारों ने कहानियां दिखाई हैं।
संजीव श्रीवास्तव – मुझे इस समय एक फिल्म की याद
आ रही है-‘वक्त’। बलराज साहनी की बड़ी ख्वाहिश होती है कि उसका
बेटा भी नामी बैरिस्टर बने।
अजय ब्रह्मात्मज – बैरिस्टर तो हमारे यहां एक
प्रतिष्ठित जॉब के तौर पर मान्य था। खुद महात्मा गांधी बैरिस्टर थे। आजादी के बाद
नया कानून बना और संविधान बना तो इसके स्वरूप में बदलाव आये। हमारा कोर्ट अधिक
लोकतांत्रिक हुआ। लेकिन फिल्मों में भी अदालती भाषा में कोई बदलाव नहीं आया।
अदालती भाषा डॉक्टरी भाषा से भी ज्यादा कठिन लगती रही है। यह ना तो मुजरिम को ठीक
से समझ आती है और ना ही आरोपी पक्ष को। पुरानी फिल्मों में हमेशा आमजन की भावना और
कोर्ट की कार्यवाही के बीच एक दूरी बनाकर रखने की कोशिश हुई है। लेकिन बाद के दौर
के फिल्मकारों ने इसे रियलिटी के करीब लाने का प्रयास किया तो ‘जॉली
एलएलबी’ जैसी फिल्म बनीं।
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चर्चित फिल्म थी 'दो आंखें बारह हाथ' |
संजीव श्रीवास्तव – इस
वक्त मुझे कुछ ऐसी फिल्में भी याद आ रही हैं जिनमें जजों के फैसले चौंकाने वाले
रहे हैं। ‘दो आंखें बारह हाथ’ या ‘दुश्मन’
जैसी सुधारवादी फैसले वाली फिल्मों को लें। बाद के दौर में किसी फिल्मकार ने ऐसा
साहस नहीं किया।
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'दुश्मन' में राजेश खन्ना |
अजय ब्रह्मात्मज - दरअलस वे लोग बहुत
ही विज़नरी डायरेक्टर थे। व्ही. शांताराम की ‘दो आंखें बारह हाथ’ की कहानी भी पहले कई
जगहों पर गई थी। लेकिन फिर भी फिल्म बनी। वह फिल्म तकनीकी तौर भी जटिल थी लेकिन
अपने कंटेंट को लेकर ज्यादा चर्चित रही हैं। फिल्म में एक फिलॉस्फी थी-कि आदमी
जन्मना अपराधी नहीं होता है-यही फिलॉस्फी ‘आवारा’ में भी दिखाई गई थी। ‘दो
आंखें बारह हाथ’ में खूंखार अपराधी को बदला जाता है। ‘दुश्मन’
में मुख्य किरदार राजेश खन्ना से अनजाने में हुए अपराध के बदले पीड़ित परिवार का
भरण-पोषण करने की सज़ा दी जाती है। लेकिन ‘अंधा कानून’ जैसी कुछेक फिल्मों में इस विषय को इस तरह से
दिखाया गया जो दर्शकों में रोमांच पैदा करनेवाला था।
संजीव श्रीवास्तव – ‘अंधा
कानून’ जैसी फिल्म तो अब शायद बन ही नहीं सकती। उस
फिल्म की कहानी और उसके चरित्रांकन तो सवालों के घेरे में आ जायेंगे।
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अंधा कानून : अमिताभ बच्चन और रजनीकांत |
अजय ब्रह्रमात्मज – निष्चय ही अब वैसी फिल्में
नहीं बन सकतीं। हिंदी फिल्मों में न्यायपालिका को लेकर दो चीज़ें बहुत ही पॉपुलर
रही हैं-एक तो ‘कानून के हाथ बहुत लंबे होते हैं’
दूसरे कि ‘कानून से कोई बच नहीं सकता’
या फिर ‘ये अंधा कानून है’ ; ये बेसिक फिलॉस्फी
है जोकि विरोधाभासी भी लगती है।
संजीव श्रीवास्तव – जैसाकि हम पहले जिक्र कर रहे
थे एक दौर में ‘वक्त’ जैसी फिल्म में बलराज साहनी अपने बेटे को नामी
बैरिस्टर के तौर पर देखना चाहते हैं लेकिन आज के दौर में ‘जॉली
एलएलबी’ जैसी फिल्में भी संभवत: आज
की रियलिटी को दिखाने का प्रयास करती हैं। बलराज साहनी का सोचना उस वक्त का आइडल
था लेकिन आज उसका स्वरूप बदल गया है।
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वरिष्ठ फिल्म पत्रकार अजय ब्रह्मात्मज |
अजय ब्रह्मात्मज – जी हां, समाज में धारणा बदलती
हुई दिखाई दे रही है और उसी धारणा के साथ फिल्में बन रही हैं। दरअसल आज निचले स्तर
से लेकर ऊपरी स्तर तक के कई फैसलों में आम लोगों को यह महसूस होने लगा है कि कुछ
न्यायधीश संविधान की धाराओं के तहत अब खुद ही न्याय नहीं कर पा रहे हैं। ऐसे में
हमारी कुछ फिल्मों में भी ऐसे चित्रण हो रहे हैं। इस धारणा को बल मिलना लोकतंत्र
के लिए खतरे की घंटी है।
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संजीव श्रीवास्तव |
संजीव श्रीवास्तव – आखिरी सवाल। क्या हमारे यहां
कोई ऐसी फिल्म बनी है जिसमें नायक ही जज हों? मुझे एक कॉमर्शियल फिल्म ‘जस्टिस
चौधरी’ की याद आती है। इसके अलावा कोई और? क्या
इस दिशा में हमारे फिल्मकारों को सोचना चाहिये?
अजय ब्रह्मात्मज – जज
के नायक वाली कोई फिल्म तो नहीं दिखाई दे रही है; हां, फिल्म में जज
का रोल कितना बड़ा हो सकता है इसे ‘जॉली एलएलबी’
पहले भाग में अच्छे से दिखाया गया है।
कहानी में जज के विवेक में बदलाव काफी अहम था। सुभाष कपूर ने काफी अध्ययन के बाद
इसे फिल्माया था। लेकिन मुझे लगता है आने वाले समय में किसी ना किसी को हालिया
न्याय जगत के प्रसंगों को आधार बनाकर अच्छी फिल्म डिजाइन करनी चाहिये।
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(अजय ब्रह्मात्मज
वरिष्ठ फिल्म पत्रकार व चिंतक हैं।
इन्होंने सिनेमा पर कई किताबें लिखी हैं। मुंबई
में निवास। संपर्क - 9820240504
संजीव श्रीवास्तव ‘पिक्चर
प्लस’ के संपादक हैं। दिल्ली में निवास।
संपर्क - pictureplus2016@gmail.com)
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