‘माधुरी’ के संस्थापक-संपादक अरविंद कुमार से
जीवनीपरक
सिनेवार्ता;
भाग–चौदह
जल्दी ही हम अगले भाग 15 मेँ पहुंच जाएंगे – यानी
28 जनवरी, जब मुझे ‘सुचित्रा’
(‘माधुरी’ का पहला नाम) के
पहले अंक की बात करनी है। अपने सहकर्मियों में मैं जैनेंद्र की बात कर चुका हूं।
इस बार ट्रेनी आर.सी. जैन और विनोद तिवारी की बात
करूंगा। दोनोँ ही आज जिसे उत्तराखंड कहते हैं, उस क्षेत्र से आए थे। आर.सी. वहां के शहर श्रीनगर
से आया था। कमसिन था। जो कहो, करने को तत्पर रहता था। फ़िल्मोँ की चकाचौंध और
ग्लैमर में वह खोया-खोया महसूस करता था। ‘माधुरी’ में ज़्यादा टिक नहीँ पाया। घर की याद भी एक
कारण रही होगी! मेरे ख़्याल से उसके चले जाने का एक कारण बनी थी—अभिनेत्री
कल्पना! कल्पना को मैं दिल्ली से जानता था। वह स्वतंत्रता सेनानी श्री अवनि मोहन
की बेटी थीं। कत्थक नर्तकी थीं। मंच नाटकों में अभिनय करती थीं। ‘शकुंतला’ नृत्यनाटिका
में शकुंतला बनी थीं और प्रसिद्ध हो गई थीं; उसकी पहली फ़िल्म थी ‘प्रोफ़ेसर’, जिसके
नायक थे शम्मी कपूर, निर्देशक लेख टंडन।
![]() |
फिल्म 'प्रोफेसर' में कल्पना और शम्मी कपूर |
बाद मेँ वह शशि कपूर और किशोर
कुमार के साथ ‘प्यार किए जा’, देव आनंद के साथ ‘तीन देवियां’ आदि फ़िल्मोँ में आईं। कल्पना की पहली शादी लेखक शचिन
भौमिक से हुई थी। एक बार हमने पूछा कि शचिन को क्यों चुना तो उसने कहा था, “सब मुझे छेड़ते थे, एक वह शराफ़त से पेश आता था।” बाद में उसने शचिन पर अशक्त
होने का आरोप लगा कर शादी तोड़ दी थी।
![]() |
मशहूर फिल्म लेखक शचिन भौमिक |
शचिन भौमिक ने ‘अनुराधा’
(1960), ‘आई मिलन की बेला’ और
‘जानवर’ (1965), ‘लव इन टोकियो’ (1966), ‘ऐन ईवनिंग इन पैरिस’ (1967),
‘ब्रह्मचारी’
(1968), ‘आया सावन झूम के’ (1969) के बाद ‘आराधना’,
फिर ‘आन मिलो सजना’ (1970), ‘कारवां’ (1971), ‘बेईमान’ (1972),
‘दोस्त’ (1974), ‘खेल खेल में’ (1975), ‘हम किसी से कम नहीँ’ (1977), ‘गोलमाल’ (1979),
तमिल की ‘थिल्लु मुल्लू’ (गोलमाल का रीमेक)
(1981), ‘कर्ज़’ (1990), ‘दो और दो पांच’ (1980), ‘बेमिसाल’ (1982), ‘ज़माने
को दिखाना है’ (1981), ‘नास्तिक’ (1983), ‘अंदर बाहर’ (1984), ‘साहब’ (1985), और फिर ‘मैं खिलाड़ी तू अनाड़ी’ (1994), ‘करण
अर्जुन’ (1995), ‘कोयला’ (1997), ‘सोल्ज़र’ (1998), ‘आ अब लौट चलें’ (1999) और ‘ताल’ (1999), के
बाद इस सदी में ‘कोई मिल गया’ तथा ‘कृष’ जैसी फ़िल्में लिखी थीं। उनका देहांत सन् 2011 के
अप्रैल में हुआ।
मैं कल्पना के साथ एक फ़ोटो शूट करवाना चाहता था।
मैंने कहा कि “तुम मरदाने बारीक़ लखनवी कुरते में आओगी”।
वह मेरा अकथित आशय समझ गई। कुरते में से झांकता गदराया बदन। राज़ी भी हो गई। पास
के पहाड़ी इलाक़े में फ़ोटो करवाने थे। मैंने इस शूट का भार कोमलमनस्क आर.सी. जैन
को दिया था। लौटा तो वह विचलित था। शायद नारी सौंदर्य उस पर भारी पड़ा था। वह घर
लौटने की बातें करने लगा। पूछा कि वहां क्या करोगे, बोला,
“श्रीनगर
में जूतों की दुकान खोलूंगा। घर वाले भी यही चाहते हैँ।” वह
चला गया। बाद में उससे संपर्क नहीं रह पाया।
‘माधुरी’
में मेरे प्रिय सहकर्मी :-
-मेरे सभी साथियों में से अचलायमान, स्थिरबुद्धि
और टिकाऊ निकले विनोद तिवारी। कैसे भी प्रलोभन में नहीं पड़ते थे।
कुछ रोचक बातें पहले-
राम औरंगाबादकर मुझसे कहते कि मीना कुमारी चाहती
हैं कि ‘माधुरी’ वाले अपना गोरा नौजवान प्रतिनिधि भेजा करें। एक
बार धर्मेंद्र की ओर से प्रस्ताव आया कि विनोद उसकी बहन से शादी कर ले। कोई और
होता तो बहक जाता। विनोद ने साफ़ इनकार कर दिया। वह अपना ही रहना चाहता था।
पुणे की फ़िल्म इंस्टीट्यूट मेँ फ़िल्म समीक्षा
पर एक महीने का कोर्स था। मैंने विनोद को वहां भेजा था। वहां उसे फ़िल्मांकन की हर
विधि की जानकारी मिली।
फिर विनोद ने और मैंने कई सफल योजनाएं बनाईं।
घरों से भाग कर बंबई पहुंच कर फ़िल्मों में कुछ बनने की चाह में सड़कों पर रहने
वाले हमने बहुत देखे थे। मेरे कहने पर विनोद ने लेखों की सीरीज़ लिखी – ‘फ़िल्मों
में प्रवेश के सही रास्ते’। उसका विषय था-फ़िल्मों के किसी भी विभाग के लिए
किस तैयारी के साथ आना चाहिए। उसके शायद इकतालीस लेख छपे। लोकप्रिय हुए। बाद में
प्रकाशक राजपाल ने वह पुस्तक रूप में छापने के लिए मांग ली।
![]() |
वरिष्ठ फिल्म पत्रकार विनोद तिवारी |
मुझसे पूछा जाए कि ‘माधुरी’ के
किस एक लेख को आप श्रेष्ठ मानते हैं तो मैं कहूंगा कि ‘विनोद
तिवारी का अर्जुन देव रश्क पर चार पन्नों का लेख’। हम जैसे सामान्य
लोगों से उतना ही भिन्न थे रश्क, जितना हमसे राम औरंगाबादकर, और
राम औरंगाबाद से बिल्कुल अलग थे रश्क। उनसे मिल कर विनोद के मन में जो विस्मय जागा
होगा, वही उसने लिखा था। रश्क ऐसा लोकप्रिय और बड़ा
लेखक था जो बच्चे पालना इल्लत समझता था और पैदा होने पर किसी न किसी अनाथालय के
बाहर कई संतान डाल आया था। पर एक समय ऐसा भी आया, जब कम से कम एक बेटी
उसने नहीं फेंकी। वह बेटी मुझे मेरे बंबई छोड़ आने के बाद किसी राजनीतिक गहमागहमी
में मिली थी – तब जब एक बार फिर इंदिरा गांधी सत्ता में आई थीं।
रश्क का दिमाग़ पता नहीँ कैसे चलता था – फ़िल्म
के संवादों में जो रंग वह भरता, कोई और नहीं कर सकता था। मीना कुमारी, राजकुमार
और राजेंद्र कुमार वाली ‘दिल एक मंदिर’ की जान थे रश्क के संवाद। वह Highest Rated माने
जाते थे। राज कपूर की ‘जिस देश में गंगा बहती है’ की कहानी
रश्क की ही थी। साथ ही लिखी थीं ‘ऊंचे
लोग’, ‘अंबर’, ‘आशियाना’। और लिखे थे ‘नया दौर’ के संवाद।
जब मैँ नेपियन सी रोड की प्रेममिलन बिल्डिंग की
सातवीं मंज़िल पर रहता था, तो एक दिन रश्क गायक जगजीत सिंह के साथ पधारे, कहा, “इन्हें
गाने के लिए अपनी कविताएं दो.” मैं छंदबद्ध कुछ लिखता नहीं था। जो
कुछ लिखा था वह विवादास्पद था। मैंने समझाया तो दोनों सहमत हो गये।
इसी तरह एक घनी बरसाती अधरात उन्होंने दरवाज़ा
खटखटाया। साथ में उन्हीं की तरह के तीन-चार लोग थे। रश्क ने बताया कि वे नीचे की
किसी मंज़िल पर किसी फ़िल्म पर काम कर रहे हैं। बाहर डिनर करने गये, तब
तक सब रेस्तरां बंद हो चुके थे। गरमागरम परांठे खिलवा दें। कुछ देर बाद अचार संग
परांठे खाकर संतुष्ट हो विदा हुए, बार बार धन्यवाद करते हुए।
000
सिनेवार्ता जारी है...
अगली कड़ी, अगले रविवार
संपर्क - arvind@arvindlexicon.com / pictureplus2016@gmail.com
(नोट : श्री अरविंद
कुमार जी की ये शृंखलाबद्ध सिनेवार्ता विशेष तौर पर 'पिक्चर प्लस' के लिए तैयार की गई है।
इसके किसी भी भाग को अन्यत्र प्रकाशित करना कॉपीराइट का उल्लंघन माना जायेगा। संपादक-पिक्चर प्लस)
वाह !!.... क्या दौर....., क्या लोग !!
जवाब देंहटाएं.....बहुत ख़ूब !!💐😊💐