‘माधुरी’ वार्ता, भाग 17
'सुचित्रा' के 'माधुरी' बनने की EXCLUSIVE कहानी
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फोटो : 'माधुरी Madhuri' फेसबुक पेज से साभार |
*विनोद तिवारी
सन् 1950 से
लेकर 1990
तक का समय हिंदी पत्रकारिता के लिए बड़े परिवर्तनों का समय रहा।
हालांकि कहा यही जाता है कि स्वतंत्रता प्रापित के बाद भारतीय पत्रकारिता दिशाहीन
हो गर्इ लेकिन यह भी सच है कि इस दौर में जितनी पत्र-पत्रिकाएं प्रकाशित हुर्इं और
कुछ पत्रिकाओं की प्रसार संख्या जिस ऊंचार्इ तक पहुंची वह सभी कुछ अभूतपूर्व था।
इस प्रकार क्रांति के कारणों का उल्लेख हमारा विषय नहीं। यहां
चर्चा का विषय है फिल्म पत्रकारिता की दृषिट से इस कालखंड की सबसे
बड़ी उपलबिध-फिल्म पत्रिका 'माधुरी का प्रकाशन
जिसने फिल्म पत्रकारिता को सही दिशा देकर उसे उसकी सीमाओं से बाहर निकाला और यह
साबित कर दिखाया कि उन संस्कारी परिवारों में भी, जिनकी
नजर में सिनेमा निकृष्ट रुचि का परिचालक था, कोर्इ
फिल्म पत्रिका पारिवारिक साबित हो सकती है। 'माधुरी
का घोष वाक्य यही था जिसे उसने सच कर दिखाया-'पारिवारिक
फिल्म पत्रिका।
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विनोद तिवारी |
'माधुरी का जन्म जनवरी 1964
में उस समय हुआ जब हिंदी सिनेमा के प्रति चला आ रहा दुराग्रह कम हो
गया था। सिनेमा को सरकारी तथा गैरसरकारी प्रश्रय प्राप्त होने लगा था और सामाजिक
तौर पर इस माध्यम की शकित को पहचानकर प्रतिष्ठा दी जाने लगी थी। लेकिन पत्रकारिता
के क्षेत्र में सर्वाधिक सफल और मान्य संस्था 'द
टाइम्स आफ इंडिया प्रकाशन समूह (बेनेट कोलमैन एंड कंपनी) द्वारा हिंदी में फिल्म
पत्रिका प्रकाशित करने का फ़ैसला उक्त कारणों से नहीं लिया गया। इसके पीछे जो
भावना थी उसने सिर्फ हिंदी फिल्म पत्रकारिता को ही नहीं पूरी हिंदी पत्रकारिता को
ही असीम लोकप्रियता और प्रतिष्ठा प्रदान की।
उन दिनों इस संस्था के
सर्वेसर्वा थे उधोगपति शांतिप्रसाद जैन। वे स्वयं तथा उनकी पत्नी श्रीमती रमारानी
जैन दोनों ही साहित्यप्रेमी थीं। साहित्य के प्रति अनुराग से कहीं ज्यादा बड़ी थी
वह भावना जो हर उधोगपति में नहीं होती। वे यह मानते थे कि हर व्यकित की समाज के
प्रति कोर्इ-न-कोर्इ जिम्मेदारी होती है। जिसकी सामर्थ्य जितनी बड़ी हो,
उसे उतनी ही बड़ी जिम्मेदारी निभानी चाहिए। इसी विचार के अनुरूप
उन्होंने यह तय किया था कि चूंकि अपने अन्य उधोगों के अलावा वे पत्र-पत्रिकाओं के
प्रकाशन से भी जुड़े हैं, उन्हें ऐसे हर क्षेत्र
में एक स्वस्थ तथा सुरुचिपूर्ण पत्रिका प्रकाशित करनी है जिसमें जनसामान्य की रुचि
हो सकती है। सारिका, पराग,
वामा, खेल जगत,
दिनमान जैसी अत्यंत लोकप्रिय हिंदी पत्रिकाएं उन्हीं की प्रेरणा से
प्रकाशित हुर्इं और उन्होंने ही यह भी सुनिशिचत किया कि हर पत्रिका के लिए ऐसे
व्यकित को संपादक चुना जाए जो अपने क्षेत्र का विशिष्ट व्यकितत्व हो।
सिनेमा भी उनकी नजर से छूटा नहीं रहा।
टाइम्स ऑफ इंडिया प्रकाशन समूह से हालांकि फिल्म की एक पत्रिका 'फिल्मफेयर
निकल ही रही थी लेकिन वह चूंकि अंग्रेजी में थी, हिंदी
पाठकों को ध्यान में रखते हुए हिंदी की अच्छी फिल्म पत्रिका के प्रकाशन की योजना
बनी। शुरू में इस योजना का प्रबल विरोध हुआ। कहा यह गया कि फिल्म पत्रिका निकालना
कोर्इ वैसी प्रतिष्ठा की बात नहीं है जैसी किसी अन्य विषय,
जैसे-खेल या साहित्य पर पत्रिका प्रकाशन। उदाहरण के लिए दिल्ली से
प्रकाशित हो रही उन सब पत्रिकाओं का हवाला दिया गया जिनको संस्कारी परिवारों ने
अपनी परिधि से बाहर रखा। लेकिन यही तर्क फिल्म पत्रिका के प्रकाशन के पक्ष में भी
गया, कोर्इ ऐसी अच्छी फिल्म पत्रिका क्यों न हो जो
परिवारों में भी पैठ बना सकें?
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अरविंद कुमार |
यह एक बड़ी चुनौती थी। कंपनी की पत्रिका 'फिल्मफेयर
ने लोकप्रियता और प्रतिष्ठा दोनों अर्जित किए हुए थे लेकिन अंग्रेजी पाठक को जो
स्तर होता है, वही हिंदी पाठकों के अनुकूल
भी होगा, इसमें सभी को शक था। फिल्मी
पत्रिकाओं का पाठकवर्ग ही अलग माना जाता था जिसकी अभिरुचि तस्वीरें देखने,
फिल्म की कहानी और सिने कलाकारों के बारे में चटपटी बातें पढ़ने से
ऊपर नहीं होतीं। यह भी माना जाता था कि ये पत्रिकाएं थोड़ी देर का मन बहलावा होती
हैं जिनके सबसे ज्यादा खरीददार ट्रेनों और बसों में सफर करने वाले वे यात्री होते
हैं जिनके लिए सफर के दौरान समय काटना एक समस्या होती है। वे इसी उददेश्य की
पूर्ति के लिए ये पत्रिकाएं पढ़ते हैं और सफर पूरा होने पर उन्हें वही,
बस या ट्रेन में छोड़ जाते हैं, घर
नहीं ले जाते। क्या टाइम्स ऑफ इंडिया प्रकाशन समूह इसी पाठक-वर्ग के बीच जाना
चाहता है?
बड़ी चुनौती
टाइम्स ने इस चुनौती को स्वीकार किया। उन दिनों कंपनी के हिंदी
प्रकाशनों तथा बाहर के भी तमाम प्रकाशनों में ऐसे अनेक व्यकित थे जो फिल्म
पत्रकारिता से जुड़े हुए थे और इस क्षेत्र में पर्याप्त अनुभवी भी थे। जब यह बात
सार्वजनिक होने लगी कि टाइम्स ऑफ इंडिया प्रकाशन समूह हिंदी में फिल्म पत्रिका
प्रकाशित करने जा रहा है तो उन उम्मीदवारों की भीड़ लग गर्इ जो इसके संपादक होना
चाहते थे और अगर संपादक का पद न मिले तो पत्रिका के स्टाफ में ही रख लिया जाए।
टाइम्स ग्रुप का निश्चय ऐसी फिल्म पत्रिका
निकालने का था जो अब तक की सभी फिल्म पत्रिकाओं से अलग हो। सोचा यह गया कि अगर
किसी ऐसे व्यकित को संपादक ले लिया जाता है जो पहले से किसी फिल्म पत्रिका में काम
कर रहा हो या कर चुका हो तो निश्चय ही वह उस पत्रिका के सोच के दायरे में बंधा
होगा। क्या वह उससे अलग हटकर कोर्इ दृषि्टकोण विकसित कर सकेगा?
क्या उसके अब तक के अपने पूर्वग्रह पत्रिका में परिलक्षित नहीं होंगे?
क्या तब नर्इ पत्रिका सचमुच नर्इ रह सकेगी?
इस बारे में अलग-अलग लोगों की धारणा अलग हो सकती है और बहुत से लोग यह
कह सकते हैं कि यह तो अनुभव की महत्ता को नकारने जैसी बात है। अनुभवी व्यकित ही नए
काम को ज्यादा सही ढंग से अंजाम दे सकता है। लेकिन इस तर्क को अहमियत नहीं दी गर्इ
और ऐसे व्यकित को संपादक बनाने का निश्चय हुआ जो पत्रकार तो हो लेकिन फिल्म पत्रकारिता
से पहले से जुड़ा हुआ न हो और फिल्म पत्रकारिता के बारे में अपना एक अलग नजरिया
रखता हो।
आगे बढ़ने से पहले,
यहां पर इस विचारधारा पर कुछ चर्चा कर लेना उपयर्युक्त होगा।
पत्रकारिता के हर विधार्थी को अपने मन में एक बात हमेशा सोचनी चाहिए-अगर मुझे कभी
किसी पत्र या पत्रिका का संपादक बना दिया जाए तो मैं उसमें ऐसा क्या नया दे
सकूंगा/ सकूंगी जो उसमें या किसी दूसरी पत्रिका में अब तक न आया हो। मेरा
पत्र-पत्रिका दूसरों से किस तरह अलग नजर आ सकता है? नया
कुछ दे सकने, पत्र-पत्रिका को नया रंग-रूप
दे सकने के बारे में सोचते रहने की यह प्रक्रिया निरंतर चलती रहनी चाहिए और अंतत:
आदत बन जानी चाहिए। यह सोचना गलत होगा कि जिस दिन मौका आएगा,
उस दिन देखी जाएगी, अगर सोचने की यह आदत न
बनी तो जिस दिन मौका आएगा, उस दिन कुछ भी नही
सूझेगा, जो अखबार आप पढ़ते हैं,
उसमें क्या कमी है या उसमें क्या परिवर्तन करके उसे ज्यादा आकर्षक
बनाया जा सकता है, यह अखबार या पत्रिका पढ़ने की
प्रक्रिया का एक अंग बन जाना चाहिए।
टाइम्स ऑफ इंडिया की नर्इ फिल्म पत्रिका के लिए जिन लोगों का इंटरव्यू
हुआ उनमें से कोर्इ इस कसौटी पर खरा नहीं उतरा सिवा अरविंद कुमार के। अरविंद जी उन
दिनों दिल्ली से प्रकाशित होने वाली पत्रिका 'सरिता
में काम कर रहे थे। उन्होंने नर्इ फिल्म पत्रिका का जो ब्ल्यू प्रिंट टाइम्स ऑफ
इंडिया के मैनेजमेंट के सम्मुख पेश किया वह सबको इतना पसंद आया कि उन्हें संपादक
नियुक्त कर दिया गया। यहां यह स्पष्ट कर देना जरूरी है कि इसके पहले अरविंद कुमार
का फिल्म पत्रकारिता से कोर्इ लेना-देना नहीं था लेकिन इसके बारे में एक सोच अवश्य
थी जिस पर किसी और की किसी तरह की छाप नहीं थी। अपनी सोच को वे अपने ढंग से
प्रस्तुत करने की आजादी चाहते थे, जो उन्हें मिली और
उन्होंने यह साबित कर दिया कि नर्इ सोच किस तरह चली आती धारा को बदल सकती है।
'चलता है’
को भूल जाएं
अरविंद जी इस बात की छूट भी दी गर्इ कि वे अपनी पत्रिका के लिए स्टाफ
का चुनाव कर लें। वे फिल्म पत्रकारिता में नए थे और इसलिए यह संभावना व्यक्त की जा
रही थी कि वे स्टाफ में फिल्म पत्रकारिता से जुड़े लोगों को अवश्य लेंगे। लेकिन
अरविंद कुमार के सामने अपना रास्ता स्पष्ट था। वे अनुभवी लोगों को लेकर पत्रिका
निकालने के बजाए नए लोगों को लेकर काम शुरू करना चाहते थे ताकि उन्हें अपने ढंग से
प्रशिक्षित कर सकें और उनसे अपने ढंग का काम करवा सके। नये पत्रकारों को इससे यह
सबक लेना चाहिए कि कैरियर की शुरुआत मे वे जल्दबाजी न करें और कहीं काम करने से
पहले यह देख लें कि उस पत्रिका का स्तर क्या है जिससे वे जुड़ने जा रहे हैं और जिन
लोगों के अंडर में उन्हें काम करना है, उनकी
क्या प्रतिष्ठा है। प्रारंभ में अगर गलत जगह चले गए और वहां की कार्य-प्रणाली में
ढल गए तो बड़े प्रकाशन आपको स्वीकार करने से कतरा सकते हैं। बहुत छोटे या सामान्य
स्तर के या सामान्य व्यकितयों द्वारा चलाए जा रहे प्रकाशनों में क्वालिटी पर कम
ध्यान दिया जाता है और भाषा की अशुद्धियां, वाक्य
रचना, विराम चिह्नों के समुचित
प्रयोग आदि की कमियों को 'चलता है कहकर नजरअंदाज
कर दिया जाता है क्योंकि इन्हें सुधारने का अर्थ है श्रम,
समय और धन तीनों की आवश्यकता। जब एक बार इन्हें नजरअंदाज करके काम
चलाने की आदत पड़ जाए तो फिर उसे सुधारना सहज संभव नहीं होता।
इसे उन दिनों की स्वस्थ पत्रकारिता का प्रभाव मानना चाहिए कि अच्छी
पत्रिकाओं में सही भाषा के प्रयोग, विराम
चिह्नों के समुचित उपयोग और व्याकरण पर पर्याप्त ध्यान दिया जाता था। यह बात तो आज
भी कही जाती है कि किसी को अपनी भाषा सुधारनी हो तो उसे उस भाषा की पत्र-पत्रिकाएं
पढ़नी चाहिए लेकिन अब उस स्तर की पत्रिकाएं कम ही दिखार्इ देती हैं जिनमें भाषा के
सही संस्कार हों। 'माधुरी के प्रकाशन के
प्रारंभ से ही भाषा तथा नामों को लेकर नीतियाँ स्पष्ट कर दी गर्इ थीं ताकि कहीं
कुछ तो कहीं कुछ न प्रकाशित हो। ये नीतियां बनाने में भी पर्याप्त समय लगाया गया
था ताकि अगर कभी विवाद की सिथति पैदा हो तो अपना पक्ष स्पष्ट तौर पर प्रस्तुत किया
जा सके। इस तरह की मेहनत करने की जरूरत भला कितने पत्रकार करते हैं और कितनी
पत्रिकाएं इस बारे में सोचना आवश्यक समझती हैं? पत्रकारिता
का प्रशिक्षण पा रहे अथवा कैरियर शुरू कर रहे हिंदी पत्रकारों को यह समझ लेना
चाहिए कि अगर वे सुदृढ़ नींव और स्पष्ट राह चाहते हैं तो प्रतिषिठत व्यकितयों,
जगहों, पार्टियों आदि के
नामों और मात्राओं, विरामचिह्नों,
शब्दों के प्रयोग के बारे में पहले आश्वस्त हो लें और फिर उनमें
निरंतर एकरूपता बनाए रखें। यह बात राजनीतिक अथवा साहित्यिक पत्रकारिता के लिए
जितनी सही है, उतनी ही,
बल्कि उससे भी ज्यादा फिल्म पत्रकारिता के लिए जरूरी है क्योंकि फिल्म
जगत के लोग अपने अंधविश्वासों के कारण रोमन लिपि में अपने नाम के स्पेलिंग कुछ विचित्र
ही लिखते हैं अथवा उन्हें न्यूमरोलॉजी के चक्कर में तोड़ते-मरोड़ते रहते हैं। यही
हाल फिल्मों के नाम को लेकर भी होता है।
अपने स्टाफ के लिए अरविंद कुमार ने बिल्कुल नए लोगों का चयन किया। 'टाइम्स
ऑफ इंडिया ने 1962
में पत्रकारों के समुचित प्रशिक्षण के लिए एक अनूठी योजना शुरू की थी
जिसके अंतर्गत उन लोगों में से प्रशिक्षण के लिए चुनाव किया जाता था जिन्होंने हाल
ही में ग्रेजुएशन या पोस्ट ग्रेजुएशन किया हो और जो पत्रकारिता में गहरी रुचि रखते
हों। राष्ट्रीय स्तर की प्रतियोगिता के आधार पर इनका चुनाव किया जाता था और फिर
उन्हें एक साल तक हर तरह का प्रशिक्षण देकर कंपनी की विविध पत्र-पत्रिकाओं में
नियमित स्टाफ के तौर पर ले लिया जाता था। अरविंद जी ने अपने स्टाफ के सबसे पहले दो
सदस्य इसी स्कीम से प्रशिक्षित पत्रकारों में से लिए थे। एक थे रमेश जैन और दूसरा
मैं स्वयं-विनोद तिवारी।
जब टाइम्स ऑफ इंडिया प्रकाशन समूह ने नर्इ फिल्म पत्रिका की योजना
बनार्इ और अरविंद जी की नियुकित हो गर्इ, तब
पत्रिका का नाम नियम किया गया, 'सुचित्रा'।
बड़े पैमाने पर इस नाम का प्रचार किया गया और पत्रिका का मास्टहैड बड़ी मेहनत से
तैयार हुआ। सुरुचि और चलचित्र का संगम सुचित्रा।
नाम का विरोध
जिन दिनों यह नर्इ पत्रिका आकर ले रही थी,
उन्हीं दिनों दिल्ली से एक पत्रिका प्रकाशित हो रही थी जिसका नाम था 'चित्रा'।
उसके प्रकाशनों को सचमुच यह आशंका हुर्इ कि 'सुचित्रा'
नाम की पत्रिका आ जाने से उनके प्रकाशन को क्षति पहुंचेगी,
या फिर किसी ने उसके मन में यह धारणा बिठा दी हो कि अगर टाइम्स ऑफ
इंडिया पर अपनी पत्रिका का नाम 'सुचित्रा'
रखने के खिलाफ कोर्ट केस कर दिया जाए तो यह प्रकाशन समूह आउट आफ कोर्ट
समझौता करके, अर्थात् पर्याप्त पैसा देकर
भी यह नाम अपने पास रखना चाहेगा, यह कहा नहीं जा सकता।
उनकी विचारधारा और दृषिटकोण कुछ भी रहा हो, उन्होंने
इस नाम की पत्रिका निकालने के खिलाफ टाइम्स ऑफ इंडिया पर केस कर दिया।
प्रकाशन समूह के सामने यह एक समस्या खड़ी हो गर्इ। पत्रकारिता जगत में
इसे एक तरह का ब्लैकमेल ही माना गया। पत्रिका के प्रकाशन की सारी तैयारियां हो
चुकी थीं। 'सुचित्रा'
के नाम का टाइम्स ऑफ इंडिया की प्रतिष्ठा के अनुकूल ही विस्तृत प्रचार
हो चुका था। वितरकों, विज्ञापन एजेंसियों,
उत्सुक पाठकों के बीच एक छवि स्थापित की जा चुकी थी और फिल्म जगत इस
नर्इ पत्रिका का इंतजार कर रहा था। जैसा कि सभी जानते हैं,
कोर्ट केसों का फ़ैसला आनन-फानन में नहीं होता। उन्हें निपटाने में
लंगा समय लग जाता है। तो क्या 'सुचित्रा का प्रकाशन
लंबे समय के लिए स्थगित कर देना पड़ेगा? या
फिर उस कूटनीति के सामने घुटने टेक देने पड़ेंगे जिसे सभी की राय ब्लैकमेलिंग का
तरीका बता रही है जिसका उददेश्य बड़ी पार्टी से पैसा ऐंठने के अतिरिक्त कुछ नहीं!
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'सुचित्रा' नाम से एक ही अंक निकल सका |
यहां इस मसले को थोड़ा विस्तार इसलिए दिया जा रहा है कि संपादकों,
पत्रकारों के सामने ऐसे मसले समय-समय पर आते रहते हैं जिनमें उन्हें
तुरंत निर्णय के लिए बाध्य होना पड़ता है। आदर्शों की आड़ में स्वार्थ तनकर खड़े
हो जाते है, जो ऐसी सिथति पैदा कर देते
हैं जहां अनैतिकता को अपनाने के अलावा कोर्इ चारा दिखार्इ नहीं देता। यही
पत्रकारों के लिए फैसले की घड़ी होती है। यही विषय परिसिथतियां उन्हें तपाती हैं
आर यह स्पष्ट करती है कि वे किस मिटटी के बने हैं। वे विपरीत सिथतियों के सामने
अविचलित खड़े रहेंगे या ढह जाएंगे! एक बार अगर गलत तत्त्वों के साथ समझौता कर लिया
तो वे फिर बार-बार नए तरीकों के साथ सामने आते रहेंगे क्योंकि वे आपकी कमजोर नस को
पहचान चुके होते हैं और अगर आप तपे सधे, दृढ़
निश्चयी साबित हुए तो वे दोबारा सामने आने का साहस नहीं कर सकेंगे क्योंकि दरअसल
तो उनमें कोर्इ नैतिक साहस होता ही नहीं, वे
सिर्फ अवसरवादी होते हैं।
तो फिर टाइम्स ऑफ इंडिया ने क्या किया? अगर
संस्था उस वक्त झुक गर्इ होती तो आज 'माधुरी
नाम को वह प्रतिष्ठा प्राप्त न हुर्इ होती जो उस फिल्म पत्रिकाओं के इतिहास में
सर्वोच्च स्थान दिलाए हुए है। कंपनी तथा उसके द्वारा नियुक्त संपादक को इस बात का
भरोसा था कि हालांकि पत्रिका का नाम, बड़ी
सोच-समझ के साथ रखा गया है लेकिन पत्रिका की सफलता के प्रति सारा विश्वास सिर्फ
उसके नाम को लेकर नहीं है। बड़ी परीक्षा तो पत्रिका की सामग्री और उसके
प्रस्तुतीकरण की होगी। तो फिर मुकदमे के दबाव में आकर पत्रिका का प्रकाशन स्थगित
करने की क्या जरूरत है? अगर हमें अपनी पत्रिका
की सुगंध पर भरोसा है तो उसे किसी भी नाम से पेश किया जाए,
उसका गुण कम होने वाला नहीं।
इस सारे झमेले के बीच पत्रिका का पहला अंक 'सुचित्रा’
नाम से प्रकाशित हुआ जिसके मुखपृष्ठ पर उस समय की बेहतरीन अभिनेत्री
मीना कुमारी का चित्र दिया गया था। और जब तक पत्रिका पर मुकदमे का कोर्इ विपरीत
प्रभाव पड़े, उसका नाम बदलकर 'माधुरी'
कर दिया गया। पत्रिका इस नाम से प्रकाशित होने लगी। उधर मुकदमा अपनी
राह चलता रहा और अंतत: फ़ैसला टाइम्स ऑफ इंडिया के प़क्ष में हुआ। ''आप
'सुचित्रा' नाम
से पत्रिका का प्रकाशन जारी रख सकते हैं।”
मैं नए पत्रकारों से पूछता हूं, इस
स्थिति में आप क्या फ़ैसला करते? वापस 'सुचित्रा'
या फिर 'माधुरी'?
*(विनोद तिवारी 'माधुरी'
के अरविंद कुमार के बाद संपादक बने थे। मुंबई में
निवास। इस
बार का स्तंभ उन्होंने विशेष रूप से अरविंद जी के अनुरोध पर भेजा है। अगली बार से
अरविंद जी का स्तंभ जारी रहेगा।)
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