‘माधुरी’ के संस्थापक-संपादक अरविंद कुमार से
जीवनीपरक सिनेवार्ता;
भाग-उन्नीस
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अरविंद कुमार |
जुहू का रेतीला सागर तट। नवंबर-दिसंबर
सन् 1963 की कोई शाम। लगभग रात 8-9 बजे। सुहानी स्फूर्ति भरने वाली समुद्री हवा।
रौनक़।
मेरी पहली यादगार मुलाक़ात। किसी
रेस्तरां की मेज़ पर एक प्रभावशाली आदमी। मेरे साथ जो थे, वह ठिठके। मैँ
पहचानता नहीं था, मेरे साथी ने परिचय कराया। हरींद्रनाथ
चट्टोपाध्याय। मैँ उनके अर्धराजनीतिक जीवन से परिचित था। नाटककार, लेखक और कवि के रूप मेँ उन्हेँ जानता था। यह भी जानता था कि वह स्वतंत्रता
संग्राम की प्रमुख सेनानी कवियित्री भारतकोकिला सरोजिनी नायडू के छोटे भाई हैँ।
उन्होँने बड़े प्यार से सामने बैठाया। मेरे चेहरे पर जो हर्ष, प्रशंसा, ख़ुशक़िस्मती का भाव था–वह साफ़ था। फ़िल्मोँ मेँ उनके काम के बारे मेँ मैँ पूरी तरह अनजान था, जबकि वह गुरुदत्त की ‘साहब बीबी और ग़ुलाम’ (1962) मेँ घड़ी बाबू, 1963 की देव आनंद की ‘तेरे घर के सामने’ मेँ सेठ करमचंद और इस्माइल
मर्चैंट की ‘घरबार (द हाउस होल्डर)’ मेँ मिस्टर चड्ढा बन चुके थे।
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हरींद्रनाथ चट्टोपाध्याय |
मैँ यूंही पूछ बैठा,“आजकल क्या कर रहे हैँ?” मेरा मतलब था
आजकल क्या लिख पढ़ रहे हैँ। उन्होंने मतलब फ़िल्मोँ मेँ काम से लगाया, कहा, “आजकल वक़्त ख़राब चल रहा है।” मैँ चौँका।
अचकचाया। अविश्वास से, उलाहने के स्वर मेँ बोला,“दिल्ली मेँ आप की ‘सूर्य अस्त हो
गया गीत गगन मस्त हो गया’ सुनते गुनगुनाते बड़ा हुआ हूं।
आप ने यह कहा – समझ नहीँ पा रहा।”
वह बोले, “यहां बंबई और फ़िल्म जगत मेँ कुछ दिन
रह कर समझ जाओगे।”
ऐसा ही हुआ भी। फ़िल्मोँ में चलने या
न चलने का संबंध किसी के अच्छे होने या न होने से ही नहीँ है। कुछ न कुछ तो किसी
मेँ होता ही है कि वह चलता है। पर उस की निजी सफलता और लोकप्रियता कई और बातोँ पर
भी निर्भर होती है। हमारे किसान मेहनत तो करते ही हैँ, पर फ़सल कैसी
होगी यह मौसम आदि कई तत्वोँ पर तय होता है। इसलिए वह भाग्यवादी हो जाता है। कुछ
वैसा ही फ़िल्म जगत मेँ होता है। वहां के लोग भी दिन या वक़्त के अच्छे या बुरे
होने मेँ विश्वास करते हैँ। तरह तरह की मन्नतें करते हैँ।
चेतन आनंद और कैफ़ी आज़मी – दो
नेगेटिव बने एक ‘हक़ीक़त’
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चेतन आनंद |
मुझे मालूम है कि चेतन आनंद ने कैफ़ी
आज़मी से कहा, हम दोनों के दिन
अच्छे नहीँ चल रहे। क्योँ न हम दो नेगेटिव मिलकर एक पौज़िटिव बन जाएं। दोनोँ एक
साथ आए ‘हक़ीक़त’ 1964 मेँ।
फ़िल्म के लिए तब सही समय था। चीन की लड़ाई भारत को याद थी, पाकिस्तान से तनाव चल रहा था। ‘हक़ीक़त’ का विषय सही था – देशभक्ति, हिंद-चीन युद्ध।
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कैफी आजमी |
बेहतरीन फ़िल्मांकन था। ढेरोँ पात्रोँ को इस तरह पेश किया
गया था कि सब को सही जगह मिल सके। लेकिन इन दो नेगेटिवोँ के साथ वाली
महत्वाकांक्षी फ़िल्म ‘हीर रांझा’ 1970 पूरी तरह पिट गई। ‘हक़ीक़त’ और ‘हीर रांझा’ के
बारे मेँ कभी बाद मेँ यथास्थान लिखूंगा। फ़िलहाल उद्देश्य केवल भाग्यवाद है।
एक और उदाहरण :
आज के सुपरस्टार
अमिताभ बच्चन का। ‘आनंद’ फ़िल्म
से जो चमके और ‘जंज़ीर’ से
सुपरस्टार व ‘शोले’ से
महास्टार बने, फिर एक समय आया जब फ़्लाप स्टार हो गए।
फिर ‘कौन बनेगा करोड़पति’ जो
मिला तो फ़िल्म उद्योग के शताब्दी के सितारे बन गए। अमिताभ पहले भी अमिताभ थे, बीच में भी अमिताभ थे और आज भी अमिताभ हैँ।
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अमिताभ बच्चन |
इसीलिए बंबई मेँ मुहावरा चलता था- “ख़ुदा मेहरबान तो गधा पहलवान”। कभी के प्रगतिशील साहिर का ‘वक़्त’ में भाग्यवादी हिट गीत वहां के लिए सही ही है:-
“वक़्त से दिन और रात/ वक़्त से कल और आज/
वक़्त की
हर शह ग़ुलाम/ वक़्त का हर शह
पे राज।...
कौन जाने
किस घड़ी / वक़्त का
बदले मिजाज़/
वक़्त से
दिन और रात...”
सिनेवार्ता जारी है...
अगली कड़ी, अगले रविवार
संपर्क - arvind@arvindlexicon.com / pictureplus2016@gmail.com
(नोट : श्री अरविंद कुमार जी की ये शृंखलाबद्ध
सिनेवार्ता विशेष तौर पर 'पिक्चर प्लस' के लिए तैयार की गई है।
इसके किसी भी भाग को अन्यत्र प्रकाशित करना कॉपीराइट का उल्लंघन माना जायेगा। संपादक-पिक्चर प्लस)
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