‘माधुरी’ के संस्थापक-संपादक अरविंद कुमार
से
जीवनीपरक
सिनेवार्ता; भाग-इक्कीस
पहले अंकोँ से ही पत्रिका जम गई। साथ साथ मैं भी जाना जाने लगा था। फ़िल्म
वालोँ से मेरी जान-पहचान बढ़ने लगी। उनकी नज़र में मैं कोई नौसिखिया नहीँ था। पर
मैं था तो नौसिखिया ही। कोरा काग़ज़, ख़ाली सलेट! फ़िल्म उद्योग के तौर तरीक़ोँ से अनजान! उससे जुड़े पत्रकारोँ के जो पैमाने होते थे, उनसे
अपरिचित। वे हर फ़िल्म की स्टार वैल्यू देखते थे। मेरे लिए हर फ़िल्म-अच्छी लगे तो अच्छी। स्टार छोटे हैँ या बड़े–इससे मुझे कोई मतलब नहीँ होता था।
पता नहीँ राजश्री प्रोडक्शन के (अब स्वर्गीय) श्री ताराचंद बड़जात्या ने मुझे
क्योँ चुना! शायद इसलिए किसी स्तरीय हिंदी
फ़िल्म पत्रकारिता का बंबई मेँ एकमात्र संपादक मैं था। एक दिन उनका आग्रहपूर्ण
निमंत्रण आया उनकी नवनिर्मित फ़िल्म ‘दोस्ती’ मेरे साथ देखने का। फ़िल्म देखनी शुरू की तो देखता रहा-मुसीबत के मारे लंगड़े लड़के ‘रामू’ की और उसकी ही तरह के मुसीबतज़दा ‘मोहन’ की दोस्ती की भिन्न भावोँ को साकार करती कहानी। ‘रामू’ माउथ आरगन बजाता है और ‘मोहन’
गाता अच्छा है। और दिल की मरीज़ धनी बच्ची मंजुला से उनकी हमदर्दी का भावुक वर्णन।
आगे पढ़ने को उत्सुक ‘रामू’ को स्कूल
में दाख़िले के लिए साठ रुपए चाहिए। मंजुला से मांगते हैं, लेकिन उसका हृदयहीन भाई कुल पांच रुपए देकर टरका देता है। गा, बजाकर फ़ीस
जमा करने के लिए दोनों दोस्त सड़कों पर घूम रहे हैं। ‘रामू’ को दाख़िला मिल जाता है, उसकी मेहनत हम देखते
हैं, और उसकी सफलता (300 अंकों में उसे 294 मिलते हैं)। लेकिन दुर्भाग्य उन का साथ नहीँ छोड़ता। अंत मेँ सब अच्छा हो जाता
है।
कौन निर्देशक है, कलाकार कौन हैं, कौन गीतकार, संगीत किसने दिया है–यह सब मैंने ध्यान नहीं दिया। देखते देखते पता ही नहीं चला कि फ़िल्म कब
ख़त्म हो गई। भावातिरेक से मैं अवाक् था। ताराचंद जी बहुत परेशान थे। पूछा,
“इसे कैसे सुधारा जाए, अपने सुझाव दीजिए।” मैंने कहा, “अगर आप
किसी साहित्यकार से पूछेंगे तो वह कई दोष गिना देगा। जैसी है वैसी ही बहुत अच्छी
है”। उनका कहना था, “इसमेँ कोई बड़ा
स्टार नहीं है। संगीतकार नए हैं। कोई थिएटर इसे दिखाने को तैयार नहीँ है। यहां तक
कि ऑपेरा हाउस जहां मैं अपनी डिस्ट्रीब्यूशन कंपनी की हर फ़िल्म रिलीज़ करता हूं, उसने भी यह दिखाने से इनकार कर दिया है”।
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'दोस्ती' में सुशील कुमार और सुधीर कुमार |
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'दोस्ती' का एक भावुक दृश्य |
मैँ बंबइया बिज़नेस जानता नहीँ था, फिर भी पूरी दृढ़ता से कहा कि “आप
वह थिएटर किराए पर ले लीजिए और फ़िल्म चलाइए, मेरे जैसे
दर्शक दौड़े चले आएंगे”। हुआ भी यही। जिसका कोई लेनदार नहीँ
था, वह साल की तीसरी सबसे अधिक चलने वाली फ़िल्म बन गई।
उल्लेखनीय यह है कि वह साल राज कपूर की सुपरहिट ‘संगम’ और उस के बाद राजेंद्र कुमार,
धर्मेंद्र वाली ‘आई मिलन की बेला’ का था। ‘हक़ीक़त’ का नंबर सातवां था। उसे श्रेष्ठ फ़िल्म ताराचंद बड़जात्या, श्रेष्ठ संगीतकार लक्ष्मीकांत प्यारेलाल (दोनों की पहली
फ़िल्म), श्रेष्ठ कहानी बाणभट्ट, श्रेष्ठ संवाद गोविंद मूनिस, श्रेष्ठ गायक
मोहम्मद रफ़ी (चाहूंगा मैँ तुझे सांझ-सवेरे), श्रेष्ठ
गीतकार मजरूह सुल्तानपुरी (चाहूंगा मैँ तुझे सांझ-सवेरे) मिले।
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डाक टिकट पर ताराचन्द बड़जात्या की भक्ति का प्रतीक 'श्रीमां' |
अब इस बात को बीते चौवन साल हो चुके हैँ, पर मुझे अभी तक याद है।
जो भी हो ताराचंद जी की निगाह में मैं चढ़ गया। इसके बाद जब तक मैं रहा, रिलीज़ से पहले वह हर फ़िल्म मुझे दिखाते रहे।
ताराचंद जी की अपनी कहानी भी किसी फ़िल्म से कम नहीँ है। 1914 में जन्में ताराचंद के पिताजी उसे वकील बनाना चाहते थे।
पढ़ाई के लिए कलकत्ता भेज दिया। ताराचंद का मन नहीँ लगा तो पिताजी ने उसे मोतीमहल
थिएटर्स मेँ लगवा दिया। मोतीमहल थिएटर्स की दक्षिण मेँ चमरिया टाकी डिस्ट्रीब्यूटर्स
कंपनी था। ताराचंद की मेहनत से वह आगे बढ़ने लगी। वहां काम करते उसकी जान-पहचान
बहुमुखी प्रतिभा वाले जैमिनी फ़िल्म के मालिक एस.एस. वासन से हुई। वह प्रकाशक भी
थे, घुड़दौड़ के धत्ती दांव खेलने के आदी
थे। उनकी 1952 की मोतीलाल वाली फ़िल्म ‘मिस्टर संपत’ मैंने देखी थी और अभी तक उसकी
कुछ छवि मन पर है। जो भी हो, उनकी 1948 की तमिल ‘चंद्रलेखा’
भारत की पहली विराट फ़िल्म कही जा सकती है। कहें तो वह अपने ज़माने की ‘बाहुबली’ थी।
यहां एंट्री होती ताराचंद बड़जात्या की। दोनों को ही दांव खेलने की हिम्मत थी।
ताराचंद ने इसे हिंदी मेँ बनाने का सशर्त सुझाव दिया। शर्त यह थी कि आइडिया पसंद
आया तो उसका वितरण ताराचंद करेंगे। वासन मान गए तो ताराचंद ने कहा कि वितरण के लिए
पैसा भी आप देंगे। जीवट देखकर वासन ने ‘हां’ कर दी। इस तरह राजश्री प्रोडक्शन का जन्म हुआ। बंबई मेँ हिंदी की शूटिंग मेँ
तीन लाख लगे। यह उस समय के लिए बहुत बड़ी रक़म थी। उत्तर भारत में दक्षिण के
सितारों को कोई जानता न था। ताराचंद जी ने प्रचार की नई तकनीक निकाली। मुझे याद है
दिल्ली में गहरे नीले रंग मेँ बड़े बड़े अक्षरों वाले पोस्टर हर दीवार पर लगे थे–‘तीन लाख में बनी फ़िल्म’। बस इतना ही। और कुछ नहीँ।
सबकी तरह मैं, मेरे दोस्त ही नहीं सब उत्सुक थे ‘चंद्रलेखा’ देखने को। रातों-रात ‘चंद्रलेखा’ का विलेन रंजन लोकप्रिय हो गया।
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'दोस्ती' का एक और भावुक दृश्य |
बहुत कुछ है जो मैं लिखता रह सकता हूं। इस बार बस एक संस्मरण लिख कर बात पूरी
करूंगा। वह अनुशासन के बहुत पक्के थे। उनका आदेश था कि कोई भी बेटा कोई भी फ़िल्म
देखे तो उस पर ताज़ा ताज़ा प्रतिक्रिया लिखे बग़ैर न सोए। एक रात देव आनंद की किसी
फ़िल्म के प्रीमियर पर मैँ और उनका बेटा राज कुमार पास पास बैठे थे। सुबह किसी काम
से मैंने राजकुमार (सूरज बड़जात्या के पिता) को फ़ोन किया तो दफ़्तर पता चला कि वह
छुट्टी पर हैं। हुआ यह था कि सुबह ताराचंद जी ने फ़िल्म पर लिखित टिप्पणी मांगी तो
राजकुमार ने बताया कि थकान के मारे लिख नहीँ पाया। ताराचंद जी ने कहा तुम्हारा मन
काम में नहीं लग रहा, छुट्टी चले जाओ।
सिनेवार्ता
जारी है...
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संपर्क
- arvind@arvindlexicon.com / pictureplus2016@gmail.com
(नोट :
श्री अरविंद कुमार जी की ये शृंखलाबद्ध सिनेवार्ता विशेष तौर पर 'पिक्चर
प्लस' के लिए
तैयार की गई है। इसके किसी भी भाग को अन्यत्र प्रकाशित करना कॉपीराइट का उल्लंघन
माना जायेगा। संपादक-पिक्चर
प्लस)
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