‘माधुरी’
के संस्थापक-संपादक अरविंद कुमार से
जीवनीपरक सिनेवार्ता; भाग-तेईस
अरविंद कुमार से वार्ता करते हुए 'पिक्चर प्लस' संपादक संजीव श्रीवास्तव |
फ़िल्म
पत्रिका शुरू करने मैं बंबई जाने वाला था। तमाम बंधुबांधव ख़ुश थे। तरह तरह की
सलाहें मिल रही थीं, सुझाव दिए
जा रहे थे। पीपुल्स पब्लिशिंग हाउस का दफ़्तर और प्रैस हमारे दिल्ली प्रैस के पास
ही था। वहां हिंदी संपादक काव्य-साहित्य प्रेमी ‘मुंशी’ (डॉक्टर रामविलास शर्मा के छोटे भाई रामशरण शर्मा) से मेरी घनी छनती थी।
जब तब वे शैलेंद्र के लोकगीत सुनाते रहते थे। शैलेंद्र के घने दोस्त थे। उन्होंने
कहा, “सबसे पहले
तुम उनसे मिलना।” सबसे पहले मैं उन्हीं से मिला भी और उनके बारे कई बार लिख भी चुका हूं।
मेरे बेहद
घनिष्ठ निजी मित्र थे भगवती प्रसाद कक्कड़। भगवती, ओमप्रकाश मंत्री और मेरी तिकड़ी हुआ करती थी।
ओमप्रकाश को हमलोग ‘मंत्री’ ही कहा करते थे। भगवती को ‘भगवती’ और मुझे ‘अरविंद’। भगवती पहले बैंक में काम करता था और उसकी यूनियन का
नेता भी था। अब वह अपने बड़े भाई के साथ फ़ाइनैंस कंपनी चलाता था। बंबई मेँ फ़िल्म
निर्माता एफ़.सी. मेहरा को भी उनकी कंपनी फाइनैंस करती थी। हम तीनोँ तरह-तरह के
सामाजिक मोर्चों पर साथ होते थे। धीरे धीरे पीना भी हमने साथ साथ शुरू किया था।
लेकिन कभी घर पर नहीं पीते थे। बॉलिवुड में शराब के क़िस्से उसने बहुत सुन रखे थे।
तो उसने कहा, “बंबई में कभी
मत पीइयो”। और वचन भी ले लिया। मैं पहले कुछ महीने पी भी नहीं।
वहां पहुंच कर कई तरह की बातें सुनता रहता। बी.के. करंजिया से पहले फ़िल्मफ़ेअर के
पतले लेकिन रौबदार संपादक थे एल.पी. राव।
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धर्मेंद्र की सबसे पुरानी तस्वीर |
राव की
पियक्कड़ी के क़िस्से मशहूर थे और उसी तरह मशहूर थे लोकप्रियता के साथ उसकी दर्पिता के भी। फ़िल्मफ़ेअर टेलैंट कंटैस्ट में धर्मेंद्र का चुनाव उसी के
ज़माने मेँ हुआ था। मशहूर था कि किसी पार्टी मेँ नशे मेँ धुत् एल.पी. जूते आदि
उतारकर नशे में पसरा था। उठने को हुआ तो उसने धर्मेंद्र को आवाज़ दी। नया नया
अभिनेता धर्मेंद्र आज्ञाकारी की तरह आया। एल.पी. ने लड़खड़ाती आवाज़ मेँ हुक्म
दिया, “जूते पहना।” बिना हिचके धर्मेंद्र ने उसे जूते पहनाए, सहारा देकर उठाया और बाहर तक छोड़ कर आया।
तो यह था एल.पी।
जब तक फ़िल्मफ़ेअर मेँ था फ़िल्म उद्योग का बादशाह था। वहां से निकाले जाने के बाद
उसकी आर्थिक हालत बिगड़ती चली गई, पर टेव
नहीँ गई। कुछ फ़िल्मवाले उसे फिर भी न्योत लेते थे।
एक बार ‘तीसरी क़सम’ बनने के दौरान शैलेंद्र जी ने (1964) उसे घर खार उपनगर में बुलाया। हमेशा
की तरह नशे मेँ धुत् हो गया। अपनी सवारी थी नहीं। मैंने भी तब कर कार नहीं ख़रीदी
थी, वरना शायद
मैं ही उसे ले जाता। तय हुआ कि बलबीर (दीनानाथ) उसे टैक्सी मेँ छोड़ आएगा। कुछ देर
बाद बलबीर ऊपर घर में हमारे साथ था। बोला, “मैंने टैक्सी वाले को किराया दे दिया और कहा चेंबूर
पहुंच कर किसी भी टैक्सीवाले से पूछ लेना, वह इसका घर बता देगा।”
एक और
घटना मुझे याद है।
साल 1970
था। चेतन आनंद की फ़िल्म ‘हीर रांझा’ का महूरत था। मुझे ख़ास तौर पर बुलाया गया था, क्योँकि उन्हेँ और गीतकार कैफ़ी आज़मी को दिल्ली मेँ
शीला भाटिया के लोकप्रिय पंजाबी ऑपेरा ‘हीर’ से मेरे निकट संबंध का पता था। स्टूडियो के गेट पर ही एल.पी. मिले। हम
बातचीत करते रहे। मैं भीतर की ओर चला तो मैंने कहा, “चलो, यहां क्या
कर रहे हो?” एल.पी. ने कहा, “शमीम साहब आने वाले हैँ, उनका इंतज़ार कर रहा हूं।” यह जो ‘शमीम साहब’ थे, वे कभी एल.पी.
के ज़माने में फ़िल्मफ़ेअर में जूनियर रिपोर्टर थे! अब जाकर मेरी समझ में आया कि एल.पी. मेरी तरह मेहमान नहीं, चेतन के मुलाज़िम थे और गेट पर मेहमानोँ की आवभगत कर
रहे थे!
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कुछ साल बाद धर्मेंद्र ऐसे हो गए |
जहां तक
मेरा और शराब का सवाल है, मेरे बंबई
पहुंचने के पांच छह महीने बाद एफ़.सी. मेहरा का मेहमान बन कर भगवती आया। मेहरा के
घर पर उस ने कहा कि शराब न पीने के वचन से तुम आज़ाद हो। कारण उसे पीनी थी। मैँ ने
अब पार्टियोँ में लेने लगा। लेकिन कभी अपनी सीमा से ज़्यादा नहीँ पी। एक आसान
तरीक़ा था। मेरा और जनरल मैनेजर राम तरनेजा का। एक दो घूंट ले कर गिलास कोट की जेब
मेँ रख लो। मेज़बान और लेने को कहे तो जेब से गिलास निकाल कर दिखा दो, कहो, “बाद में।”
सिनेवार्ता जारी है...
अगली कड़ी, अगले रविवार
संपर्क - arvind@arvindlexicon.com / pictureplus2016@gmail.com
(नोट : श्री अरविंद कुमार जी की ये शृंखलाबद्ध
सिनेवार्ता विशेष तौर पर 'पिक्चर प्लस' के लिए तैयार की गई है।
इसके किसी भी भाग को अन्यत्र प्रकाशित करना कॉपीराइट का उल्लंघन माना जायेगा। संपादक-पिक्चर प्लस)
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