सिनेमा-समाज-सेतु
यहां सवाल यह है कि बने बनाए स्टोरी के प्लॉट पर पैसा कमाने
की नीयत से बनी ‘फुल्लू’ और ‘पैडमैन’ जैसी फिल्मों से पीरियड को लेकर समाज में व्याप्त
अंधविश्वास और कुरीतियां दूर हुईं क्या? एक पीड़ादायक वक्त में समाज के
अछूतों जैसे बर्ताव से आनेवाली पीढ़ी को छुटकारा मिलेगा क्या? जबकि
सब कुछ साबित हो चुका है कि पीरियड और छुआछूत का कोई भी वैज्ञानिक आधार नहीं है।
दरअसल जहां फिल्मों के रिलीज के अगले ही दिन यह चर्चा प्रमुख हो जाती है कि फिल्म ने कितना कमाया और कितने घाटे में रही ऐसे फिल्मकारों और उनकी कमाई का प्रचार करने वाली मीडिया से समाज के स्वस्थ होने की उम्मीद नहीं की जा सकती। दरअसल किसी और से उम्मीद करने की बजाय हम महिलाओं को ही इन अंधविश्वासों और कुरीतियों से लड़ते हुए समाज को जागरूक करना होगा।
काश! 'पैडमैन' और 'फुल्लू' ने मासिक धर्म से जुड़ी सामाजिक कुरीतियों
और अंधविश्वास को भी दूर किया होता!
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फिल्म 'पैडमैन' का एक दृश्य |
*कँवलजीत कौर
मानो स्त्रियों के
मासिक धर्म के दौरान इस्तेमाल होने वाली सेनेट्री नैपकीन यानी सेफ्टी पैड पर फिल्म
बनाने की होड़ सी मची हो। इस मुद्दे पर जून 2017 में ‘फुल्लू’
नाम से एक फिल्म बनाकर डायरेक्टर अभिषेक सक्सेना अव्वल रहे। दु:ख
की बात ये रही कि उनकी इस फिल्म को ‘A’ सर्टिफिकेट के साथ
रिलीज किया गया था वहीं करीब आठ महीने बाद इसी मुद्दे पर दूसरी फिल्म आई
‘पैडमैन’। अक्षय कुमार के साथ इसे
आर. बाल्की ने डायरेक्ट किया है। ‘पैडमैन’
को ‘U/A’ सर्टिफिकेट दिया गया। एक ही मुद्दे पर अलग-अलग सर्टिफिकेट देने के पीछे सेंसर
बोर्ड की मंशा क्या थी यह अलग बहस का विषय है। ‘फुल्लू’
और ‘पैडमैन’ फिल्मों का आधार एक ही है। इन फिल्मों की कहानी
अरुणांचलम मुरुगननांथम की जिंदगी से जुड़ी हुई है। उन्होंने ही सबसे पहले महिलाओं
के लिए सस्ते सेनेट्री नैपकीन उपलब्ध कराने का सपना देखा था और उसे पूरा भी किया।
ऐसा लगता है ‘फुल्लू’
और ‘पैडमैन’ जैसी फिल्में सिनेट्री नैपकीन अथवा सेफ्टी पैड के
प्रचार तक सीमित होकर रह गईं। यदि इन फिल्मों के जरिये पीरियड यानी माहवारी अथवा
मासिक धर्म से जुड़े सदियों पुराने अंधविश्वासों और अज्ञानताओं को दूर करने की
दिशा में भी कुछ काम किया गया होता तो ज्यादा बेहतर होता।
कोलकाता की प्रिया कहती
हैं – “ज्यादा पुरानी बात नहीं
है मैं मंदिर गई, प्रसाद चढ़ाया जब घर पहुंची तो वहां पड़ोस की आंटियां भी मौजूद
थीं। उनको शक हुआ तो बोलीं- तुम्हारा पीरियड तो नहीं आया हुआ है? मेरे
मुंह से निकल गया – हां। इसके बाद जो नाक भौं उन आंटियों ने सिकोड़ा और ताने दिए
जिसे मैं आज तक नहीं भूल पाई। मतलब कि पीरियड के दौरान मंदिर जाकर जैसे मैंने कोई गुनाह
कर दिया हो।“ यह जानते हुए भी कि
माहवारी कोई छुआछूत की बीमारी नहीं बल्कि एक जैविक क्रिया है, कई तरह के
अंधविश्वास आज भी हमारे समाज का हिस्सा बने हुए हैं। ऐसा सिर्फ प्रिया के साथ ही नहीं हुआ है। दिल्ली के एक कॉलेज में पढ़ाने के दौरान
छात्राओं ने जो आपबीती बताई वो भी चौंकाने वाली है। मम्मियां, आंटियां,
दादियां परम्परा के नाम पर, धर्म का हवाला देकर, किसी अनहोनी का भय दिखाकर ऐसा
करने को मजबूर करती हैं।
सिखों और ईसाइयों में
तो नहीं हां, हिंदू और मुस्लिम धर्मों में माहवारी को लेकर अंधविश्वास बहुत गहरा
है। समाजसेवी डॉ. अर्चना सचदेव बताती हैं कि – “समाज में पीरियड्स को लेकर 21वीं शताब्दी में भी लोग
जागरूक नहीं हैं। पीरियड के दौरान पौधों
को पानी देने से मना करना, अचार छूने से मना करना, खाना बनाने से रोकना, दूसरे का खाना या पानी छूने से मना
करना, तीन चार दिन तक जमीन सोने के लिए बोलना, बिस्तर और बर्तन अलग कर देना, हफ्ते भर तक पूजा पाठ करने और
मंदिर जाने से रोकना जैसे अंधविश्वास आज भी समाज के व्याप्त हैं।“
समाज बदल रहा है। अब लोग माहवारी और सेनेट्री पैड जैसे
विषयों पर बात करने लगे हैं। वह दिन दूर नहीं जब माहवारी से जुड़े अंधविश्वासों के
खिलाफ महिलाएं उठ खड़ी होंगी। शहरी और नौकरी-पेशा महिलाओं ने तो एक तरह से इन सबसे
पीछा छुड़ा लिया है पर छोटे शहरों व ग्रामीण इलाकों में यह अंधविश्वास अभी भी जड़
जमाए हुए है।
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फिल्म 'फुल्लू 'का एक दृश्य |
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कंवलजीत कौर |
दरअसल जहां फिल्मों के रिलीज के अगले ही दिन यह चर्चा प्रमुख हो जाती है कि फिल्म ने कितना कमाया और कितने घाटे में रही ऐसे फिल्मकारों और उनकी कमाई का प्रचार करने वाली मीडिया से समाज के स्वस्थ होने की उम्मीद नहीं की जा सकती। दरअसल किसी और से उम्मीद करने की बजाय हम महिलाओं को ही इन अंधविश्वासों और कुरीतियों से लड़ते हुए समाज को जागरूक करना होगा।
*(लेखिका हिंदी विभाग, बीएचयू, वाराणसी में शोध
छात्रा हैं।)
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