‘माधुरी’
के संस्थापक-संपादक अरविंद कुमार से
जीवनीपरक सिनेवार्ता; भाग-चौबीस
मेकिंग ऑफ फिल्म ‘संगम’-1
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'संगम' में राजकपूर, बैजयंतीमाला और राजेंद्र कुमार |
सन् 1964 में निर्माता ताराचंद बड़जात्या और निर्देशक सत्येन बोस की ‘दोस्ती’ छुपा रुस्तम निकली। तो राज कपूर निर्मित-निर्देशित ‘संगम’ साल की सबसे बड़ी और दशक की ‘मुग़ले आज़म’ के बाद दूसरी सबसे बड़ी फ़िल्म
साबित हुई।
इससे और इससे संबंधित लोगों से मेरे कई संस्मरण जुड़े
हैँ। वे एक एक कर के आप को बताऊंगा।
पहले : राज कपूर से मेरी पहली मुलाक़ात। वह ‘संगम’ के झील में बोटिंग के सीन का
संपादन कर रहे थे। (वह फ़िल्म के संपादक भी थे।) उस शाम मैँने राज से फ़िल्म कला
के कुछ आधारभूत सिद्धांत सीखे। यहां तक कि फ़िल्मोँ के सैट कैसे बनते हैँ, भी मैँने
उनसे पूछा था, “बंबई मेँ वह जगह कहां है जहां ‘श्री चार सौ
बीस’ के ‘प्यार हुआ इक़रार हुआ’ वाले गीत की शूटिंग की गई थी जिसमेँ
बरसाती रात मेँ आप और नरगिस एक छाते के नीचे दिखाए गए हैँ। जब से बंबई आया हूं वह
जगह ढूंढ़ रहा हूं। अब तक नहीँ मिली।”
बोले, “वह तो सैट था। ट्रेन नक़ली थी”।
बोले, “वह तो सैट था। ट्रेन नक़ली थी”।
मैँने कहा, “उस मेँ तो बत्तियां जलती बुझती थीँ’।
वह बच्चोँ की तरह खिलखिला कर हंस पड़े। कला निर्देशक
आचरेकर को बुलाया और उस सैट क म़ॉडल दिखाने को कहा। वह तब तक सुरक्षित रखा था। सब
कुछ मिनिएचर था। सड़क के किनारे बिजली के बड़े खंभे, दूर जाती पतली होती सड़क और उसी अनुपात मेँ छोटे होते
खंबे। मिनिएचर रेल की पटरियां, उन पर छुक छुक चलती मिनिएचर रेल। उस के
किसी किसी डिब्बे मेँ रोशनी...
बताया, “शूटिंग
स्टूडियो मेँ बड़े सैट पर की गई थी। जिस जगह मैँ और नरगिस खड़े हैँ, वह नॉर्मल है। पृष्ठभूमि मिनिएचर है। जहां जहां
ज़रूरत होती लॉंग शॉट (लंबाई मेँ नहीँ, दूर से लिया
गया शौट) में यह मिनिएचर दिखाया गया था।”
राज ने मुझे बड़े थोड़े समय मेँ आसानी से फ़िल्मांकन
और फ़िल्म संपादन के बारे मेँ समझा दिया था।
जहां तक ‘संगम’ की बात है इस का बनना एक सपने का
पूरा होना था।
कभी राज कपूर, नरगिस और दिलीप कुमार एक साथ आए थे
महान फ़िल्मकार मेहबूब की फ़िल्म ‘अंदाज़’ (1949) मेँ।
तभी राज कपूर ने सपना देखा था ऐसी एक और फ़िल्म का।
उनकी ‘आग’ बन रही थी, जो राज द्वारा निर्देशित पहली
फ़िल्म भी थी। उसी के दौरान कहानीकार इंदरराज आनंद से राज ने अपना आइडिया बता कर
एक कहानी विकसित करने को कहा। इंदरराज ने लिखी भी। बात बन नहीँ रही थी। तब फ़िल्म
का प्रस्तावित नाम था – ‘घरौंदा’। कई कारणोँ से तब वह बन नहीँ पाई। और जब इंदरराज लिखित ‘संगम’ बनाने की ठोस बात आई तो सुंदर
वाली भूमिका के लिए राज ने सब से पहले बात की दिलीप कुमार से। दिलीप ने शर्त लगा
दी कि वही फ़िल्म का संपादन करेँगे। यह राज को मंज़ूर नहीँ था। अब राज देव आनंद के
पास गए। देव ने इनकार कर दिया – कारण वह कई फ़िल्मोँ में व्यस्त थे। अब राज कपूर ने
अपने दोस्त राजेंद्र कुमार को सहमत कर लिया। (संदर्भवश: दोनोँ के बच्चोँ की सगाई भी हुई जो टूट भी गई। बाद
मेँ राजेंद्र के बेटे गौरव की शादी सुनील दत्त की बेटी से हुई।)
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अंदाज का यह पोज संगम में भी रखा गया था |
‘संगम’ के बारे मेँ कई तत्वों पर कई कोणोँ से
लिखे बग़ैर काम नहीँ चलेगा। वह मैँ अगले रविवार से शुरू करूँगा।
चलते चलते... छिटपुट – इज़राइली फ़िल्म ‘डेस्पेराडो स्क्वायर’ (Desperado Square) की कहानी किसी पुराने सिनेमाघर में ‘संगम’ का शो हो रहा है, उसी के समांतर वैसी ही स्थानीय कहानी चल रही है।
मेकिंग ऑफ फिल्म ‘संगम’की कहानी अगले रविवार भी जारी...
सिनेवार्ता जारी है...
अगली कड़ी, अगले रविवार
संपर्क - arvind@arvindlexicon.com / pictureplus2016@gmail.com
(नोट :
श्री अरविंद कुमार जी की ये शृंखलाबद्ध सिनेवार्ता विशेष तौर पर 'पिक्चर
प्लस' के लिए
तैयार की गई है। इसके किसी भी भाग को अन्यत्र प्रकाशित करना कॉपीराइट का उल्लंघन
माना जायेगा। संपादक-पिक्चर प्लस)
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