किसी
भी प्रेम कहानी में एक लड़का होता है, एक लड़की होती है लेकिन यहां उन दोनों के
साथ एक हर-सिंगार भी है, जो इस फिल्म में अलग ही सुगंध प्रदान करता है।
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वरुण और बनिता |
फिल्म
समीक्षा
टाइटल -
अक्तूबर
निर्देशक
- शूजित सरकार
सितारे
- वरुण धवन, बनिता संधू, गीतांजलि राव आदि
रेटिंग
– 3 स्टार
*रवींद्र त्रिपाठी
हर-सिंगार
एक फूल है जो खिलने के बाद बहुत जल्द डाली से टूट जाता है। हालांकि जब तक वह डाली
से जुड़ा रहता है वातावरण को सुगंधित रखता है। (संस्कृत में हर-सिंगार को पारिजात
भी कहते हैं।) क्या कभी कोई आदमी या औरत भी हर-सिंगार की तरह होता है या होती है? जवाब आपको `अक्तूबर’ में मिलेगा और वो जवाब होगा - हां। इस फिल्म की एक चरित्र-शिउली
(बनिता संधू) भी हर-सिंगार की तरह है।
वैसे बांग्ला में हर-सिंगार का नाम शिउली है। फिल्म डैन (वरुण धवन) और शिउली के
रिश्तों की कहानी है। पर क्या ये प्रेम कहानी है?
जवाब `हां’ भी है
`ना’ भी। `हां’ इसलिए
कि फिल्म में दोनों के बीच जो होता है वह प्रेम ही है। `ना’ इसलिए कि जिस तरह हम फिल्मों में प्रेम कहानियां देखते आए हैं उस तरह
का मामला यहां नहीं है। इस फिल्म में प्रेम उस एहसास की तरह
है जिसे अभिव्यक्त करना कठिन है पर महसूस किया जा सकता है।
कहानी
क्या है?
डैन और
शिउली एक होटल में होटल-मैनेजमैंट की ट्रेनिंग ले रहे हैं। डैन में संजीदगी नहीं
है। अपने काम में हल्का-सा लापरवाह है। लेकिन शिउली गंभीर है और अपने काम में
माहिर। एक दिन शिउली अचानक होटल की छत से गिर जाती है और अस्पताल पहुंच जाती है।
उसके बचने की आशा नहीं के बराबर है क्योंकि चोट गहरी है। डॉक्टरों को लगता ही नहीं
कि उसमें किसी तरह की चेतना है। डैन उसे देखने लगातार अस्पताल जाता रहता है। एक
रात वह अस्पताल में बिना किसी को बताए शिउली के सिरहाने हर-सिंगार के फूल रख देता
है। सबेरे मालूम होता है कि शिउली में कुछ हरकत होती है। डॉक्टर भी चकित हैं कि
ऐसा कैसे हुआ। पर फूल मनुष्य को भीतर तक प्रभावित करते हैं ऐसा अस्पताल के सबसे
बड़े डॉक्टर का कहना है। शिउली के स्वास्थ्य में सुधार होने लगता है। डैन उसकी देखभाल करने में पूरी तरह लग जाता है। अपनी सारी चिंताओं को
भूलकर। यहां तक कि उसे होटल में ट्रेनिंग से हटा दिय़ा जाता है। पर क्या शिउली कभी
पूरी तरह स्वस्थ हो पाएगी?
फिल्म
धीमी गति से आगे बढ़ती है और शुरुआती हिस्से में दर्शकों को बोरियत का अहसास भी
कराती है। लेकिन आधे घंटे के बाद दर्शक फिल्म के किरदारों से और शिउली की हालत से
बंध जाता है। डैन का व्यक्तित्व भी बदल जाता है। एक अगंभीर शख्स अचानक ही एक बेहद
संवेदनशील शख्स के रूप में परिणत हो जाता है। फिल्म में कोई गाना नहीं है लेकिन
पार्श्वसंगीत मर्मस्पर्शी है। यहां बहुत ही महीन का सेंस ऑफ ह्यूर है। आप ठहाके
नहीं लगाते लेकिन मन ही मन जोर से हंसते हैं। जैसे शुरूआती दृश्य में एक प्रौढ़
किस्म का शख्स अपनी युवा पत्नी के साथ होटल में आता है और रिसेप्शन पर हड़काने के
अंदाज में बोलता है तो डैन उससे दिखावी गंभीरता ओढ़े हुए कहता है-`आप कुछ दिन पहले एक्स-वाइफ (पूर्व पत्नी) के साथ यहां आए होंगे।‘ दबंग सा दिखनेवाला वह आदमी झटता खा जाता है।
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वरुण धवन का नया रूप |
निर्देशन
और अभिनय
वरुण
धवन का अभिनय कमाल का है। अब तक वे नाचने-गाने वाले अभिनेता के रूप में आते रहे
हैं। `बदलापुर’ इसका
अपवाद था। लेकिन इस फिल्म में वे
अलग दिखते हैं। डैन के चरित्र में एक ऐसा युवा दीखता है जो ऊपर से तो हवा-हवाई है
लेकिन भीतर से बेहद कोमल और इनसानी जजबात से लबरेज। बनिता संधू का फिल्म में
ज्यादा वक्त अस्पताल में गुजरता है लेकिन वह जिस तरह आंखों के सहारे अपनी भावनाएं
प्रकट करती हैं वह दिल में बस जाता है। आंखों की पुतलियां दाएं और बाएं घुमाने का
पूरा वाकया बहुत कुछ कहता है। शिउली मां की भूमिका में गीतांजलि राव एक ऐसी औरत को सामने लाती हैं
जो अपनी बेटी से बेपनाह प्यार करती है लेकिन उस पर अपने रिश्तेदारों का दबाव भी है
कि अस्पताल में इतना खर्च हो रहा है तो उसके बारे में सोचना चाहिए। फिल्म की कहानी
ही लेखिका जूही चतुर्वेदी की इस बात के लिए तारीफ़ करनी होगी कि उन्होंने प्रचलित
मुहावरों से अलग जाकर लिखा है। फिल्म किसी तरह की मसालेबाजी नहीं है। शूजित सरकार
के इस हौसले की भी दाद देनी होगी।
*(लेखक
प्रख्यात कला मर्मज्ञ तथा फिल्म समीक्षक हैं।
दिल्ली
में निवास। संपर्क-9873196343)
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