‘माधुरी’
के संस्थापक-संपादक अरविंद कुमार से
जीवनीपरक सिनेवार्ता; भाग-पच्चीस
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'माधुरी' के दफ्तर में युवा अरविंद कुमार |
मेकिंग ऑफ फिल्म ‘संगम’-2
संगम के लेखक इंदरराज ने “मैँ
सड़क पर पड़ा पत्थर हूं, मुझे एक ठोकर लगाते जाइए” सन् 1971-72 के आसपास यह किससे, कब और क्योँ कहा था यह मैँ बाद में बताऊंगा।
अभी तो इंदरराज की फ़िल्मी दास्तान संक्षेप मेँ--
राज कपूर की ‘संगम’ के पहले उनकी ‘आग,’ ‘आह,’ ‘अनाड़ी’, ‘छलिया’, ‘शारदा’, ‘चार
दिल चार राहेँ’ के बाद ‘सपनों का सौदागर’ लिखने वाले इंदरराज आनंद प्रतिभा के धनी थे।
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इंदरराज |
पृथ्वी थिएटर मेँ लेखन के दौरान उन्होंने सीखा कि
कहानी लिखना और दिखाना दो अलग चीज़ेँ हैँ। दिखाई गई कहानी की तकनीक हर चीज़ दिखाने
की है वर्णन की नहीँ। नाटक की दुनिया जीने वाले इंदर के ज़ह्न का अंग बन गया सफल
नाटकोँ और फ़िल्मोँ का रचना विधान। पृथ्वीराज जी के साथ होने का एक मतलब यह भी था
कि उनके तीनोँ बेटोँ से अंतरंग संबंध होना।
और जब 1948 मेँ फ़िल्म लिखना शुरू किया तो पहली
फ़िल्म के तौर पर ‘फूल और कांटे’ की
कहानी लिखी, तो पृथ्वीराज जी बड़े बेटे राज कपूर के साथ पहली
फ़िल्म ‘आग’ के
लिए सब कुछ लिखा – कहानी, पटकथा और संवाद। ‘आग’ (1948) मेँ नायक राज कपूर ने अपना चेहरा जला लिया था। तभी से उनकी इच्छा थी
इसके विपरीत ऐसी फ़िल्म बनाने की जिसमेँ नायिका का चेहरा जला हो। यह पूरी हुई 1978
मेँ ‘सत्यं
शिवं सुंदरम्’ के जरिए। उसमें बचपन मेँ नायिका पद्मिनी कोल्हापुरे
और बड़ी होकर ज़ीनत अमान का चेहरा झुलस गया था। (संदर्भवश: ‘सत्यं शिवं सुंदरम्’ के
लेखक थे ‘माधुरी’ मेँ मेरे सहयोगी
जैनेंद्र जैन, जो ‘बॉबी’ से
ही राजकपूर के साथ जुड़ गए थे।) बाद मेँ 1953 की ‘आह’ की
कहानी, पटकथा और संवाद
उन्होँने स्वतंत्र रूप से लिखे थे।
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मनोज कुमार |
हृषिकेश मुखर्जी की ‘अनाड़ी’ (1959)
इंदरराज की सबसे अधिक यादगार फ़िल्म कही जा सकती है। इससे पहले 1957 की ‘शारदा’ की
कहानी मेँ बहुत बड़ा ट्विस्ट था। आश्रम की ग़रीब सेविका मीना कुमारी से शादी करने
वादा करके राज दुर्घटनाग्रस्त होकर याददाश्त खो बैठता है। ठीक होने पर लौटता है तो
ब्याह होकर मीना कहीँ जा चुकी है। जब अपने घर पहुंचता तो देखता है कि अब मीना उसके
विधुर पिता की पत्नी है!
1959 की ही ख्वाजा आहमद अब्बास की ‘चार
दिल चार राहेँ’ अपनी तरह की अलग फ़िल्म थी, जिसमें तीन अलग कहानियां थीं, सब समाज का एक अलग रूप दर्शाती थीं। भारत मेँ नहीँ
चली, पर रूस मेँ सुपर हिट
साबित हुई।
अभी तक लोग ‘हाथी मेरे साथी’ को
भूले नहीँ हैँ। यह हर समय हर उम्र के बच्चोँ को मोह लेती है। इसके बारे मेँ जावेद
अख़्तर एक क़िस्सा बयान करते हैँ- राजेश खन्ना एक दिन सलीम साहब के पास पहुंचे और
बोले, “निर्देशक देवर ने
मुझे इसमेँ काम के लिए इतनी रक़म देने का वादा किया है जिससे मेरे बंगले ‘आशीर्वाद’ का
बक़ाया पैसा चुक जाएगा। मूल फ़िल्म की स्क्रिप्ट बेहद ख़राब है। ऐसी बुरी
स्क्रिप्ट पर फ़िल्म मैँ करना नहीँ चाहता। छोड़ भी नहीँ सकता क्योंकि मुझे पैसा
चाहिए।” इस तरह सलीम और जावेद को पहली फ़िल्म मिली जिस के
संवाद इंदरराज जी ने संवाद लिखे थे।
-“मैँ सड़क पर पड़ा पत्थर”
इंदरराज जी से परस्पर सम्मान का मेरा रिश्ता हमेशा
रहा। अब समय आ गया है कि आप सबसे वह क़िस्सा साझा करूं, जिससे मैंने यह भाग लिखना शुरू किया था - यानी
इंदरराज ने “मैँ सड़क पर पड़ा पत्थर हूं, मुझे एक ठोकर लगाते जाइए” कब क्योँ और यह किस से कहा था?
1971-72 का एक दिन।
सही तारीख़ अब याद नहीँ पर घटना दिमाग़ मेँ जब तब चल
ही जाती है। हम दोनोँ (मुझे और कुसुम को) मनोज कुमार और शशि ने आचार्य रजनीश के
साथ एक गोष्ठी में शामिल होने के लिए बुलाया था – तीसरे पहर। ऐसे
गुरुओँ के प्रति कोई आकर्षण नहीँ रहा। मनोज ने बुलाया था। रजनीश क्या हैँ यह जानने
की उत्सुकतावश हम गए। संयोगवश मनोज दंपति हमारी अगवानी कर ही रहे कि आचार्यजी ने
प्रवेश किया, मनोज और शशि को
यथोचित संबोधित किया, और फिर जैसा कि ‘किसी को ख़ुश करने के लिए जो करना चाहिए’, वह किया - मनोज के दोनोँ बेटोँ के नाम लेकर उनका हाल
पूछा।
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सन् 71-72 के ओशो |
अब मेज़बान हमें सबको लेकर हमेँ दाहिने एक कमरे मेँ
ले गए। वहां बाईं तरफ़ आचार्य जी का आसन था। सुनने वाले हम लगभग पच्चीस जन थे। कई
अभिनेत्रियां (मुझे हेमामालिनी याद है जो मेरी ओर देखकर पहचान-स्वरूप मुस्कराईं)।
इंदरराज आदि कुछ लेखक, मेरे मित्र गीतकार
इंदीवर, संगीतकार कल्याणजी
(जो ‘माधुरी’ मेँ चुटकुलोँ का एक
अधपेजी कॉलम लिखवाया करते थे)।
कार्रवाई शुरू होते ही बड़े भक्तिभाव से झुके-झुके
इंदरराज उठे। बोले, “आचार्यजी, आप का प्रवचन शुरू होने से पहले मैँ अपनी यह किताब
भेँट करना चाहता हूं और पढ़ना चाहता हूं कि आपके लिए मैंने क्या लिखा है”। आचार्यजी मुस्कराए, विहंसे और आरंभ का संकेत किया।
इंदरराज थोड़ा और आगे बढ़े, थोड़ा और झुके, हम लोगोँ को देखा, फिर आचार्यजी को। बड़े विनम्र भक्तिभाव से पढ़ा, “आचार्यजी, मैँ सड़क पर पड़ा पत्थर हूं, एक ठोकर मार कर मुझे कुछ आगे बढ़ा देँ।”
इंदरराज जी की भक्ति से मैँ बहुत प्रभावित हुआ। मेरी
पहली प्रतिक्रिया थी कि जिस के प्रति इंदरराजजी को इतनी श्रद्धा है वह निश्चय ही
कुछ होगा। पर आचार्यजी के मुंह से जो शब्द निकल्ले वे उनके टुच्चेपन का प्रमाण
निकले। अपने को बड़ा बनाकर इंदरराज को मूर्ख जताते बोले, “तू सचमुच सड़क पर पड़ा पत्थर है, वज्रमूर्ख है। तू जहां है वहां ही पड़ा रहेगा। मूर्ख, सड़क पर पड़ा पत्थर कहीँ नहीँ जाता। एक ठोकर लगा कर
आगे भेजेगा, तो दूसरा मुसाफ़िर
उधर से इधर धकेल देगा ।” इस तरह वह बके जाते
रहे। तभी उन्होने इंदरराज का शर्म से बुझा चेहरा और हम लोगोँ के चेहरों पर क्रोध, तो कुशल बाज़ीगर की तरह बात संभालने की कोशिश की, “लेकिन तूने जो कहा है, उसके पीछे की भावना प्रशंसनीय है” वग़ैरा
वग़ैरा।
मेरे लिए अचरज की बात यह थी कि भक्त बनने के इरादे से
आए लोगोँ ने रजनीश का वाचाल विष तथावत् पी लिया। वे समझे ही नहीँ आचार्य की तकनीक
- दूसरोँ को गिरा कर अपनी वाग्मिता से, इधर उधर की कथाएं सुना कर अपना मुरीद बनाने की कला।
1971-72 के साल आचार्य जी के अपने को बॉलीवुड मेँ
स्थापित करने के सुनियोजित साल थे। आचार्य से भगवान फिर ओशो बनने की सीढ़ी थे।
सिनेवार्ता जारी है...
अगली कड़ी, अगले रविवार
संपर्क - arvind@arvindlexicon.com / pictureplus2016@gmail.com
(नोट : श्री अरविंद कुमार जी की ये शृंखलाबद्ध
सिनेवार्ता विशेष तौर पर 'पिक्चर प्लस' के लिए तैयार की गई है।
इसके किसी भी भाग को अन्यत्र प्रकाशित करना कॉपीराइट का उल्लंघन माना जायेगा। संपादक-पिक्चर प्लस)
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