‘माधुरी’
के संस्थापक-संपादक अरविंद कुमार से
जीवनीपरक सिनेवार्ता; भाग-30
पंडित नेहरू के बाद
शास्त्री जी प्रधानमंत्री बने। सिनेमाघरोँ मेँ न्यूज़ रील मेँ शास्त्री जी दिखते
तो लोग उनके ठिंगने क़द पर हंसते थे। धीरे-धीरे यह हंसी आदर में बदलती जा रही थी। अनाज की तंगी
से देश परेशान था। शास्त्री जी ने सोमवार को व्रत नारा दिया। पाकिस्तान से तनाव
1965 के अप्रैल में शुरू हुआ, अगस्त-सितंबर तक
लड़ाई छिड़ चुकी थी। देश लगातार शास्त्रीजी के साथ था। फ़िल्म उद्योग भी लड़ाई मेँ
देश और सरकार से सहयोग के कई तरीक़े अपना रहा था। मुझे याद है शांताराम जी के
स्टूडियो में फ़िल्म उद्योग के नेताओं की सभा। एक-एक कर के ङद्योग के नेता जोशीले
भाषण दे रहे थे। चेतन आनंद का नाम पुकारा गया तो उन्होँने कहा, “मैं भाषण नहीं देता, मुझे जो कहना है वह
अपनी फ़िल्म में कह दिया है।” जिस फ़िल्म की बात वह
कर रहे थे वह थी –‘हक़ीक़त’।
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'हक़ीक़त' में धर्मेंद्र और प्रिया राजवंश |
सन् 1962 वाली चीन के
हमले से आक्रांत लद्दाख वाली लड़ाई में क़रारी हार हमारे माथे पर कलंक थी।
हिंदी-चीनी भाई भाई वाला नारा खोखला सिद्ध हो गया था। पंडित नेहरू सहित देश का
बच्चा बच्चा त्रस्त चला आ रहा था। 1964 में देश का मनोबल बढ़ाने के लिए यथार्थवादी
चेतन आनंद ने ‘हक़ीक़त’ की अधिकांश शूटिंग लद्दाख की पंद्रह हज़ार फ़ुट की
दुर्गम बर्फ़ीली पहाड़ियों में की थी।
बनते बनते ही ‘हक़ीक़त’ लीजेंड बन गई थी। बंबई मेँ हर दिन नए क़िस्से सुनने
को मिलते– किस तरह चेतन ने पहले सैनिक कलाकारोँ को दौड़ा-दौड़ा
कर थकाया ताकि उनके चेहरों, बदन, लथपथ कपड़ों की ढलन और हावभाव मेँ यह सब बिना कहे दिखाई दे...किस तरह
मोहम्मद रफ़ी, तलत महमूद, मन्ना डे और भूपी
(भूपिंदर सिंह) ने ‘हो के मज़बूर मुझे उसने भुलाया होगा’ गाया।
“पहाड़ियों में दुश्मन
के बीच फंसी पलटन को सुरक्षित स्थान तक पीछे हटने का हुक्म दिया गया था। लेकिन उससे संपर्क टूट गया था।
बच निकलना संभव नहीँ था। वे सब नष्ट हुए समझे जा रहे थे, लेकिन वे स्थानीय लद्दाखी
लोग मदद से ज़िंदा थे। उनका कप्तान बहादुर सिंह (धर्मेंद्र) और उसकी लद्दाखी
प्रेमिका अङंग्मो (प्रिया राजवंश) बाक़ी सबको बचाने की कोशिश में शहीद हो जाते
हैँ। फ़िल्म हार की कहानी न रह कर देश के लिए लड़ते लड़ते मर जाने की दास्तान बन
जाती है। सिनेमा घर से बाहर निकलते दर्शक के गान में गूंजता रहता है मोहम्मद रफ़ी
का शहादत की गवाही देता अमर गीत- ‘कर चले हम फ़िदा जानो तन साथियो’।”
उल्लेखनीय है कि ‘हक़ीक़त’ ने तैयार की थी 1971 की भारत-पाक युद्ध की पृष्ठभूमि
में बनी जे.पी. दत्ता की ‘बौर्डर’ की ज़मीन। 1968 की ‘हमसाया’, 2003 की ‘ऐल.ओ.सी. कारगिल’, 2004 की ‘लक्ष्य’, 2012 की ‘चक्रव्यूह’, 2013 की ‘मद्रास काफ़े’ जैसी अन्य अनेक फ़िल्म भी इसी से प्रेरित कही जा सकती
हैं।
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इतनी सुंदर और कुलीन लगती थीं प्रिया राजवंश |
चेतन ने हिंदू
धर्मशास्त्रों की शिक्षा गुरुकुल कांगड़ी विश्वविद्यालय में पाई, लाहौर के गवर्नमैंट
कॉलेज से इंग्लिश भाषा के स्नातक बने, बीबीसी (लंदन) मेँ काम किया, कुछ समय देहरादून के
दून स्कूल मेँ अध्यापन किया, सम्राट अशोक पर फ़िल्म कथा बेचने बंबई आये फणि मजूमदार के पास जिन्होँने
उन्हेँ 1944 की राजकुमार का नायक बना दिया – यह है उनके फ़िल्म जगत में प्रवेश की वास्तचविक गाथा।
तीन जनवरी 1921 को
लाहौर मेँ जन्में चेतन उम्र में मुझसे दस साल बड़े ज़रूर थे, पर यह फ़ासला हम दोनों के बीच कोई बाधा नहीँ था। मैँ उनका प्रशंसक बंबई आने
से पहले से ही था, क्योँकि ‘नीचा नगर’ फ़िल्म के निर्माता, लेखक और निर्माता के रूप मेँ उन्हें कान (Cannes) फ़िल्म फैस्टिवल(1946)
मेँ पाम द’ओर (Palme d'Or) (श्रेष्ठ फ़िल्म) सम्मान मिला था। वह
तीनों आनंदों (चेतन, देव और विजय) में सबसे बड़े थे। शुरू में वही उनके नेता थे, देव आनंद को ले कर ‘अफ़सर’ बनाई थी, जो दिल्ली में मुझे
अच्छी लगी थी। वह कलात्मक फ़िल्मों के पैरोकार माने जाते थे। कुल मिलाकर उन्होँने
सोलह फ़िल्मेँ बनाईं, जिनमें ‘हक़ीक़त’ आठवीँ थी।
सन् 1943 में उनकी
शादी हुई थी उमा से, जिनसे उनके दो पुत्र हुये केतन और विवेक आनंद। दोनों बेटों के जन्म के बाद
उन्होंने उमा जी को छोड़ दिया था, बेटे उनके ही साथ रहते थे।
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‘हक़ीक़त’ मेँ नायिका अङंग्मो
के रूप मेँ से फ़िल्मोँ मेँ प्रवेश करने वाली प्रिया राजवंश (वेरा सुंदरसिंह) का
जन्म 1937 में शिमला में हुआ था, जहां वे रंगमंच पर
अभिनय करती थीँ। सरकारी काम से पिता लंदन गये तो वेरा ने लंदन की विश्व प्रसिद्ध रॉयल
अकादेमी ऑफ़ ड्रैमैटिक आर्ट्स मेँ प्रवेश ले लिया। वहां का कोई फ़ोटो बंबई में
चेतन आनंद ने देखा और चेहरे-मोहरे से लद्दाखी अङंग्मो जैसी लगने के कारण ‘हक़ीक़त’ में ले लिया। लेकिन उसके बाद कहीँ
काम नहीँ मिल रहा था। अकसर वह मेरे पास आ जातीं ‘माधुरी’ दफ़्तर मेँ। अपनी कठिनाइयों की बात करतीं। कहतीं-1964
में मेरे ही समय ‘दोस्ती’ से फ़िल्मोँ में आने
वाले संजय ख़ान को काम पर काम मिले जा रहा है, मुझे कोई नहीँ पूछता।
कई बार मैँ उनकी उच्चवर्गीयता और बौद्धिकता की ओर इशारा करता। कहता कि आम बंबइया
निर्माता उनसे बात करता हिचकिचाता होगा। जो भी हो, प्रिया को फ़िल्म नहीँ मिल रही थीं। धीरे-धीरे मेरा उनसे
संपर्क टूटता गया। बस, इतना पता था कि वह और चेतन अब एक साथ रहते हैं।
शैलेंद्र जी और अभिनेता चंद्रशेखर के अतिरिक्त मैं कभी किसी फ़िल्म वाले से निजी
घरेलू स्तर तक नहीँ गया। 1978 में बंबई छोड़ कर दिल्ली-गाज़ियाबाद आ गया समांतर
कोश बनाने।
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प्रिया राजवंश और चेतन आनंद |
मार्च सन् 2000 अख़बारों में
पढ़ा कि बड़े रहस्यमय तरीक़े से प्रिया घर में मृत पाई गईं। पता चला कि मृत्यु के
समय 1997 में चेतन जी अपने दोनोँ बेटोँ के साथ प्रिया को संपत्ति का बराबरी का
हिस्सेदार बना गये थे। तफ़तीश में मामला हत्या का निकला। पुलिस ने चेतन जी के बेटों
- केतन और विवेक सहित नौकरानी माला चौधरी और मुलाज़िम अशोक चिन्नास्वामी पर हत्या
का आरोप लगाया। वज़ह थी कि प्रिया संयुक्त बंगले का अपना एक तिहाई हिस्सा बेचना चाहती
थीं। गवाही में पेश किया गया प्रिया का विजय आनंद के नाम लिखा हस्तलिखित पत्र, जिसमें
प्रिया ने बेटों द्वारा सताये जाने की शिकायत की थी और मौत के डर की भी बात की थी।
जुलाई 2002 को आजीवन कारावास की सज़ा सुनाई जो 2011 में उच्च न्यायालय ने मंसूख़
कर दी। असल में क्या हुआ था, प्रिया कैसे मरी – यह रहस्य ही रहेगा।
सिनेवार्ता जारी है...
अगली कड़ी, अगले रविवार
संपर्क - arvind@arvindlexicon.com / pictureplus2016@gmail.com
(नोट :
श्री अरविंद कुमार जी की ये शृंखलाबद्ध सिनेवार्ता विशेष तौर पर 'पिक्चर
प्लस' के लिए
तैयार की गई है। इसके किसी भी भाग को अन्यत्र प्रकाशित करना कॉपीराइट का उल्लंघन
माना जायेगा। संपादक-पिक्चर प्लस)
फिल्मों लोगों की अंदर की बात उजगर करने के लिए पिक्चर+ को साधुवाद!
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