‘सिनेमा की बात’
अजय ब्रह्मात्मज* के साथ
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'वीरे दी वेडिंग' : औरतों की जुबान पर मर्दों के अल्फाज़ |
अजय ब्रह्मात्मज-फ़िल्म के संवाद फ़िल्म के अनुरूप हैं। उसमें कुछ भी गलत
नहीं है। संवाद स्वाभाविक हैं और कहानी को गति प्रदान करने में भी सहायक हैं।
-फिल्मों में भाषा के स्तर में जो लगातार गिरावट हो रही है, क्या ये आज के सोशल
मीडिया और उसकी चालू भाषा का प्रभाव है?
अजय ब्रह्मात्मज - देखिए कोई भी फ़िल्म जब बनती है तो जैसे किरदार उसके होते
हैं उसी के अनुरूप उसकी भाषा होती है और होनी भी चाहिए। भाषा ही नहीं, उसकी
पृष्ठभूमि, उसका परिवेश सभी किरदार के अनुकूल होते
हैं। लेखकों पर भी यह निर्भर करता है कि वे किस तरह की भाषा परोस रहे हैं। वे जैसी
भाषा दे रहे हैं या कहीं न कहीं प्रोड्यूसर या निर्माता भी उसमें लेखकीय योगदान दे
रहे हैं तो ये सब आजकल के समय के अनुसार ही है। उसमें कुछ भी आपत्तिजनक नही है।
-‘ओमरेटा’ में अगर भाषा देखें तो नब्बे फीसदी अंग्रेजी भाषा। है जबकि हम इसे हिंदी सिनेमा कहते हैं। तो आपकी नजर
में इतनी अंग्रेजी का उपयोग सिनेमा के लिए कितना लाभदायक है? हिंदी
के दर्शकों को इससे क्या मिलता है?
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अजय ब्रह्मात्मज |
अजय ब्रह्मात्मज- ‘ओमरेटा’ में सबसे बड़ी चुनोती उसकी थीम थी। उसका नायक लंदन में पढा-लिखा पाकिस्तानी था। और इसका उद्देश्य
भी मेरे ख्याल में पूरा हुआ है निर्माताओं का। वे जिन लोगों तक इसे पहुंचाना चाहते
थे उसमें वे सफल भी हुए हैं और ये लोग फ़िल्म के आम दर्शक नहीं हैं। वैसे देखें तो
हम अपने जीवन में भी अंग्रेजी का उपयोग बखूबी करने लगे हैं। उदाहरण के लिए Now i am going बोल देते हैं। वैसे भी भाखा बहता नीर है। आप देखें हमारे पूर्वज जो भाषा
बोलते थे और अब हम जो बोल रहे हैं उसमें जो परिवर्तन हुआ है हो सकता है यह
परिवर्तन आगे और अधिक हो। हमारी आने वाली नस्लें न जाने किस भाषा को अपनाने लगें।
अंग्रेजी के समकक्ष दूसरी ओर चीनी भाषा को देखें या पंजाबी को जिसका इस्तेमाल
हिंदी फिल्मों के गाने में भी हो रहा है तो भाषा बंधन नहीं होनी चाहिए। हमें हर
भाषा को स्वीकार करना चाहिए। एक बात और, जब निर्माता-निर्देशकों को लगने लगेगा कि अंग्रेजी भाषा नहीं चलेगी तो वे अंग्रेजी का
उपयोग करना बंद कर देंगे। अतः हमें हर भाषा को लेकर चलना चाहिए।
-हिंदी फिल्मों में बोल्ड संवाद की भी एक परम्परा रही है। विषय के अनुकूल कई
कला फिल्मों में इसका बखूबी गंभीरता से इसका उपयोग भी हुआ है। लेकिन द्विअर्थी
संवाद को हमेशा सी-ग्रेड की चीज माना गया जोकि अब ए-ग्रेड मेनस्ट्रीम में भी समा गया
है, इसके बारे में आप क्या कहना चाहेंगे?
अजय ब्रह्मात्मज-देखिए,पहली बात अब कला फिल्मों जैसा कुछ भी नहीं रहा है।
सब कॉमर्शियल फिल्म हैं। जितनी भी फिल्में बन रही हैं सब कॉमर्शियल हैं। सिनेमा को
किसी एक प्रकार में बांधना मुमकिन नहीं। तो ये प्रश्न ही नहीं उठता। दूसरी बात जो
आप बोल्ड या द्विअर्थी संवाद की बात कर रहे हैं वे हमेशा से फ़िल्मों के अनुरूप होते
रहे हैं।
-‘वीरे दी वेडिंग’ हो या ‘गैंग्स ऑफ वासेपुर’, ‘मार्गरेटा विद ए स्ट्रॉ’, ‘पार्च्ड’ इन जैसी फिल्मों में एक चौंकाने वाली बात ये है कि अब तक जिस तरह के संवाद पुरुष
कलाकार बोला करते थे उसे अब महिला कलाकार भी बिंदास बोल रही हैं। ये बदलाव भविष्य
में किस तरह का संकेत करते हैं फिल्मों के लिए?
अजय ब्रह्मात्मज-पहली बात तो ये कि आप खुद इसे किस रूप में देखते हैं? सकारात्मक या नकारात्मक? अगर आप इसे सकारात्मक ले रहे हैं तब ठीक, अन्यथा यह रूढ़िवादी और
पुरुषसत्तात्मक सोच होगी। बाकी मेरे ख्याल में ये कोई भी चौकाने वाली बात नहीं है।
इसमें इतनी हैरानी वाली कोई बात नहीं कि अब तक पुरुष जिन संवादों को बोल रहे थे वो
महिला कलाकारों द्वारा बोले जा रहे हैं। समाज जैसा होगा भाषा भी वैसी ही होगी। 00
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प्रस्तुति - तेजस पूनिया
राजस्थान केंद्रीय विश्वविद्यालय में हिंदी एमए के छात्र।
संपर्क-9166373652
*अजय ब्रह्मात्मज विख्यात फिल्म समीक्षक हैं। सिनेमा की कई पुस्तकों के
रचयिता हैं। विश्वविद्यालयों में सिनेमा पर व्याख्यान देते हैं। मुंबई में निवास।
संपर्क-9820240504
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