‘माधुरी’ के संस्थापक-संपादक अरविंद कुमार से
जीवनीपरक सिनेवार्ता; भाग-37
मेरी नज़र में जितेंद्र उन संयत, समझदार और सूझबूझ वाले लोगों में है
जिन्हें अपने भाग्य का लिखेरा कहा जाता है।
‘भाग33- राजेश खन्ना-1’ में मैँने लिखा था, “दोनोँ का जन्म सन् 1942 मेँ अमृतसर मेँ हुआ, दोनोँ वहां से बंबई आए। राजेश खन्ना के.सी. कालिज मेँ
पढ़ रहा था तो जितेंद्र सिद्धार्थ कालिज में। दोनोँ को अभिनय मेँ दिलचस्पी थी।
जितेंद्र को स्क्रीन टेस्ट मेँ जाना था, तो कोचिंग राजेश ने की थी। राजेश खन्ना की
मृत्यु (18 जुलाई 2012) तक दोनोँ की दोस्ती क़ायम रही। शांताराम की ‘गीत गाया पत्थरोँ ने’ (1964) में उनकी
बेटी राजश्री के साथ आकर जितेंद्र लोकप्रिय तो हो चुके थे, पर पैर नहीँ जमा पाए
थे।”
जितेंद्र का सौभाग्य था कि उसकी सभी शुरुआती फ़िल्म एक दूसरे
से बिल्कुल अलग थीं। शांताराम निर्मित-निर्देशित अपनी पहली फ़िल्म ‘गीत गाया पत्थरोँ ने’ में वह मंदिर के गरीब मूर्तिकार का बेटा विजय है जो
नायिका विद्या (राजश्री) के नृत्य देखकर मूर्तियां बनाने को प्रेरित
होता है। विद्या की तथाकथित मां के कुटिल इरादोँ से बचती विद्या विजय के पास आती
है। दोनोँ शादी करना चाहते हैँ लेकिन विजय का बाप विद्या को वेश्या समझ बैठता है
और शादी से इनकार कर देता है। लेकिन अपने विजय के चाचा की मदद से शादी हो जाती है।
एक धनी आदमी अपनी हवेली को प्राचीन मूर्तियों की प्रतिकृतियों से सजाने के लिए
विजय को ले जाता है। लौटने पर विजय का पिता कह देता है कि विद्या किसी रईस की रखैल
बन गई है। अंततः ग़लतफ़हमियां दूर होती हैं, विद्या हवेली वाले धनी की अपहृत
बेटी सिद्ध होती है। शांताराम ने कहानी को उत्कट भावनाओं से ओतप्रोत किया था, जैसा
बस वही कर भी सकते थे।
राजेश की पहली फ़िल्म दो साल बाद आई ‘आख़री ख़त’ (1966) और अगले साल 1967 में आईं तीन फ़िल्मेँ ‘राज़,’ ‘बहारोँ के सपने’, ‘औरत’- और वह एकदम सुपरस्टार बन गया।
1964 से कुछ महीने तक कोई नया काम नहीँ मिल रहा था। उत्साही जितेंद्र बेचैन था। जैसे तैसे एक
फ़िल्म शुरू तो हुई पर आर्थिक संकट में फंस गई। हार न मानने वाले जितेंद्र ने उसे आगे
बढ़ाने के लिए कुछ पैसा अपना लगाया, कुछ जान पहचान वालोँ से लगवाया। (यह था अपनी
सफलता अपने आप लिखने का जितेंद्र का पहला उदाहरण। वह जानता था कि बॉलिवुड में जमना है,
तो हाथ-पैर मारने ही होँगे। अगली फ़िल्म आनी ही चाहिए।)
और जब 1967 में आईं तो राजेश की तीन के मुकाबले जितेंद्र की चार आईं –‘फ़र्ज़’, ‘परिवार’, ‘गुनाहोँ का देवता’ और शांताराम
निर्मित-निर्देशित ‘बूंद जो बन गई मोती’। चारोँ में वह अलग नायिकाओं के साथ आया - ‘फ़र्ज़’ में बबीता, ‘गुनाहोँ का देवता’ में राजश्री, ‘परिवार’ में नंदा और ‘बूंद जो बन गई मोती’ में मुमताज। इनमें हर फ़िल्म की
बैकग्राउंड और कथावस्तु भी अलग थी।
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' फर्ज' से जितेंद्र की बनी जंपिंग जैक की इमेज |
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-‘गुनाहोँ का देवता’ के नाम को लेकर ‘माधुरी’ सहित अनेक पत्र-पत्रिकाओँ में बहुत विरोध हुआ क्योँकि यह डॉ. धर्मवीर भारती के
बेहद लोकप्रिय उपन्यास का नाम भी था। पर विरोध बेकार गया। किताबोँ के नाम का न तो
कापीराइट होता, न ट्रेडनेम और न ही पेटेंट। हां, फ़िल्म के आरंभ
में यह जानकारी ज़रूर दी गई कि “डॉ भारती के उपन्यास के नाम से
इसका नाम मिलता है, पर उससे कोई संबंध नहीँ है”।
दिन रात सुरा सुंदरी और जुआघरों में गुज़ारने वाला धनी सुंदर, ईमानदार
और साहसी कुंदन (जितेंद्र) एक दिन फ़िदा हो गया अल्मस्त टॉमबॉय लड़की केसर (जयश्री)
पर। यह लड़की भी टक्कर की है – हिम्मत वाली निडर और कुछ भी करने पर उतारू। जितना
कुंदन उसकी तरफ़ बढ़ता है उतना ही केसर उससे दूर होती है। कहानी में कुंदन और
परिवार पर मुसीबत पर मुसीबतें आती हैँ। अजीब पेंचदार कहानी नायक नायिका को हर तरह
के भाव अभिव्यक्त करने का मौक़ा देती है जिनपर दोनों खरे उतरते हैँ।
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जितेंद्र और मुमताज - दिल की बातें |
शिक्षा के क्षेत्र में नए प्रयोग करने वाला नौजवान अध्यापक सत्यप्रकाश
(जितेंद्र) प्रबंधकोँ की आंख में खटकता है। निजी पारिवारिक घटनाओं के
फलस्वरूप नायक हत्या के झूठे आरोप में फंस जाता है। गांव की गोरी शेफाली की
मदद से वह बेदाग़ बच निकलता है।
-‘परिवार’
बस मेँ मिले डॉक्टरी के छात्र गोपाल (जितेंद्र) और मीना (नंदा)
एक दूसरे को चाहने लगे। सौतेली मां ने घर से निकाल दिया, तो मीना की मदद से नया
मकान मिल गया, दोनों ने शादी कर ली, तीन बच्चे हो गए। बेटी की मौत से मीना बिखर सी
गई। घरवालों की साज़िश से गोपाल को हत्या के ज़ुर्म में पकड़ लिया गया...। कहानी
इन दोनोँ के संकटोँ से उभरने की है।
चारोँ नई फ़िल्मोँ में जितेंद्र ने बढ़िया काम किया। अच्छे अभिनय की
उसकी परिभाषा सबसे अलग थी –“एक्टिंग वही जो पब्लिक
चाहे”।
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शानदार दोस्ती |
‘फ़र्ज़’ तो सुपर हिट हुई। जितेंद्र का सिक्का चल निकला। ‘मस्त बहारोँ का मैँ
आशिक’ गीत पर नाच जितेंद्र की पहचान बन गया। नाचों में ज़िंदादिली उस का
ट्रेडमार्क बन गई, वह ‘जंपिंग जैक’ कहलाया जाने लगा। धीरे धीरे उस का स्टाइल और नायिकोँ के साथ उसकी
अदाएं बॉक्स ऑफ़िस पर रंग दिखाने लगे।
कुछ महीने बाद की बात है। दिल्ली में छुट्टी बिता कर बंबई लौटा तो एक
दिन ताराचंद जी (बड़जात्या) ने हमेशा की तरह बुलवा भेजा। अभिनेताओं की
लोकप्रियताओँ के कारणों पर बात होने लगी। मैंने जितेंद्र की अदाओं पर मेरे दोस्त
ब्रजबिहारी टंडन का एक रिमार्क बताया तो बड़जात्या जी ने तत्काल अपने टाइपिस्ट को
बुलवा भेजा और कहा कि एक बार फिर से बताओ। (पता नहीँ इस सीरिज़ में मैंने पहले यह लिखा था
या नहीँ: बड़जात्या जी श्री ऑरोबिंदो आश्रम की श्रीमां (मदर) के इतने भक्त थे कि
दफ़्तर के हर दस्तावेज या टिप्पणी की एक प्रति भी श्रीमां को भेजी जाती थी।
मेरा यह संवाद भी वहां भेजा जाने वाला था।) तो टाइपिस्ट ने टंकित किया टंडन का यह रिमार्क: “जितेंद्र का नायिका के कूल्हे से कूल्हा टकराना जितेंद्र के मन में
नायिका के प्रति उपेक्षा भाव या अवहेलना दर्शाता है।” ताराचंद जी के लिए
यह एक अनोखा दृष्टिकोण था। मेरे लिए भी, तभी तो मैंने यह उनसे कहा
होगा।
एक बात और।
मेरी नज़र में जितेंद्र अपने परिवार से जुड़ा शख़्स था। अगस्त 1976 में टाइम्स के कुछ संपादकोँ को मॉरीशस जाना था।
दूरदर्शन के लिए कमलेश्वर ने मेरा इंटरव्यू लिया था। उसके अगले दिन शाम को लगभग पांच बजे मैं जितेंद्र
के घर पहुंचा किसी काम से। अपने माता पिता के साथ बैठा वह उस इंटरव्यू का रिपीट
देख रहा था। (उन दिनोँ टीवी एक करिश्मा था और अकेला एक चैनल था दूरदर्शन। हर छोटा
बड़ा मौक़ा मिलते ही देखने लगता था।)
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'परिचय' में जितेंद्र और जया भादुड़ी |
जितेंद्र ने कुल कितनी फ़िल्मोँ में काम किया इसका
कोई प्रामाणिक लेखा-जोखा नहीँ है। कोई कहता है 200, तो किसी का कहना है कि उसने कम से
कम 156 फ़िल्में कीं। शादी वाले प्रसंग से पहले जितेंद्र और हेमामलिनी की एक साथ कुछ फ़िल्म
- वारिस, भाई हो तो ऐसा, गहरी चाल, ख़ुशबू (गुलज़ार), किनारा (गुलज़ार) फ़्लाप, हम तेरे आशिक
हैं। जब गुलज़ार निर्देशित फ़िल्में फ़ेल होने लगीँ, तो जितेंद्र एक बार फिर
जंपिंग जैक बन गया।
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अरविंद कुमार |
उस के ज़माने में हर हीरोइन उस के साथ काम करने को उतावली थी –लीना
चंदावरकर, रीना राय, नीतु सिंह, बिंदिया गोस्वामी, सुलक्षणा पंडित, मौसमी चटर्जी,
रेखा, श्रीदेवी, हेमामालिनी...।
सिनेवार्ता जारी है...
अगली कड़ी, अगले रविवार
संपर्क - arvind@arvindlexicon.com / pictureplus2016@gmail.com
(नोट : श्री
अरविंद कुमार जी की ये शृंखलाबद्ध सिनेवार्ता विशेष तौर पर 'पिक्चर प्लस' के लिए तैयार की गई है। इसके किसी भी भाग को
अन्यत्र प्रकाशित करना कॉपीराइट का उल्लंघन माना जायेगा। संपादक-पिक्चर प्लस)
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