‘माधुरी’ के संस्थापक-संपादक अरविंद कुमार से
जीवनीपरक सिनेवार्ता; भाग-43
केदार शर्मा विशेष 2
सफ़ेद कार्डों पर मोटे भारी अक्षरोँ
में लिखी फ़िल्म की नामावली शुरू होती है। पार्श्व में भक्ति भाव से भरा सुमधुर
वाद्यवृंद सुनाई देता है। अगरबत्तियों का हल्का धुआं धार्मिक वातावरण की सृष्टि कर
रहा है। पेड़ की दोमोटी शाखाएं दो तरफ़ झुकी हैं। उनके पार शांत झील में हलकी लहरें।
कोट पहने नौजवान फ़्रेम के दाहिने कोने में दिखाई देता है। मुड़ कर झील में पत्थर
फेंकता है। मीरांबाई के भजन के मधुर स्वर वातावरण को व्याप रहे हैं–“घूंघट के पट खोल रे तोहे पिया मिलेंगे।” कबूतर
मंदिर के शिखर पर उतर रहे हैं। इससे पता चलता शाम हो आई है। मंदिर में साध्वी
मीरादेवी (नरगिस) का क्लोज़प। मधुर गीत से खिंचा निर्वस सा नौजवान विजय (दिलीप
कुमार) मंदिर के द्वार पर–
इस तरह शुरू होती है हिंदी सिनेमा में
अपनी तरह की एकमात्र फ़िल्म सन् 1950 की ‘जोगन’। नौजवान
विजय की तरह निर्वश मैँने भी यह कई बार देखी। पंडित केदार शर्मा से बार बार बात की।
सारी कहानी आसानी से कहने और बड़ी सादगी से उसका मूल कथ्य दर्शक के मन में गहरे
उतार देने के पीछे जो कौशल चाहिए होता है उसका एक सुंदर उदाहरण है ‘जोगन’।
‘जोगन’ तक नरगिस
लोकप्रियता के शिखर पर पहुंच चुकी थी, जब 'किसन' 1944 में ‘ज्वार
भाटा’ से बरास्ता ‘जुगनू’
(1947), ‘शहीद’ (1948) और ‘शबनम’
(1949) के बाद ‘जोगन’ दिलीप कुमार की कुल पांचवीं फ़िल्म
थी। इसकी शूटिंग में निर्देशक केदार शर्मा ने दिलीप कुमार को दिखाया-सिखाया था चेहरे
पर भाव परिवर्तन का गुर। हम लोग ‘जोगन’ का
एक प्रिंट साथ-साथ देख रहे थे। एक पेचीदा दृश्य पर रुक कर पंडितजी ने मुझे बताया, “दिलीप अपने को नाकाफ़ी पा रहा था। मैंने उसे एक एंगल से क्लोज़प पर
बैठा दिया, कैमरा चल रहा था, मैं एक के बाद एक मौजूँ शेर सुनाता रहा, कहा,“तू बस शेर सुन और रीऐक्ट करता रह।”
पूरा शॉट कमाल का साबित हुआ। आंखोँ और चेहरे से, चाल-ढाल और हाव-भाव से बहुत कुछ
कह देना दिलीप के अलावा कोई और कलाकार लाख जतन कर के भी अभी तक नहीं कर पाया।‘
निर्माता चंदूलाल शाह के इसरार पर ही
बनी थी यह फ़िल्म। 1898 में जन्मे शाह ने शुरूआत की थी 1924 में मूक फ़िल्मों के
निर्देशन से। अब वह ‘श्रीरंजीत मूवीटोन’
कंपनी के मालिक थे। यह उस ज़माने की चलचित्र बनाने वाली चंद बड़ी कंपनियों ‘बांबे
टाकीज़’, ‘न्यू थिएटर्स’ और ‘प्रभात
फ़िल्म कंपनी’ के साथ गिनी जाती थी और उनसे टक्कर लेती थी। उसके वेतनभोगियोँ में
थीँ अभिनेत्री गौहर, माधुरी, ख़ुर्शीद और अभिनेता ई. बिल्ली मोरिया, मोतीलाल,
कुंदन लाल सहगल जैसी हस्तियां। कंपनी के बारे में एक मुहावरा चलता था, “आसमान के सितारों से कहीँ ज़्यादा सितारे रंजीत में हैं”। सितारे ही नहीँ, उनकी कंपनी में फिल्म से संबंधित हर विभाग में चोटी
के लोग थे। तब के सुप्रसिद्ध निर्देशक नितीन बोस और महेश कौल भी उन्हीं में से थे।
और ‘जोगन’ के संगीतकार बुलो सी. रानी भी।
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घूंघट के पट खोल रे... |
शाहजी के पास कहानी का बस एक लाइन का आइडिया
था। उसका आधार थी कोई इंग्लिश फ़िल्म, जिसका नायक ईसाई साध्वी से प्रेम में पड़
जाता है। नितीन बोस और महेश कौल ने बात चुटकियों में उड़ा दी, “इस पर फ़िल्म?! चलेगी ही नहीँ।”
केदार शर्मा ने चुनौती स्वीकार कर ली।
पूरी फ़िल्म 29 (उनतीस) दिनों में बना डाली। फ़िल्म भी कैसी जो आज की अच्छी
फ़िल्मों टक्कर लेती है - नरगिस और दिलीप कुमार वाली जोड़ी की सर्वोत्तम फ़िल्मों
में से एक!
‘नास्तिक’
दिलीप बहुत समय बाद गांव आया है। शाम को झील किनारे जो भजन सुना, उसकी दुनिया ठहर
गई। गायिका के सुंदर चेहरे पर अनोखी नैसर्गिक शांति उसे खींच
रही है। कुछ दिन के लिए जायदाद बेचने आया था, वहीं
ठहर जाता है। बहुत बोलने वाली लड़की मंगू (तब बाल कलाकार तबस्सुम) की
चटरपटर नायक और नायिका का हाल एक-दूसरे तक पहुंचाती है।
परिवार की संचालक महिला
सत्संग में जा रही है। सोचती है नास्तिक विजय क्यों चलेगा उस के साथ? विजय का जवाब चौँकाने वाला था, “न, न,
मैं कोई पक्का नास्तिक नहीँ हूं, अच्छा गुरु मिले तो बदल भी सकता हूं।” सत्संग के बाद भी विजय
साध्वीजी के आसपास मंडराता रहता है। साध्वीजी कहती हैं,
“मेरे
सत्संग में पुरुष वर्जित हैँ, तुम क्योँ आए?”
वह जानना चाहता है,“मीरा
भरी जवानी में साध्वी क्योँ बनी?”“मुझे संसार असार लगा।” वह मीरा की आंखोँ में
दिखते गहरे दर्द की बात करता है। मीरा ने उसे झिड़क दिया। कमरे का दरवाज़ा बंद कर
लिया।
अगली बार सत्संग के बाद
विजय से मीरा देवी ने साफ़-साफ़ कह दिया कि वह न आया करे। “मेरा चित्त भटक जाता
है। भजन गाते पहली बार सिर उठा कर ऊपर देखा।” विजय और न आने का वादा कर देता है।
उधर कक्ष में मीरा देवी
मन में जागे नए भाव समझ नहीं पा रहीं। बीमार साध्वी को देखने विजय वैद्यजी को
भिजवाता है। हर सुबह मीरा के दर पर फूल रख आता है।
और एक शाम नदी किनारे
विजय को मीरा देवी दिख जाती हैं। वह पूछती हैं कि वह फूल क्यों चढ़ाता है उन पर।
वह पूछता है, “यह फूल लिय़े आप क्या कर रही हैं।”“नदी में विसर्जित करने आती हूं।”
दोनों बातें करने लगते
हैं। “अब
वह आता क्यों नहीं?” “आप ने मना जो कर रखा है।” मीरा देवी मान जाती हैं कि उसकी मौजूदगी से उनका मन अशांत
भंग हो जाता है। फिर भी समझ में नहीं पातीं कि वह उस से बातें करना क्यों चाहती
हैं।
“क्या दो जनों का बातें करना पाप है?”
“हां,है
-मेरे लिए। हम कोई सत्संग तो नहीं कर रहे।”
विजय पूछ ही बैठता है,“आप
साध्वी क्यों बनीं?
यही सवाल मेरे मन को दिन रात मथता रहता है।”
अब साध्वी ने अपनी
कहानी बताई। “मेरा
नाम सुरभि है, बहुत बड़े लेकिन बूढ़े
ज़मींदार राजा की बेटी। पिताजी भारी कर्ज़ में डूबे थे, भाई शराब में खोया रहता
था। मेरे पास अपने भाव कविता में लिखने गाने के अलावा कुछ और नहीँ था। रूमानी सपने
बुनती सखियों के साथ खिलवाड़ में अपने को खो देती। इसी में मुझे शाश्वत प्रेम
दिखता था। पैसे के लालच में भाई ने जर्जर बूढ़े से रिश्ता तय कर दिया। पिता लाचार
थे। शादी के मंडप जाने के बजाए मैं बच कर भाग आई। यहां मठ में शरण मिली। मन ही मन
टूटे सपने अंगार बन कर मन को दहते रहते हैं। उन्हीं से बचती हूं।”
अचानक देवी ने संवाद
बंद कर दिया। मठ छोड़ कर चली गईं। पर उस से कुछ शांति मिली क्या?
संक्षेप में ‘जोगन’
की जटिल प्रेमकथा का कोई अंत है क्या? अतृप्त प्रेम कहो या आसक्ति या भावना यही है एक नास्तिक और साध्वी
की कहानी का मूल। इस अतृप्त पिपासा के टकराव पर ही कसी जा रही है साध्वी की साधना।
अंततः नायक विजय के प्रति आकर्षण से परेशान हो कर सब कुछ त्याग कर वह विलीन
हो गई। इस घटनाचक्र में जितने भी भिन्न और परस्पर विपरीत भाव हो सकते हैं, वे सब
नरगिस ने साकार कर दिखाए थे।
‘जोगन’ का
संगीत दिया था बुलो सी. रानी ने। तेरह
के तेरह गीत लोकप्रिय हुए। हर गीत कहानी में पिरोया गया है, और उसे आगे बढ़ाने मदद
करता है। कुछ गीत तो पांच दस मिनट के फ़ासले पर आ जाते हैं। जब जी चाहें आप इनका
मुखड़ा इंटरनेट पर लिख कर सुन सकते हैं।
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अरविंद कुमार |
घूंघट के पट खोल रे
तोहे पिया मिलेंगे (गीता रॉय. मीरा बाई)
मैं तो गिरधर के घर जाऊं (गीता रॉय. मीरा बाई)
ज़रा थम जा तू ऐ सावन (गीता रॉय. हिम्मत राय शर्मी)
डारो रे रंग डारो के रसिया (गीता रॉय. पंडित इंद्र)
काहे नैनों में नैना डाले रे (शमशाद बेगम. बी.आर.
शर्मा)
जिन आंखों की नींद हराम हुई (शमशाद बेगम. बी.आर. शर्मा)
गेंद खेलूं कान्हा के संग (गीता रॉय. पंडित इंद्र)
चंदा खेले आंखमिचौली (गीता रॉय. पंडित इंद्र)
सखी री चितचोर नहीँ आए (गीता रॉय. पंडित इंद्र)
सुंदरता के सभी शिकारी (तलत महमूद. पंडित इंद्र)
मैं तो प्रेम दीवानी (गीता रॉय. मीरा बाई)
डगमग डगमग डोले नैया (गीता रॉय. केदार शर्मा)
उठ तो चले अवधूत (गीता रॉय. मीरा बाई)
सिनेवार्ता जारी है...
अगली कड़ी, अगले रविवार
संपर्क - arvind@arvindlexicon.com
/ pictureplus2016@gmail.com
(नोट:श्री अरविंद कुमार जी की ये
शृंखलाबद्ध सिनेवार्ता विशेष तौर पर 'पिक्चर प्लस' के लिए तैयार की गई है। इसके किसी भी भाग को
अन्यत्र प्रकाशित करना कॉपीराइट का उल्लंघन माना जायेगा। संपादक-पिक्चर प्लस)
जोगन की कहानी पढ़ कर ऐसा प्रतीत हुआ की पूरी फिल्म देख ली......!!
जवाब देंहटाएंबहुत सुंदर