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एक 'जोकर' के सपनों का महल ! |
*संजीव श्रीवास्तव
वाकई दिल पर पत्थर रख कर ये फैसला लिया गया होगा। जिस आरके स्टूडियो
ने हिंदी सिनेमा को बुलंदियों तक पहुंचाने में अपना योगदान दिया, उस आरके स्टूडियो
की विरासत को परिवार का विस्तृत कुनबा भी संभाल नहीं पाया। रणधीर कपूर अब सभी रेस
से रिटायर्ड हो चुके हैं। उनकी दोनों अभिनेत्री बेटियां सेटल हो चुकी हैं। ऋषि
कपूर फिलहाल खुद को ‘नॉट आउट’ की रेस में कहते हैं लेकिन ‘आरके’ नामक सिनेमाई ‘मुल्क’ के लिए उद्यमशीलता के जज्बे को दिखा नहीं पा रहे हैं जबकि बेटे रणबीर
कपूर ने कपूर खानदान के चिराग को फिर से रोशन कर दिया है। वरना उस ऐतिहासिक
बैनर की विरासत के जुआ के लिए किसी और कंधे की दरकार ही नहीं होती।
बहरहाल ये फैसला एक परिवार की संपत्ति का मसला है। जिसमें किसी बाहरी की
दखलंदाजी की कोई गुंजाइश भी नहीं। लेकिन वे सिनेमाप्रेमी जिन्होंने ‘श्री 420‘, ‘जिस देश में गंगा बहती
है‘, ‘मेरा नाम जोकर‘, ‘बॉबी’, ‘सत्यम् शिवम् सुंदरम’, ‘राम
तेरी गंगा मैली’ जैसी अनेक सुपर क्लासिक फिल्मों के दौर को देखा है,
वे भला कैसे नहीं दो शब्द भी आह भरने के हकदार हो सकते हैं।
मुंबई के उपनगर कहे जाने वाले चेंबूर में तकरीबन दो एकड़ में फैला है आरके
स्टूडियो। इस स्टूडियो की स्थापना राज कपूर ने अपने फिल्मी सपने को साकार करने के लिए सन्
1948 में की थी। और पहली फिल्म बनाई थी – ‘आग’। एक भयानक हादसे में जले हुए चेहरे वाले युवा किरदार की कहानी। शायद
राजकपूर कुरुपता में भी सुंदरता और उद्यमिता के अन्वेषी पहले से ही थे। ‘आग’ फिल्म व्यावसायिक
तौर पर तो हिट नहीं हुई लेकिन हां उस ‘आग’ ने उनके भीतर अलख जगाने का काम जरूर किया। उन्होंने अगले ही साल यानी
1949 में अपनी नई फिल्म ‘बरसात’ बनाकर रिलीज कर दिया। ‘बरसात’ की सफलता ने उनके भीतर की आग को शांत कर दिया। फिर क्या था–आरके
बैनर की गाड़ी चल पड़ी—और दो साल बाद ही 1951 में आई ‘आवारा’ ने इस बैनर को
अंतरराष्ट्रीय मंच पर शुमार कर दिया।
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तुम ना रहोगे हम ना रहेंगे फिर भी रहेंगी निशानियां... |
राज कपूर जितने बड़े अभिनेता, निर्देशक और निर्माता कहलाये उससे कम चर्चित नहीं हुआ आरके बैनर। इसे उस महान शो मैन की उद्यमशीलता ही कहेंगे कि यह स्टूडियो केवल फिल्म निर्माण के लिए ही नहीं जाना गया बल्कि अनेक पर्व-त्योहारों पर अभूतपूर्व जमावड़े के लिए भी उतना ही पहचाना गया। आरके स्टूडियो में मनाई जाने वाली होली तो मुंबई की सबसे मशहूर होली रही है।
खैर, ये एक नॉस्टेल्जिया भरी कहानी है।
राज कपूर निर्देशित आखिरी फिल्म थी-‘राम तेरी गंगा मैली’।
उससे पहले ही पिता की विरासत को रणधीर कपूर ने संभालने की हिम्मत जुटाई थी। सत्तर
के दशक में रणधीर कपूर ने आरके स्टूडियो में बतौर सहयोगी निर्देशक के रूप में
योगदान किया था। और 1971 की चर्चित फिल्म ‘कल आज और कल’ का पहली बार निर्देशन भी किया था। तीन पीढ़ी की
कहानी को दिखाने वाली वह फिल्म कहीं ना कहीं उस संकेत की तरफ इशारा करती हुई सी
प्रतीत होती थी कि नई पीढ़ी अर्थात रणधीर कपूर पिता की विरासत के उत्तराधिकारी हो सकते
हैं। इसके बाद 1975 में ‘धरम गरम’ को भी उन्होंने पूरा
किया जिसे राज कपूर ने अधूरा छोड़ दिया था। इस
फिल्म के आने के बाद एक बार फिर रणधीर कपूर से उस उद्यमशीलता की उम्मीद रखी गई जिसकी
नींव राज कपूर ने डाली थी। सन् 1988 में राज कपूर के देहांत के बाद एक बार फिर
रणधीर कपूर ने पिता द्वारा उदघोषित फिल्म ‘हिना’ का निर्माण और निर्देशन किया।
अब तो यह यकीन होने लगा था कि रणधीर कपूर पिता की
विरासत को आगे ले जा सकने में सक्षम हैं।
इस बीच राज कपूर के भाई शशि कपूर और उनकी पत्नी जेनिफर ने पृथ्वी थियेटर
की विरासत संभाल कर रखी और उन्होंने आरके बैनर की परंपरा से हटकर फिल्म बनाने
की एक नई परंपरा को विकसित किया था; जिसे कला सिनेमा कहते हैं। यद्यपि आरके
स्टूडियो से शशि कपूर का भी अपना सा रिश्ता कायम था। आरके की कई फिल्मों में उन्होंने
अभिनय किया था। लेकिन बात जहां तक उद्यमशीलता की आती है तो उन्हेंने आरके की
परंपरा से जुदा राह बनाई थी। शायद इसलिए भी कि आरके स्टूडियो को राज कपूर ने स्थापित किया था लिहाजा उस पर उनकी ही संतानों का हक था।
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कल आज और कल ! |
शशि कपूर तो अपने पिता की विरासत यानी पृथ्वी थियेटर का वजूद बनाये रखना चाहते थे जिसमें उनकी पत्नी और कालांतर में उनकी बेटी संजना कपूर ने भी काफी शिद्दत के साथ सहयोग दिया। लेकिन बात फिर उसी जज्बे और उद्यमशीलता की आती है जिसके अभाव में पृथ्वी थियेटर की विरासत इनसे भी पीछे छूट गई।
संभवत: कुछ ऐसा ही आरके स्टूडियो का भी हुआ।
1988 में राज कपूर के देहांत के बाद रणधीर कपूर ने आरके स्टूडियो का जिम्मा पूरी तरह से अपने हाथों में ले लिया। जिनके सबसे छोटे भाई राजीव कपूर ने 1996 में ‘प्रेम ग्रंथ’ बनाई थी दो साल बाद उस परंपरा को कायम रखने की कोशिश में ऋषि कपूर ने भी 1999 में ‘आ अब लौट चलें’ का निर्देशन किया। लेकिन शायद अब उस दौर की निराली दुनिया में लौटना आसान नहीं था।
1988 में राज कपूर के देहांत के बाद रणधीर कपूर ने आरके स्टूडियो का जिम्मा पूरी तरह से अपने हाथों में ले लिया। जिनके सबसे छोटे भाई राजीव कपूर ने 1996 में ‘प्रेम ग्रंथ’ बनाई थी दो साल बाद उस परंपरा को कायम रखने की कोशिश में ऋषि कपूर ने भी 1999 में ‘आ अब लौट चलें’ का निर्देशन किया। लेकिन शायद अब उस दौर की निराली दुनिया में लौटना आसान नहीं था।
दरअसल मुंबईया फिल्मों में अनेक नवागंतुक सितारों, निर्देशकों और नई फिल्म कंपनियों ने सफलतापूर्वक दस्तक दे दी थी। दक्षिण के फिल्म
स्टूडियो का भी सीधा दखल बढ़ गया था। मुंबई में अंधेरी, गोरेगांव या महानगर के कई और भागों में अनेक छोटे, बड़े स्डूडियो, रिकॉर्डिंग-डबिंग सेंटर्स की स्थापना होने लगी
थी। शहर का विस्तार होने लगा था। छोटे बजट ही नहीं बल्कि बड़े बजट की कई फिल्मों
के काम भी इन्हीं स्टूडियो में होने लगे थे। लिहाजा चेंबूर जैसे उपनगर तक पहुंचना समय और खर्च दोनों को ही प्रभावित करने लगा था तो आरके स्टूडियो के जरिये होने वाली कमाई
धीरे-धीरे कम होने लगी थी। परिवार के सदस्यों में जब ऋषि कपूर के कैरियर ने किनारा
ले लिया था वहीं रणधीर कपूर की दोनों बेटियों-करिश्मा और करीना ने अपने उभरते
अभिनय कैरियर पर खुद को केद्रित कर लिया और वहींं जिस जज्बे और कलेजे की
बदौलत राज कपूर ने इस स्टूडियो की स्थापना की थी, उसकी कमी ने इसे वर्तमान में
अप्रासंगिक बना दिया।
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जाने कहांं गए वो दिन... ? |
रही सही उम्मीद पिछले दिनों स्टूडियो में लगी भयानक आग ने खत्म कर दी। अग्निकांड ने स्टूडियो को भीतर से खाक कर दिया। राज कपूर के फिल्मी संसार से जुड़ी तमाम निशानियां मिट
गईं।
निष्चय ही किसी भी फिल्म प्रेमी का दिल कितना कचोटता होगा कि
जिस स्टूडियो की स्थापना ‘आग’ फिल्म से हुई, वह स्टूडियो एक
दिन ‘आग’ में ही स्वाहा हो गया। यों मुंबई बरसात की नगरी भी कही जाती है लेकिन इस स्टूडियो में फिर कभी वो बरसात नहीं होगी जो उस आग को बुझा सके।
आ, अब कहां तक लौट के चलें?
लेकिन एक सवाल यह मन में यह जरूर उठता है कि क्या आरके
स्टूडियो को राज कपूर की फिल्मों और उनसे जुड़ी यादों का संग्रहालय नहीं बनाया जा
सकता? उस स्टूडियो से मिलने वाली करोड़ों की रकम की दरकार परिवार में
आखिर किसे है?
*लेखक ‘पिक्चर प्लस’ के संपादक हैं। दिल्ली
में निवास।
Email : pictureplus2016@gmail.com
(सभी फोटो नेट से साभार)
एक ऐसे वाजिब सवाल से बात खत्म की है कि परिवार/सरकार या कोई भी कल/आर्काइव प्रेमी इस तरह इसे नया जीवन दे सकता है।
जवाब देंहटाएंबहुत ही बेहतरीन और शानदार लिखा है।
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