फिल्म समीक्षा
मुल्क
निर्देशक - अनुभव सिन्हा
*रवींद्र त्रिपाठी
अपने यहां ये जुमला अक्सर दुहराया जाता है- `सभी मुसलमान
आतंकवादी नहीं होते लेकिन सभी आतंकवादी मुसलमान होते हैं’। इसमें छलावा ये
होता है कि अक्सर जब किसी आतंकवादी कार्रवाई में किसी मुस्लिम युवक को पकड़ा जाता
है उसके बहाने सभी मुसलमानों को निशाने पर लिया जाता है। ये भी संकेत किया जाता है
कि मुसलमान देशभक्त नहीं होते है और भारत-पाकिस्तान के क्रिकेट मैचों के दौरान `पाकिस्तान–जिंदाबाद’ के नारे लगाते हैं।
अनुभव सिन्हा की नई फिल्म इसी मसले को लेकर है।
फिल्म की कहानी
फिल्म के केंद्र में है बनारस यानी वाराणसी का एक मुस्लिम परिवार।
परिवार में दो भाई हैं-मुराद अली मोहम्मद (ऋषि कपूर) और बिलाल मोहम्मद (मनोज
पाहवा)। बिलाल का बेटा शाहिद (प्रतीक बब्बर) एक आतंकवादी कार्रवाई में मारा जाता
है और फिर शुरू होता है मोहम्मद परिवार की परेशानियों का लंबा सिलसिला। पुलिस और
प्रशासन की तरफ से तहकीकात तो होती ही है साथ में समाज में कई लोग मोहम्मद के घर
को आतंकवादियों का अड्डा बनाने लगते हैं। अदालत मे सरकारी वकील (आशुतोष राणा) मोहम्मद
परिवार की देशभक्ति पर सवाल खड़े करता है। ऐसे में परिवार के पक्ष में अदालत में
खड़ी होती है मोहम्मद परिवार की बहू आरती। जी हां, आरती जन्मना हिंदू है लेकिन मुस्लिम
लड़के से शादी करती है। वह वकील भी है। क्या आरती मोहम्मद परिवार की प्रतिष्ठा को
बचा पाएगी और उस दामन को साफ कर पाएगी जिस पर आकंतवादी समर्थक होने का दाग लगा है?
बहस का मुद्दा
बेशक वैचारिक स्तर पर `मुल्क’ एक संवेदनशील और बेहतर फिल्म है। ये उस बहस को केंद्र में लाती है जो
भारत के हर गली कूचे में होती है। वह बहस हे `हम बनाम वे’ की। `हम’ का मतलब मोटे तैर
पर हिंदू माना जाता है और हिंदू को ही भारतीयता का पर्याय बताया जाता है और `वे’ यानी मुसलमान।
जाहिर है इस `हम’ में पूरा भारत नहीं होता जैसा कि भारत का संविधान कहता है। अदालत की
पूरी बहस इसी मुद्दे से उलझती हुई आगे बढ़ती है। इस लिहाज से कहना पड़ेगा कि अनुभव
सिन्हा ने एक मौजू बात को सामने लाया है।
निर्देशन और अभिनय
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वकील की भूमिका में प्रभावी लगी तापसी |
तापसी पन्नू, ऋषि कपूर और आशुतोष राणा के शानदार अभिनय भी इस फिल्म को
बेहतर बनाते हैं। तापसी ने तो बतौर वकील जो जिरह की है वह हिंदी सिनेमा में लंबे
समय तक याद रखा जाएगा। हालांकि इस मौके पर यह भी कहना पड़ेगा कि जिस कलाकार को
अभिनय दिल को बेहद करीब से छुआ है वो है मनोज पाहवा। बिलाल की भूमिका में उन्होनें
उस शख्स के भीतर मचलते तूफान को सामने लाया है जिसका बेटा मारा गया है, वह खुद
पुलिस की गिरफ्त में है और परिवार बिखर रहा। वह मर भी जाता है या मार दिया जाता है
(मारने के संकेत फिल्म में हैं।) मनोज पाहवा ने एक उस व्यक्ति को सामने लाया है
जिसकी पूरी दुनिया रातों रात उजड़ गई है।
पर फिल्म कुछ कमजोरियां भी हैं। एक तो ये कि आखिर में ये भाषणबाजी में
सिमट जाती है। एक ऐसा लद्धड़ अंत जिसमें लगता है कि निर्देशक को संविधान की मूल भावना बताने के अलावा फिल्म को समेटने का
कोई रास्ता नहीं सूझा है। फिल्म के अंत के दस मिनट पहले ही लगने लगता है कि क्या
होने जा रहा है। दूसरे इस फिल्म में बनारस शहर नहीं दिखता। अगर कोई निर्देशक
यथार्थवादी शैली की फिल्म बना रहा है तो उसमें उस जगह की झलक तो मिलनी चाहिए जहां
पर फिल्म आधारित है। बनारस कई चीजों के अलावा अपनी बनारसी बोली के मशहूर है और
फिल्म का कोई पात्र बनारसी नहीं बोलता है। न मुराद अली और न उसके हिंदू पड़ोसी
चौबे जी और सोनकर जी। वे खड़ी बोली बोलते हैं। वह भी एकाध जगह बनावटी हो गई है।
वैसे फिल्म की शुरुआत में प्रह्लाद सिंह टिपान्या का कबीर गायन मन के भीतर उतरने वाला
है।
*लेखक प्रख्यात कला मर्मज्ञ और फिल्म समीक्षक
हैं।
दिल्ली में निवास। संपर्क-9873196343
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