फिल्म समीक्षा
यमला पगला दीवाना फिर से
निर्देशक - नवनीत सिंह
कलाकार - सनी देओल, बॉबी देओल, धर्मेंद्र, कृति खरबंदा
*रवींद्र त्रिपाठी
घरेलू फुटबॉल में ऐसा होता है कि (अब ये घरेलू क्रिकेट में भी होने
लगा है) कि कई बार आपको दूसरी टीमों के खिलाड़ी लेने लड़ते हैं। आम बोलचाल में
उनको `बॉरो’ खिलाड़ी कहते हैं जो दरअसल अंग्रेजी का ही शब्द है। इस बार
धर्मेंद्र, सनी देओल और बॉबी देओल की तिकड़ी ने `यमला पगला दीवाना’ श्रृंखला की तीसरी फिल्म के लिए सलमान खान और
सोनाक्षी सिन्हा को भी कुछ देर के लिए ही सही, `बॉरो’ कर लिया है। फिल्मी
दुनिया में भी एक के साथ एक मुफ्त का चलन हो गया है। इसलिए सोनाक्षी सिन्हा के
पिताश्री शत्रुघ्न सिन्हा भी एक छोटे से किरदार के लिए आ गए हैं।
वैसे सनी देओल जिस फिल्म में होते हैं उसमें अपेक्षा की जाती है वे
अपना ढाई किलो का हाथ जरूर दिखाएंगे। लेकिन इस फिल्म में वे वैद्य की भूमिका में
है इसलिए हाथ से ज्यादा बूटी का खेल है। और बूटी भी कैसी। वज्र जैसी। पूरन वैद्य
के पास जो आयुर्वेदिक बूटी यानी दवा है उसका नाम है `वज्र कवच’। `वज्र कवच’ `रामबाण’ की तरह है अर्थात् हर रोग का इलाज। पूरन वैद्य (सनी देओल) का एक भाई है काला
(बॉबी देओल)) जो निठल्ला है लेकिन विदेश जाने के सपने देखता रहता है। और दोनों भाइयों
का एक पुराना किरदार है बुजुर्ग परमार (ध्रमेंद्र) जो वकील है और हमेशा हसीनाओं के ख्वाब देखा करता है
और रंगीन मिजाज शख्स है।
फिल्म की कहानी और निर्देशन
होता ये है कि `वज्र कवच’ पर एक दूसरी दवा कंपनी की निगाह है और वो इस दवा के पेटेंट करा लेती
है। इसलिए पूरन वैद्य एक मुकदमे में फंस जाता है। इसी सिलसिले में उसे पंजाब से
गुजरात जाना पड़ता है और पूरी फिल्म इसी
वाकये के इर्द गिर्द चलती है। इस फिल्म को एक कॉमेडी की तरह बनाया गया है पर थोड़ी
देर के बाद ये बोर करने लगती है। वजह ये है कि फिल्म की पटकथा ठीक से नहीं लिखी गई
है और कुछ दृश्य तो भर्ती के लगते हैं। इस फिल्म को सफल बनाने के लिए `वज्र कवच’ जैसा असरदार
फॉर्मूला होना चाहिए था जो निर्देशक के पास नही है।
*लेखक वरिष्ठ कला और फिल्म समीक्षक हैं। दिल्ली में निवास।
संपर्क - 9873196343
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