अमिताभ बच्चन पर कलम चलाने का मतलब है किसी ना किसी के लिखे के दुहराव का शिकार हो जाना। इस आशंका के खतरे की तलवार हमेशा हमारे सिर लटकी महसूस होती रहती है। भावना सोमैय्या ने ‘अमिताभ बच्चन द लीजेंड’, खालिद मोहम्मद ने ‘टू बी और नॉट टू बी’, पुष्पा भारती ने ‘अमिताभ आख्यान’ और सुष्मिता दासगुप्ता ने जब ‘अमिताभ - द मेकिंग ऑफ अ सुपरस्टार’ आदि जैसी अनेक पुस्तकें अमिताभ बच्चन पर लिखी ही जा चुकी हैं-तो फिर अब क्या नया बचता है, अमिताभ बच्चन के बारे में लिखने के लिए; वो भी तब जबकि अमिताभ की वास्तविक आभा से कोसों दूर रहकर केवल सिल्वर स्क्रीन पर याकि आभासी दुनिया में देख देखकर उनको जाना, समझा हो। ऐसे में उन पर अब और क्या लिखा जाए! अमिताभ की अब कौन सी नई जानकारी दी जाए याकि नया विश्लेषण किया जाए! ऐसे कई सवाल इस आयोजन से पहले मेरे मन में भी उभरे थे। लेकिन कहते हैं कि कल्पनाशीलता और प्रश्नाकुलता का भी कोई दायरा नहीं होता। मैंने सोचा-कुछ मेरे मन का भी हो जाए।
अमिताभ बच्चन अस्सी के दशक में देश के अधिकतम
स्वप्नजीवी, हताश और महत्वाकांक्षी युवाओं के रॉल मॉडेल थे, यह बात किसी से छिपी
नहीं है। तब सोशल मीडिया नहीं था। आज की तरह पगडंडियों पर लोग जीन्स पहनकर नहीं
चलते थे। लेकिन सिर पर लंबे बाल काढ़े, पैंट के ऊपर चौड़े कॉलर वाली कमीज की डोर
बांधे ‘वो मुकद्दर का सिकंदर जानेमन कहलाएगा’—याकि
‘खईके
पान बनारस वाला’ या फिर ‘मेरे अंगने में तुम्हारा क्या काम है’
गाते थे-और डायलॉग भी बोलते थे- ‘डावर, मैं आज भी फेंके हुए पैसे नहीं उठाता’।
ये उस बुलंद सितारा का अपना-सा प्रभाव था जो सोशल मीडिया या बिना इंटरनेट के ही
शहर के मोहल्लों से लेकर गांव की संकरी गलियों तक अपने हर किरदार को लेकर वायरल हो
जाते थे। सच, अमिताभ युवाओं के मन मस्तिष्क पर नशा सा असर करते थे। कल्लू से ‘कालिया’
बन जाने वाले हों याकि जिसका कोई नहीं-वैसे ‘लावारिस’ याकि या सोसाइटी के ‘डॉन’,
‘गैम्बलर’,
‘नटवरलाल’,
‘शराबी’
याकि कानून की खामियों को चुनौती देने वाला वो ‘शहंशाह’
जो इंसाफ की आस लिये ‘आखिरी रास्ता’ का पथिक बन जाने को ‘मजबूर’
था या फिर कोई ‘देशप्रेमी’ या ‘नमक हलाल’-हिन्दुस्तान का हर विजय, अमित और अर्जुन जब
अमिताभ की फिल्म देखकर सिनेमा हॉल से निकलता तो सोचता उसके भीतर भी कोई ‘इंकलाब’
की आग है और वह भी अन्याय, जुल्म के खिलाफ आक्रमण कर सकता है।
वैसे, ये सच है कि बॉलीवुड के नामचीनों के इलाके
में वो नए आए थे-लेकिन ये भी उतना ही सच है कि वो जहां पे खड़े हो गए लाइन वहीं से
शुरू हो गई। और उस सचाई का आलम तो ये देखिए कि उस लाइन में वो आज भी पचहत्तर साल
की उम्र में अकेले खड़े हैं। कोई उनके बराबर भी नहीं खड़ा हो सका। जिसने भी उनको
बुड्ढ़ा कहने की कोशिश की, उन्होंने झट जवाब से जबाव दिया-‘चीनी
कम’
है और ‘बुड्ढ़ा होगा तेरा बाप’
और आयम ‘102 नॉट आउट’।
जीवंतता के ‘पिंक’
‘पीकू’
रंगों से लबरेज इस उत्साही ‘मुकद्दर का सिकंदर’ का ये शानदार ‘सिलसिला’
भी उस अमिताभ के ‘नसीब’ का हिस्सा है, जिसके रंजो गम के साइड इफेक्ट्स
भी कम नहीं; बावजूद इसके वे ‘बेमिसाल’
‘पा’
हैं।
![]() |
डॉ. हरिवंश राय बच्चन, तेजी बच्चन, अमिताभ बच्चन और अजिताभ बच्चन |
अमिताभ के किरदार और अभिताभ की फिल्मों के नाम
अमिताभ बच्चन की शख्सियत के निर्माण में भागीदार की तरह नजर आते हैं।
इंक़लाब, बाल्यकाल में उनका यही नाम रखा गया था। जन्म की तारीख थी - 11 अक्टूबर, साल था – 1942;
जब देश की फिजां में आजादी के तराने गाए जा रहे थे, अंग्रेजो भारत छोड़ो का आंदोलन
चल रहा था। ‘इंक़लाब जिंदाबाद’ के नारे से प्रेरित
होकर पिता ने उनका नाम ‘इंक़लाब’ रखा था। ये संयोग ही कहा जा सकता है कि इलाहाबाद
लोकसभा चुनाव जीतने के वक्त अमिताभ बच्चन की रिलीज हुई एक फिल्म का नाम भी था - ‘इंकलाब’
जिसकी कहानी के अंत में एक मुख्यमंत्री अपने मंत्रिमंडल के सभी भ्रष्ट मंत्रियों
को गोलियों से भून देता है। ये एक क्रांतिकारी थीम था। और
उस क्रांतिकारिता भरे किरदार को अमिताभ बच्चन ने पूरे इंक़लाबी तेवर के साथ निभाया
था।
सवाल अहम हो सकता है कि अमिताभ के किरदारों की
शख्सियत में वो इंक़लाबी आग आखिर कहां से आई?
जो बार-बार उनकी तमाम फिल्मों में धधकती
हुई सी प्रतीत होती रही। अमिताभ से पहले ना ही अमिताभ के बाद वो इंकलाबी तेवर
देखने को मिला। हां, ‘अर्धसत्य’ में ओमपुरी की भूमिका को अक्सर ‘ज़ंजीर’
में अमिताभ की भूमिका का कला संस्करण कहा जाता है लेकिन
बॉक्स ऑफिस पर थ्रिल पैदा करने वाले अभिनेता तो सिर्फ अमिताभ बच्चन ही माने जाते
हैं।
आइये उस ‘इंकलाब’ की इबारत के पन्ने पलटने की कोशिश करते हैं।
अमिताभ बच्चन का लालन पालन इलाहाबाद के शहरी
परिवेश में हुआ लेकिन कस्बाई देशज ठाठ की ठसक उनके व्यक्तित्व की मौलिक पहचान है।
वो आज भी जब प्यार से हिंदी में अनौपचारिक बातें करते हैं तो वो देशज ठाठ उनकी
जुबान की शोभा बढ़ाती है। अपनी भाषा में भोजपुरी-अवधिया की मिश्रित महक बरकरार
रखते हैं। यही उनके पूर्णत्व का पूर्वाभास है। अमिताभ के व्यक्तित्व में खासतौर पर
यह भाषाई संस्कार पिता हरिवंश राय बच्चन से आया है। बच्चन साहब अंग्रेजी के उदभट
विद्वान, शिक्षक थे। लेकिन उनकी हिंदी रचनाएं देशज शब्दावली का अनोखा संग्रह हैं।
उनकी हिंदी पर कहीं से भी अंग्रेजियत की छाप नज़र नहीं आती। आत्मकथा की श्रृंखला
हो अथवा ‘मधुशाला’, ‘मधुबाला’ या ‘एकांत संगीत’ आदि। इन रचनाओं में तत्सम-देशज हिंदी ही नहीं बल्कि फारसी-हिंदी का अनोखा संगम देखने
को मिलता है। भाषा की यही खूबी हरिवंश राय बच्चन की साहित्यिक शख्सियत को आम जनता
और विद्वान बिरादरी दोनों के बीच एक पुल बनाती थी। अमिताभ बच्चन ने किशोरावस्था
में इस पुल को बनते हुए देखा था। और यही वो वक्त था जब उस किशोर अमिताभ के भीतर भी
एक नीड़ का निर्माण हो रहा था। छात्र अमिताभ के सामने एक तरफ उनके भविष्य की संभावनाओं
की तलाश थी तो दूसरी तरफ पिता की परंपरा, प्रतिष्ठा और अनुशासन की रिद्धी सिद्धी
थी, जिसकी वृद्धि उनकी विवेकशीलता की कसौटी थी। हरिवंश राय बच्चन ने अक्सर अपने
अनेक साक्षात्कारों में कहा है कि उन्होंने कई रचनाएं लिखीं लेकिन उनकी सबसे ऊत्तम
रचना तो अमिताभ है। संभव है यह उद्गार एक सफल पुत्र के लिए व्यक्त हुआ हो लेकिन
मेरी राय में भी अमिताभ बच्चन अपने पिता की सर्वाधिक चर्चित कृति ‘मधुशाला’
के समान ही हैं जिसके बारे में खुद कवि ने लिखा था कि ‘और
पुरानी होकर मेरी और नशीली मधुशाला।‘
![]() |
मां के साथ किशोर अमिताभ |
जीवन के वसंतोत्सव वर्ष में भी अमिताभ अपने सभी
समकालीनों से अधिक सक्रिय हैं। और उस परंपरा, प्रतिष्ठा और अनुशासन का पालन कर रहे
हैं जिसे उन्होंने माता-पिता के साये में हासिल किया था। पिता के व्यक्तित्व का
प्रभाव इतना कि उनकी कई कविताएं उन्हें कंठस्थ हैं।
लेकिन इस विराट व्यक्तित्व की प्रभावशीलता की
पृष्ठभूमि यहीं तक सीमित नहीं रह जाती। वास्तव में अमिताभ के अंदर माता-पिता दोनों
की प्रतिभा का कुशल सामंजस्य है। उन्होंने पिता से भाषा संस्कार, साहित्यिक
संवेदनाएं, गार्हस्थ अनुशासन और सत्व संयमन को आत्मसात किया तो वहीं मां से मिले
प्रगतिशील कला संस्कार को बखूबी अंगीकार किया। पिता जितने ख्यात कवि थे माता उतनी
ही कला निपुणा थी। अमिताभ में अभिनय कौशल का बीजारोपण मातृत्व व्यक्तित्व की देन
था। माता तेजी अभिनय कला में पारंगत थीं। इलाहाबाद का सांस्कृतिक इतिहास गवाह है
कि बच्चन जी से विवाह के पश्चात् तेजी जी ने उस संभ्रांत किन्तु रूढ़ शहर में
खासतौर पर महिला कलाकारों में कला के प्रति रुझान और स्व उन्नयन की प्रेरणा जगाई
थी। उन्होंने थियेटर गतिविधियों को अंजाम दिया। रेडियो स्टेशन पर महिला कलाकारों
को आगे आने के लिए प्रेरित किया। वह अलख जगाने में अग्रसर रहा करती थीं। बच्चन जी
के कैंब्रिज यूनीवर्सिटी में पीएचडी के लिए जाने के पश्चात् तेजी जी ने दो साल तक
अपने दोनों बेटों-अमिताभ और अजिताभ को पिता की कमी नहीं खलने दी। उस जमाने में
अमिताभ और अजिताभ एक ही साइकल पर स्कूल जाते थे। शेरवुड, देहरादून उसके बाद का
प्रसंग है। जहां जीवन में पहली बार स्टेज पर अभिनय करने का मौका मिला जिसकी तस्वीर
आज भी एक तारीखी यादें मानी जाती है। लेकिन उससे पहले ही मातृत्व सान्निध्य में उस
अभिनय कौशल का संस्कार पनप चुका था।
यह नया नया आजाद भारत का दौर था। नेहरूवियन
राजनीति शीर्ष पर थी। गांधी दर्शन समतामूलक समाज की ज़मीन तैयार कर रहा था।
रामकुमार वर्मा, सुमित्रा नंदन पंत, महादेवी वर्मा, फिराक गोरखपुरी जैसी
महान् साहित्यिक विभूतियों के उनके घर आना जाने का जमाना था।
इस दौर में ‘इंकलाब श्रीवास्तव’ अब अमिताभ बच्चन
कहलाने लगा था। और ये नाम दिया था पारिवारिक मित्र तथा विख्यात कवि सुमित्रानंदन
पंत ने। पिता मूलत: संस्कारवान् और परंपरापसंद थे लेकिन किन्हीं
विद्रोह वश उन्होंने अपने नाम से ‘श्रीवास्तव’ के बदले ‘बच्चन’ तखल्लुस लिख लिया था जिसे अपनी संतति के नाम के
आगे भी चस्पां कर दिया। इस प्रकार ‘अमिताभ बच्चन’ नाम का उदय हुआ। इसकी एक अलग ही लंबी कहानी है।
अक्सर कहा जाता है अमिताभ के अनेक फिल्मी किरदारों
में विद्रोही, दृढ़ निष्चयी और प्रगतिशील भाव की सहजता उनकी मां से विरासत से मिली
है। यह बात यहीं पर पूरी तरह से गलत साबित हो जाती है। हरिवंश राय बच्चन जितने
परंपराप्रिय थे उतने ही अत्यंत प्रगतिवादी शख्सियत भी थे। उनकी रचनाओं में रूढ़ि
के प्रति विद्रोह के स्वर बखूबी सुने जा सकते हैं।
![]() |
स्टार बनने के बाद अमिताभ माता-पिता के साथ |
जाहिर है अमिताभ को अपने भविष्य के किरदारों की
वास्तविक झल्लाहट का पूर्वाभास किशोरावस्था में ही महसूस हुआ होगा लेकिन पढ़ाई
पूरी करने के बाद साठ के दशक के पूर्वार्द्ध में नौकरी की तलाश में उस स्वप्नजीवी
युवा के भीतर की हताशा को महसूस करना आसान नहीं, जिसका बाप देश का एक नामचीन
शख्सियत कहलाता था और जिसका रसूख देश के सबसे बड़े सियासी परिवार तक था। एक तरफ
माता-पिता की प्रतिष्ठापरक ऊंचाई, उनकी महत्वाकांक्षा वहीं दूसरी तरफ सड़क पर
संघर्ष करता उसका शिक्षित, नौजवान बेटा और उसकी निराशा। अमिताभ के भीतर लावा जमता
गया था।
नौकरी मिली तो कोलकाता में। एक जूते की कंपनी
में। गोकि वह एक नामचीन कलमकार का बेटा था। कलाकार बनने की तमन्ना मन में पाले
रखी। सच, कितना मुश्किल है तब के उनके मन को महसूस कर
पाना। आकाशवाणी ने आवाज को खारिज कर दिया था कि ये बहुत भारी और बेसुरीली है।
अमिताभ जूते की कंपनी में काम करके नौकरीशुदा कहलाने लगे। माता-पिता का मान बढ़ा
कि बेटे की बेरोजगारी फिलहाल दूर हो गई। तो उनकी हताशा को भी किंचिंत विराम मिला।
लेकिन कलेजे के भीतर बसा अभिनय नाम का जन्तु बारंबार जोर मारता ही रहा। अंदाजा
लगाना मुश्किल ही नहीं नामुमकिन है कि तब अमिताभ अपने कैरियर और भविष्य को लेकर
क्या-क्या सोचते थे। कोलकाता से जब मुंबई आए तो कई सालों तक संघर्ष के पथ पर लथपथ
रहे। यह सिलसिला 1973 तक चलता रहा जब तक कि ‘जंज़ीर’ सुपर हिट नहीं हो गई। यानी ‘जंज़ीर’
का इंस्पेक्टर जब सिल्वर स्क्रीन पर प्राण जैसे मंझे हुए एक्टर के आगे आग उगलने
वाला गुस्सा व्यक्त करता है कि–‘’जब तक बैठने को न कहा जाए तब तक चुपचाप खड़े रहो,
ये पुलिस स्टेशन है तुम्हारे बाप का घर नहीं’’-
तो समझा जा सकता है उस अमिताभ के भीतर
तकरीबन एक दशक की हताशा का क्रोध कतरा-कतरा कर कितना जमा होता गया था।
![]() |
संजीव श्रीवास्तव |
(अगला भाग - ‘जंज़ीर अगर अमिताभ की पहली फिल्म होती!’)
*लेखक 'पिक्चर प्लस' के संपादक हैं। दिल्ली में
निवास।
कोई टिप्पणी नहीं:
टिप्पणी पोस्ट करें