‘माधुरी’ के संस्थापक
- संपादक अरविंद कुमार से
जीवनीपरक सिनेवार्ता
का स्वर्ण जयंती अंक
(भाग - 50)
(ह्रषीकेश मुखर्जी : जन्म - कलकत्ता 30 सितंबर 1922 ;
मृत्यु 27 अगस्त 2006)
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पारिवारिक मनोरंजन के महान चलचित्रकार |
सबसे पहले हृषिदा का नाम :
हृषीकेश। पता नहीं हिंदी वाले ऋषिकेश क्यों लिखते हैं? वे अपनी संस्कृति से पूरी तरह कट गए हैं या हृषी बोलना नहीं
जानते? हृषीकेश का अर्थ है ‘इंद्रियों का स्वामी’। कृष्ण का और विष्णु का यह भी एक नाम है। वही लिखा जाना
चाहिए। उनका पूरा नाम है हृषीकेश मुखर्जी। संक्षेप अकेला हृषीकेश है। आदर से
संक्षिप्त प्रिय नाम पड़ गया ‘हृषिदा’।
उनसे मेरी पहली मुलाक़ात बिल्कुल अकल्पनीय तरह हुई।
मैं नया नया था। बंबई अक्तूबर 1963 में पहुंचा था। उम्र
थी तैंतीस साल, देखने में लड़का सा लगता था। यह लड़का सा लगने वाली बात मैंने
जानबूझ कर लिखी है। बॉलीवुड जगत में मैं नया था, परखा जाना था। लड़के सा दिखने
वाली मित्रतापूर्ण पहचान मुझे अनायास ही सब का प्रिय बना देती थी।
हमारे पहले अंक की तारीख़ थी 31 जनवरी 1964, पर बाज़ार
में गणतंत्र दिवस 26 जनवरी से पहले आ गया था। सन् 1964 में होलिका दहन 27 फ़रवरी
को था और दुलहंडी 28 फ़रवरी को। मतलब हमारे 31 जनवरी वाले पहले अंक के बाद 14
फ़रवरी के बाद वाला 28 फ़रवरी का तीसरा अंक। पत्रिका तारीख़ से दस दिन पहले छपने
चली जाती थी, और तैयारी लगभग डेढ़ महीने पहले शुरू हो जाती थी। मतलब होली अंक की
रूपरेखा जनवरी के पहले सप्ताह तक बन जानी चाहिए। तस्वीरें प्रौसेसिंग के लिए भेजना
शुरू हो जाता था। तस्वीरों की चुनाई या खिंचवाई तो और भी पहले हो जानी चाहिए थीं।
बंबई में ऐसे दूरदर्शी फ़ोटोग्राफ़रों की कमी नहीँ थी जो बड़े सितारों के होली
दीवाली के फ़ोटो तैयार रखते थे। पर हम लोग अपने एक्सक्लूसिव फ़ोटो छापना चाहते थे।
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ह्रषीकेश मुखर्जी |
हृषिदा से मेरी पहली मुलाक़ात इस होली अंक के बहाने
हुई। तब तक माधुरी-सुचित्रा का एक भी अंक नहीं छप पाया था। इस तीसरे (होली) अंक की
तैयारी में उनका सकारात्मक योगदान मुझे अब तक याद है।
जैनेंद्र जैन और महेंद्र सरल की फ़िल्मवालों से अच्छी
जान पहचान थी। जैनेंद्र ने सुझाया कि कार्टर रोड पर नुक्कड़ पर ही हृषिकेश मुखर्जी
का बंगला है ‘आशियाना’। सामने सड़क के पार समुद्र है, दाहिने चौड़ी सड़क है,
बाएं पड़ोसी बंगले की ऊंची दीवार है – यानी वहां लॉन के एकांत में होली की शूटिंग
की जा सकती है। वह हृषिदा को अच्छी तरह जानता भी था। उनसे अनुमति ले आया।
महेंद्र सरल को छोड़ कर हम सब सब लड़के से ही थे –
जैनेंद्र, विनोद तिवारी, आर.सी. जैन, और टाइपिस्ट डी.पी. यादव। फ़िल्म पत्रिका की
ऐसी टीम जिसमें कोई खुर्रांट नहीं था।
जिन अभिनेत्रियों को बुलाया गया था उनमें से दो के नाम
अब तक याद हैं – लीला नायडु और चांद उस्मानी। हम लोग अपने साथ गुलाल, रंग, पिचकारी
तो ले ही गए थे, साथ कुछ मीठा और नमकीन भी था।
हृषिदा शिष्टाचार वश अपने कमरे में बंद रहे। हमलोग लॉन
में होली खिलवाते और फ़ोटो खिंचवाते रहे। ढेर सारी तस्वीरें खिंच गईं, कुछ कैंडिड,
कुछ पोज़्ड। कवर पेज पर उनमें से लीला और चांद की बड़ी तस्वीर थी। भीतर के पन्नों
होली के सुंदर सीन छपे थे।
अंत में हम सब ड्राइंग रूम में हृषिदा से विदा लेने
गए। अभिनत्रियों को वह पहले से जानते थे। नए थे मैं, विनोद, आर.सी. और यादव। हम सब
सीधे सादे लोग – जो बंबइया फ़िल्म जगत में एक नई तरह की पत्रिका बनाने में लगे थे।
विदा लेकर हम सब चले आए। मुझे और हम सब को हृषिदा ने कैसा आंका – मैं नहीँ कह सकता
पर यह ज़रूर कह सकता हूं कि हमारी ही तरह सीधे सादे हृषिदा से हमारे संबंध हमेशा
आपसी समझ के रहे।
जितने सीधे सादे वे थे उतनी ही सीधी सादी उनकी
फ़िल्में थीँ – बंबइया ग्लैमर, चटक मटक और उठापटक, मारपीट से कोसों दूर, फिर भी
लोकप्रिय।
और बहुत आगे बढ़ने से पहले मैं एक दिलचस्प घटना बताना
चाहता हूं।
कुछ साल बीत गए थे। हृषिदा से मेरी निकटता दिल्ली वाले
फ़िल्म पत्रकार अच्छी तरह जानते थे। बच्चन श्रीवास्तव आदि चार फ़िल्म पत्रकार मेरे
पास आए। वे हृषिदा से फ़िल्म बनवाना चाहते थे। दिल्ली के एक बहुत बड़े हिंदी
लेखक-संपादक की लिखी कहानी उनके पास थी। मैं उन चारों को हृषिदा के बंगले पर ले
गया। उन्होंने बड़े इत्मीनान से पूरी कहानी सुनी, उठे, भीतर कमरे में गए। लौटे तो
हाथ में एक बंगाली पत्रिका थी। यही कहानी काफ़ी पहले उसमें छप चुकी थी। हिंदी वाली
उसका पूरा अनुवाद तो नहीं थी, पर थी वही। दिल्ली वाले मित्र यह कह कर लौट गए कि
कभी और कोई और कहानी ले कर आएंगे। हृषिदा ने कहा, “ज़रूर आएं।” पर वे लोग लौट कर नहीँ आए।
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'नमक हराम' के सेट पर एक तरफ राजेश खन्ना दूसरी तरफ अमिताभ बच्चन और बीच में ह्रषीकेश मुखर्जी |
इसी संदर्भ में एक दो बातें और।
अकसर होता कि फ़िल्म की रिलीज़ पर कई दावेदार उठ खड़े
होते हैं कि यह उनकी कहानी से चुराई गई है। कोई पूर्व प्रकाशित कहानी या उपन्यास
हो तब तो कोई समस्या नहीँ होती थी। बड़े फ़िल्म निर्माता कई एहतियात बरतते थे। किसी
ने कोई कहानी विचारार्थ भेजी तो लिफ़ाफ़ा खोला ही नहीँ जाता था। बस सील करके रख
दिया जाता था। हृषिदा को किसी प्रकाशित रचना से हट कर फ़िल्म बनानी होती तो पहले उसे
कहानी का रूप दे कर किसी न किसी बांग्ला पत्रिका में छपवा देते थे ताकि सनद रहे।
वह सायटिका के रोगी थे। (सायटिका में कमर से किसी भी
एक नस में सूजन आ जाए तो पूरे पैर में जो असहनीय दर्द होने लगता वह हिप ज्वाइंट के
पीछे से शुरू हो कर अंगूठे तक फैलता है। यह लाइलाज समझा जाता है।) लेकिन इससे उनकी
सक्रियता में कई अंतर नहीं पड़ता था। शूटिंग के समय वे अकसर बैठे रहते थे।
कलकत्ता में जन्मे हृषीकेश कैमिस्ट्री में स्नातक थे।
कुछ दिन गणित और विज्ञान पढ़ाया। सिने जगत में प्रवेश किया वहीं के प्रसिद्ध न्यू
थिएटर्स में। पहले कैमरामैन बने, फिर फ़िल्म संपादक। वहां उनके मार्गदर्शक थे
सुबोध मित्र जिनकी देखरेख में बरुआ की ‘देवदास’ बनी थी और उसके संपादक भी थे। ‘देवदास’ के कैमरा निदशक थे बिमल रॉय।
1950 वाले दशक में न्यू थिएटर्स छोड़ कर बिमल रॉय बंबई
आए तो साथ में थे तमाम साथी – लेखक नवेंदु, संपादक हृषीकेश, निर्देशक असित सेन। सब
लोग ठहरे तब की मशहूर बांबे टाकीज के आसपास मलाड मेँ। एक बार दक्षिण बंबई के ईरोस
सिनेमाघर में कुरोसावा की ‘राशोमन’ देखी। बस में लौटते उस के जैसी उच्चस्तरीय फ़िल्में
बनाने के लिए हृषीकेश के स्वभाव पर बिमल रॉय प्रोडक्शंस खोलने का फ़ैसला हुआ था।
बिमल रॉय की ‘दो बीघा ज़मीन’ और ‘देवदास’ जैसी फ़िल्मों के वे सहायक निर्देशक तथा संपादक रहे।
स्वभाव से सहज सौम्य और मित्रतापूर्ण हास्य का पुट डाल
देते थे। बिमल रॉय और राज कपूर से आगे बढ़ने का सहारा मिलता रहा - ‘अनुपमा’ बिमल रॉय को समर्पित की तो ‘आनंद’ राज कपूर को।
अमिताभ बच्चन ही नहीँ अनेक उदीयमान कलाकारों के तो वह
गॉडफ़ादर ही थे। धर्मेंद्र, देवेन वर्मा, अमोल पालेकर और आत्ममोह ग्रस्त नख़रीले
राजेश खन्ना के लिए भी वह पिता समान थे। राजेश को वह ‘पिंटू बाबा’ कहा करते थे। पुणे की
फ़िल्म इंस्टीट्यूट से प्रशिक्षित जया भादुड़ी की लघु फ़िल्म उन्हें इतनी पसंद आई
की ‘गुड्डी’ की नायिका बना दिया। कई महीने वह उनके घर ही रही थी।
तीन परिवारों की तीन कहानियों वाली ‘मुसाफ़िर’ के कलाकार थे – दिलीप कुमार,
उषा किरण, सुचित्रा सेन, शेखर, किशोर कुमार, दुर्गा खोटे, पाल महेंद्र, डेविड,
विपिन गुप्ता, केश्टो मुखर्जी, मोहन चोटी, बेबी नाज़। पर प्रयोगात्मक ‘मुसाफ़िर’ चली नहीँ। गीत शैलेंद्र के थे। उन्हें पहली संतान हुई थी। ‘मुसाफ़िर’ का गीत
‘मुन्ना बड़ा प्यारा’ उसके लिए भी लिखा गया समझा जा सकता है। इसकी उल्लेखनीय
पंक्तियां हैं
‘एक दिन वो मां से बोला / क्यूं फूंकती तू चूल्हा /
क्यूं न रोटियों का पेड़ एक लगा लें /
आम तोड़ें, रोटी तोड़ें / रोटी आम खा लें।’
अगली फ़िल्म ‘अनाड़ी’ में मोतीलाल, राज कपूर और
नूतन थे। यह सदाबहार साबित हुई। उसका गीत ‘सच है दुनिया वालो कि हम हैं अनाड़ी – सब कुछ सीखा हमने न
सीखी होशियारी’ अपने आप में क्लासिक है।
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अरविंद कुमार |
मेरी नज़र में ‘अनाड़ी’ उनकी सब से अच्छी फ़िल्म
है। सब मेरी राय से सहमत हों – यह ज़रूरी नहीँ है। मैं ख़ुद कई और फ़िल्मों के नाम
गिना सकता हूं, जो क्लासिक हैं– ‘गुड्डी’, ‘आनंद’, ‘चुपके चुपके’, ‘गोलमाल’, ‘सत्यकाम’, ‘बावर्ची’, ‘मिली’, ‘ख़ूबसूरत’–‘अभिमान’। सहगल की ‘स्ट्रीट
सिंगर’ से प्रेरित ‘अभिमान’ ने किसी आइडिया को लेकर एक
बिल्कुल नई और हृदयस्पर्शी कृति का श्रेष्ठतम उदाहरण पेश किया था।
सन् 2001 में उन्हें पद्म विभूषण सम्मान से अलंकृत
किया गया था। फ़िल्मों को अनगिनत देशी व विदेशी अवार्डों से सम्मानित हृषिदा अपने
अंतिम दिनों बीमारी से परेशान रहे। 83 साल की उम्र में वे 27 अगस्त 2006 को हमारा साथ
छोड़ गए, पर याद हमेशा रहेंगे।
सिनेवार्ता जारी है...
अगली कड़ी, अगले रविवार
(नोट : श्री अरविंद कुमार जी की ये शृंखलाबद्ध सिनेवार्ता विशेष तौर पर 'पिक्चर प्लस' के लिए तैयार की गई है। इसके किसी भी भाग को अन्यत्र
प्रकाशित करना कॉपीराइट का उल्लंघन माना जायेगा। संपादक - पिक्चर प्लस)
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