'माधुरी' के
संस्थापक – संपादक अरविंद कुमार से
जीवनीपरक सिनेवार्ता ; भाग 47
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'गुड्डी' में जया बच्चन |
पहले मैं 1971 की फ़िल्म ‘गुड्डी’ की बात करता हूं। कुसुम (जया भादुड़ी) नाम की चुलबुली, मस्त और जीवंत लड़की अपनी क्लास सहेलियों की तरह फ़िल्मों की दीवानी है। क्लास में और क्लास के बाहर चर्चा तो फ़िल्मों का। उनकी जान-पहचान वाला रंग-बिरंगे भड़कीले कपड़े पहनने वाला कुंदन (असरानी) उनसे भी आगे है। उसका दावा है कि फ़िल्म वालों से उसकी जान-पहचान है और उनके ज़रिए उसे वहां काम भी मिल जाएगा। और कुसुम दीवानी है धर्मेंद्र की।
फ़िल्म के निर्देशक थे हृषिकेश मुखर्जी, फ़िल्म का आइडिया और कहानी
गुलज़ार के थे। मैंने गुलज़ार का नाम सबसे पहले 1964 में सुना था, जब एक शाम मीना
कुमारी अपने पति कमाल अमरोही के घर न जा कर उसके घर चली गई थीँ। बाद में निजी जान-पहचान
और मुलाकातें बढ़ती गईं और मैं उनकी कला का क़ायल होता चला गया। 1967-68 में वह
हरनाम सिंह रवेल की क्लासिक फ़िल्म ‘संघर्ष’ के संवाद लिख रहे थे। रवेल साहब से मेरी निकट की जान पहचान
हो गई थी। शत्रुघ्न का सितारा बुलंदी की तरफ़ बढ़ रहा था। मैं उसे तब से जानता था
जब वह पुणे की फ़िल्म इंस्टीट्यूट से पास होकर आया था। मुझे दमदार शत्रु में बड़ी
संभावनाएं दिखती थीं। मेरी ही सिफ़ारिश पर उसे मोहन सहगल की ‘साजन’ (1969) में दो मिनट
का रोल मिला था। मैं ही नहीं पूरा ‘माधुरी’ परिवार उसका समर्थक था। एक दिन दफ़्तर में मेरे पास रवेल
का फ़ोन आया। उन्होंने कहा कि मैं शत्रुघ्न से कहूं कि वे उसे अपनी नई फ़िल्म में
हीरो के तौर पर चौदह लाख रुपए देंगे, बशर्ते वह उनकी बेटी से शादी करने को तैयार
हो। मैं अचकचाया। मैं रिश्ते कराने का काम करूं ! यूं भी में पूनम के
प्रति उसके लगाव से परिचित था। बात आई गई हो गई।
मैंने बताया कि रवेल की फ़िल्म ‘संघर्ष’ के संवाद गुलज़ार लिख
रहे थे। वे जानते थे रवेल की बेटी रोशनी की ज़िद कि वह शादी किसी स्टार से ही
करेगी। तो यह जानकारी बनी ‘गुड्डी’ की कहानी का बीज। प्रेरणा वास्तविक जीवन से थी। पर नायिका
जस की तस किसी निर्माता-निर्देशक की बेटी नहीँ हो सकती थी। इसलिए ‘गुड्डी’ की कुसुम है स्टारों
की दीवानी जो कोई भी किशोरी हो सकती थी।
अब-
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एक थी रोशनी
, थी नहीँ अब भी है।
हरनाम सिंह रवेल की बेटी। वही थी असली प्रेरणा हृषिकेश मुखर्जी की गुलज़ार लिखित
फ़िल्म ‘गुड्डी’ की। फ़र्क़ सिर्फ़ इतना था कि रोशनी
फ़िल्मी दुनिया में ही रहती थी। कलाकारों की दुनिया उससे अनजानी नहीँ थी। वह किसी
अभिनेता से शादी करना चाहती थी। और उसके जीवन प्रवेश किया एक अप्रत्याशित लड़के ने।
लड़के का नाम था रतन चोपड़ा।
सुंदर सा राजकुमार रतन चोपड़ा फ़िल्मफ़ेअर - यूनाइटिड प्रोड्यूसर्स के टैलेंट
कन्टैस्ट में प्रथम आया था। निर्णय घोषित होने बाहर से आए सभी प्रत्याशियों को
होटल ख़ाली करने थे। उनके लिए हमारी तरफ़ से मद्यपान का प्रावधान नहीँ था। उसे
चर्चगेट के पास वाले किसी अच्छे होटल में ठहराया गया था। होटल वाले रिहा नहीं कर
रहे थे। उसने जो मद्यपान किया था, वह उसका बिल चुकाने की हालत में नहीँ था। मेरे
सुझाव पर कन्टैस्ट के बजट में से भुगतान किया गया। उसके पास बंबई में रहने का कोई
ठौर नहीँ था। मैं उसे अपने घर ले आया। एक महीने वह नेपियन सी रोड पर प्रेम मिलन
अपार्टमेंट में मेरे परिवार के साथ रहा।
दास्तान-ए-रोशनी रवैल और रनत चोपड़ा
वह पंजाब के मलेर कोटला का रहने वाला था। वहीँ के थे मेरे मित्र कुलवंत
मदान औरउनकी पत्नी ज़ुबैदा। रतन से उनका संपर्क होने में देर नहीँ लगी। कुलवंत
मोने सिख थे, ज़ुबैदा से उनका विवाह सुखी रहा। आज कुलवंत नहीँ है, पर ज़ुबैदा से
मेरा संबंध यथावत रहा। आजकल वे अपने बेटे अमन के साथ बेंगलूरु में रहती हैँ। उनसे फ़ोन पर बातें कीं तो काफ़ी नई जानकारी मिली रतन के वर्तमान जीवन के बारे
में।
रवेल साहब को तलाश थी अभिनेता दामाद की। उन्होंने मुझ से पूछा तो मैंने
बेहद तारीफ़ की। जल्दी ही रोशनी और रतन का रिश्ता पक्का हो गया। वह अपने मकान में
रहने चला गया। शादी के शुरुआती समारोहों जैसे रोकना और सगाई में मेरा परिवार लड़के
वालोँ की हैसियत से शामिल हुआ था। दरवाज़े पर गुलाबी साफ़ा बांधे लेख टंडन और
गुलज़ार हम लोगों का स्वागत कर रहे थे। बेटी को भावी सुपरस्टार मिला है – इस ख़ुशी
में पूरा रवेल परिवार मगन था। लड़के के बुज़ुर्गों को दूध के गिलास दिए गए।
गिलासों में अशरफ़ियां भरी थीँ। बारात वाले दिन अंधेरी ईस्ट में बहुत बड़ी खुली
महमानों से भरी खचाखच जगह में नाना प्रकार के व्यंजन परसे जा रहे थे।
लड़का रतन चोपड़ा था सतबहना मतलब सात बहनों का लाड़ला भाई था। बचपन से ही
पूरे घर की आंखों का तारा जिसकी हर ख़्वाहिश पूरी की जाती रही थी यानी बिगड़ैल बेटा
और था। शराबी। होटल में भी वह पीता रहा था। जब हमारे वैष्णव घर रहा तो ठीक ही लगता
था। शायद बाहर पी कर आता होगा।
पहली बार बहू मलेर कोटला गई तो कहां बंबई के आधुनिक शौचालय और कहां
क़स्बाती पाख़ाने। उसे उलटी सी आती तो ससुराल वाले उस की उलझन समझने के बजाए मज़ाक़
उड़ाते झिड़कते। सास और ननदें रौब चलातीं। घर वापस लौटी तो बदहवास थी। वह भी कम
लाड़ प्यार में नहीँ पली थी।
रतन को पहली फ़िल्म मिली मोहन कुमार की 1972 में प्रदर्शित मोम की
गुड़िया। शूटिंग पर बंगलौर गया तो मेरे लिए क़ीमती रेशमी लुंगी लाया था।
शादी के बाद रतन के पास अपना घर था, शानदार कपड़े थे, पत्नी थी, पैसा था।
चाहे जितना पियो कोई रोकटोक नहीँ। मुझे याद है – राज कपूर के बड़े बेटे रणधीर कपूर
की शादी की दावत में पूरा बॉलीवुड मौजूद था। वहां मुझे ढूंढ़ते रवेल साहब मुझे एक
तरफ़ ले गए। वे रतन चोपड़ा के अनियंत्रित जीवन का रोना रो रहे थे। पर रतन को
समझाना मेरे बस के बाहर था।
रिश्ता न चलना था, न चला। तलाक़ हो कर रहा। अगर रतन ने अपने को संभाला
होता, तो सफल अभिनेता न सही राकेश रोशन की तरह रवेल परिवार में निर्माता-निर्दशक
बन कर राज कर रहा होता, जैसे रोशनी-रवेल का बेटा रजत रवेल कर रहा है। निर्देशक के
तौर पर रजत की फ़िल्में हैं 1997 की ज़मीर, 2001 की ‘दिल ने फिर याद किया’। निर्माता के तौर पर 2009 की ‘शॉर्ट कट’, 2010 की ‘नो प्रौब्लम’, 2011 की ‘रेडी’ और 2012 की ‘राउडी राठौर’। अन्य फ़िल्मों के साथ उस ने ‘बॉडीगार्ड’ में मोटे सुनामी सिंह की भूमिका की भूमिका
भी थी। बिग बॉस के सातवें संस्करण में वह चौदहवें दिन बाहर कर दिया था।
जहां तक रतन का सवाल मेरी मित्र और मलेर कोटला की ज़ुबैदा मदान ने बताया
कि काफ़ी दिन इधर उधर टक्करें मार कर अब अपनी नई पत्नी के साथ वह विदेश में बस गया
है।
सिनेवार्ता जारी
है...
अगली कड़ी, अगले रविवार
(नोट : श्री अरविंद कुमार जी की ये शृंखलाबद्ध
सिनेवार्ता विशेष तौर पर 'पिक्चर प्लस' के लिए तैयार की गई है। इसके किसी भी भाग को
अन्यत्र प्रकाशित करना कॉपीराइट का उल्लंघन माना जायेगा। संपादक - पिक्चर प्लस)
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