'माधुरी' के संस्थापक-संपादक
अरविंद कुमार से जीवनीपरक सिनेवार्ता, भाग - 46
बेगम पारा बंटवारे के समय पाकिस्तान
चली गईं, लेकिन दिल तो हिंदुस्तान में रहा, लौटकर आ गईं। दिलीप कुमार के भाई
नासिर खान से हुई थी शादी।
1940 और 1950 वाले दशकों में हिंदी सिनेमा पर राज करने
वाली बेगम पारा पचास साल बाद लौटीं तो रणबीर कपूर और सोनम कपूर को लॉंच करने वाली
फ़िल्म ‘सांवरिया’ में। संजय लीला भंसाली की रूसी कथाकार दोस्तोव्सकी की व्हाइट
नाइट्स पर आधारित फ़िल्म में उसका रोल था सोनम कपूर (सक़ीना) की दादी बड़ी अम्मां
का। और बड़ी अम्मां ने संजय को निराश नहीँ किया, उसी शोख़ जवान बेगम पारा को नए
रूप में ज़िंदा कर दिया। वह संजय लीला भंसाली की सांवरिया (2007) में सक़ीना की
बिंदास दादी यानी बड़ी अम्मां की शूटिंग के दौरान पचास साल पहले के दिलचस्प
क़िस्से सुना कर मगन रखती थीं।
‘सांवरिया’ की शूटिंग में पारा और सलमान के साथ
गरमाहट का रिश्ता हो गया। “उसके बचपन से ही मैं उसे
जानती थी। सलीम साहब से दोस्ताना तअल्लुक़ात थे। नई पीढ़ी के बर्ताव के बारे में
मन में खटका था। मैंने मनकी बात संजय भंसाली से की तो वह बोले, ‘आओ, देखो तो सही हम काम करते कैसे हैँ’। वह सही निकले। सबने प्यार दिया, आदर दिया। हर तरफ़ मीठापन
मिला। हां, तकनीक बहुत आगे बढ़ गई है। जब इंसान दूर रहता है तो पता नहीँ क्या क्या
सोचता है। कैमरे के सामने एक बार फिर आई तो लगा जैसे कहीँ गई ही नहीँ थी।”
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बेगम पारा ने जब LIFE के लिए करवाया था अपना फोटो शूट (नेट से सभी फोटो साभार) |
बेगम पारा के पिता थे अलीगढ़ मूल के मियां एहसानुल हक़
जो बाद में बीकानेर राज्य के मुख्य न्यायाधीश बने। पारा का जन्म 25 दिसंबर 1928
में (अब पाकिस्तान के) झेलम में हुआ, बचपन बीकानेर में बीता। पिता की ही तरह वह भी
आज़ाद ख़्यालोँ की थी। उच्च शिक्षा दीक्षा अलीगढ़ विश्वविद्यालय में हुई। बड़े भाई
मसरूरुल् हक़ बंबई में एक्टर बने और गुजरात में जन्मीं बंगालन अभिनेत्री प्रोतिमा
दासगुप्त से प्रेम कर लिया। अब पारा हक़ भी कहां थी – पीछे रहने वाली। भैया भाभी
से मिलने जाती तो बंबइया माहौल उस पर छा जाता। और कुछ लोग थे जो उसे देखते और ठगे
रह जाते। ऐसों में थे बांबे टाकीज़ के शशधर मुखर्जी और देविका रानी। पारा फ़िल्म
में काम करे इस पर तो पापा राज़ी हो गए – एक शर्त थी वह लाहौर के किसी स्टूडियो
में काम नहीँ करगी। उसकी पहली फ़िल्म थी पुणे की प्रसिद्ध प्रभात स्टूडियोज़ की ‘चाँद।’
जीन्स पहनती और अदा से हंटर फटकारती हिंदी फ़िल्मों की
पहली ग्लैमर गर्ल विद्रोहिणी बेगम पारा पूरी तरह बिंदास थी। फ़िल्म के बाहर जीवन
में भी दुनिया उसके इशारोँ पर नाचती थी। बेगम वह चीज़ थी जिसकी चर्चा विदेशों तक थी।
आज की पीढ़ी अमेरीका के एक ज़माने के विश्वप्रसिद्ध ‘लाइफ़’ मैगज़ीन को नहीँ जानती। जब उसमें
फ़ोटो छपना किसी के भी लिए शान की बात थी, तब उसके ख़ास फ़ोटोग्राफ़र जेम्स बर्क (James
Burke)
ने बेगम पारा पर पूरा फ़ीचर छाप डाला। ये तस्वीरें कोरिया में जंग में लड़ने वाले
अमेरीकी फ़ोज़ियोँ के बंकरोँ में भी चिपकी मिलती थीँ। न जाने कितने अमेरीकी
नौजवानों ने ये सीने से लगाई होंगी और कमरों में लगाई होंगी।
‘सुहाग रात’ की बेगम पारा खुले दिल वाली
गांव के जमींदार की लड़की है, भोलेभाले बेली के प्रति अपने प्रेम की दास्तान कम्मो
को सुना बैठती है। बड़प्पन का ज़रा एहसास नहीँ, बस किसी को मन की बात कह देने की
ख़्वाहिश। जैसे रोल वह करती आ रही थी, उनसे बिल्कुल अलग तरह की भूमिका उसने की तो
यह केदार शर्मा के लिए आदर भाव के कारण ही हुआ होगा।
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बेगम पारा ने 'सांवरिया' फिल्म में भी काम किया था |
“1947 में दंगे शुरू हुए तो मेरे माँ-बाप डलहौज़ी में थे।
हमारे दोस्त डॉक्टर फ़क़ीरचंद ने ज़िद करके उनका मकान बदलवा दिया। मेरा भाई
अहमदनगर आर्मर्ड कोर में था। किसी तरह छिपा कर उसने उन्हें लाहौर भिजवा दिया। और
मैं? मैं थी बंबई में जहां दंगे हो ही
नहीं रहे थे। 14 अगस्त की रात अपनी हरी हडसन कार में मैं, भाभी प्रतिमा दासगुप्ता
और सहेली अभिनेत्री सुशीला रानी रात में बंबई की सड़कों पर ज़ोर ज़ोर से ‘वंदे मातरम्’ गा
रही थीँ। मुझे याद है ‘फ़िल्म इंडिया’ के प्रकाशक-संपादक बाबूराव पटेल के घर के बाहर उमर
पार्क में अधरात गीत गाना। कितने अच्छे दिन थे वे। पर मुझे भी पाकिस्तान जाना पड़ा
1975 में। पति नासिर ख़ां पर 1974 में 49 साल की उमर में दिल का दौरा पड़ा। मैं 47
साल की थी। तीन बच्चे थे। दिमाग़ी तौर पर मैं हिल गई थी। देहरादून में मेरी बहन
ज़रीना के अलावा पूरा परिवार पाकिस्तान में था। उन्होंने ज़ोर दिया। मैं पाकिस्तान
चली तो गई लेकिन ज़िंदगी में ठहराव सा आया। वहां के जीवन में रच बस नहीँ पाई। वहां
के मुसलमान कुछ और ही तरह के थे। बनावट बहुत थी उनमें। तमाम तरह की पाबंदियां थीं
औरतों पर। ‘यह मत पहनो, वह मत करो।
पार्टी में रम पीनी हो तो कोक में मिला कर पियो। मर्दों को खुली छूट थी। जब चाहो
तलाक़ दे दो, जब चाहे शादी कर लो।’
“कुछ दिन मैं नूरजहां के साथ रही हाउस गैस्ट बन कर। बेहद अच्छी
मेज़बान थीँ वह, बातें भी कम करती थीं। कहा जाए तो वे पाकिस्तानी फ़िल्म इंडस्ट्री
की पहचान ही थीं। मैंने एक पंजाबी फ़िल्म देखी। फिर कोई और देखने की हिम्मत नहीँ
हुई। और न ही वहां के सैटअप में काम करने की हिम्मत हुई। यूं जगह अच्छी है। कराची
में हिंदुस्तानी मुसलमानों और पाकिस्तानी पठानों की मिलजुली संतति सुंदर है। इसंके
तक़रीबन ढाई साल बाद की एक याद ताज़ा है। कोई सोशल गैदरिंग थी। एक मुंहदराज़
पाकिस्तानी शख़्स मुझे इशारा करके गरजा, ‘जल्द ही हम तुम्हारे मुल्क को दबोच लेंगे’। मैंने उसकी सिगरेट मसल कर बुझाई और कहा, ‘नॉट ब्लडी लाइकली। वहां के जिस सूबे की मैं रहने वाली हूं,
तुम्हारा पाकिस्तान समा सकता है।’ बार बार अपने हिंदुस्तानी
होने का बचाव करते मैँ ऊब गई थी। वापस लौट आई।”
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बोल्ड अदाओं के लिए चर्चित थीं बेगम पारा |
उसकी कुल सत्रह फ़िल्मों में से कुछ हैँ –‘शालीमार’
(1946), ‘सोनी महीवाल’ (1946), 1947 की ‘दुनिया
एक सराय’, ‘लुटेरा’, ‘मेहंदी’, ‘नील कमल’ (राज कपूर के साथ) और ‘ज़जीर’, 1948 की ‘झरना’, ‘शहनाज़’, ‘सुहाग रात’, 1949 की ‘दादा’, 1950 की ‘महरबानी’,
1951 की ‘उस्ताद पैड्रो’, 1953 की ‘लैला
मजनूं’ और ‘नया घर’, 1957 की ‘आदमी’ और 1958 की ‘दो मस्ताने’।
शेख़ मुख़्तार के साथ उसकी तीन फ़िल्में ‘दादा,’‘दारा’ ओर ‘उस्ताद पैड्रो’ बहुत ही ज़्यादा लोकप्रिय हुई थीँ।
छोटे भाई नासिर ख़ां की बीवी बेगम पारा के साथ दिलीप
कुमार का बर्ताव कई बार चर्चा का विषय बनता रहा है। उसके दक़ियानूसी परिवार में
पारा जैसी ‘उच्छृंखल’ लड़की पूरी तरह मिसफ़िट थी। कभी उसने कहा था, “यूसुफ़ की लुभावनी मूरत के पीछे क़ीने की भावना भी
छिपी है। जिस से नाराज़ हो जाए तो...”
लोकेशन पर ज़िद फ़िल्म की शूटिंग के दौरान नासिर ख़ां
दिल के दौरे से चल बसे। फ़िल्म पूरी करने का भार बेगम पारा के कंधों पर आ पड़ा। “जिन घर वालों से मदद की दरकार थी, वे दूर से देखते
रहे, हमारे हीरो संजय ख़ान की अपनी फ़िल्म ‘चांदी सोना’ बन रही थी, फिर भी उस ने
कहा मेरी किसी भी डेट पर पहला हक़ आप का होगा। मेरा दिल भर आया। लेकिन उसकी हीरोइन
सायरा बानो तो मेरे साथ खिलवाड़ करती ही रही, उसके पति ने जो खेल खेला वह अच्छा
नहीँ था।...पाकिस्तान जाते समय मैं उन्हें और सायरा को अल्विदा कहना चाहती थी।
मुझे बताया गया कि वे घर नहीँ हैं। अगले दिन फ़ोन किया तो सायरा ने कहा, साहब सो
रहे हैँ, फ़ोन पर नहीँ आ पाएंगे। मेरा जाने का वक़्त आ गया था, फ़ोन किया तो कहा,
होल्ड करो देखती हूँ। लौटी तो बोली साहब सो रहे हैँ, उठ ही नहीं रहे।”
कहा जाता है कि दिलीप को लगा होगा कि पारा और बच्चे
हमेशा वहीं जा बसेंगे। वरना जो किया वह कभी न करते।
पारा को सबसे बड़ा धक्का लगा कुछ समय बाद वापस लौट आने
पर। ‘गंगा जमना’ के निर्माण में फ़ाइनैंशियल रुकावट आ रही थी। फ़िल्म का
निर्माता था छोटा भाई नासिर (पारा का पति)। नासिर ने फ़िल्म के अधिकार एक
डिस्ट्रीब्यूटर के नाम कर दिए थे। किसी भी हालत में सर्वाधिकार दिलीप को अपने नाम
चाहिए थे। उसने कहा कि उसकी अध्यक्षता में नासिर के सभी भाई बहनों के साथ एक
ट्रस्ट बना दिया गया था। उसमें बेगम पारा का नाम नदारद था। सच तो यह है कि नासिर
ने कोई वसीयत लिखी ही नहीँ थी।
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अरविंद कुमार |
तमाम घटना से पारा का दिल खट्टा हो गया। दिलीप ने
बच्चों की मदद करने की पेशकश की तो पारा ने तुर्श जवाब दिया, “आप ने यह सोचा भी कैसे कि मैँ बच्चों के लिए मदद लूंगी?”
बेगम पारा की बड़ी बहन ज़रीना की बेटी रुख़्साना
सुल्ताना ने ख़ुशवंत सिंह के छोटे भाई शविंदर सिंह से शादी कर ली थी। उनकी बेटी है
अभिनेत्री अमृता सिंह जिस से अभिनेता सैफ़ ने शादी कर ली थी।
बेगम पारा की गहरी दोस्त थीं नरगिस, गीता बाली,
नादिरा, सितारा देवी, नीलोफ़र। दिसंबर 1928 में जन्मीं पारा दिसंबर 2008 की रात
नींद में गुज़र गई।
सिनेवार्ता जारी है...
अगली कड़ी, अगले रविवार
संपर्क - arvind@arvindlexicon.com
/ pictureplus2016@gmail.com
(नोट : श्री अरविंद कुमार
जी की ये शृंखलाबद्ध सिनेवार्ता विशेष तौर पर 'पिक्चर प्लस' के लिए तैयार की गई है। इसके किसी भी भाग को
अन्यत्र प्रकाशित करना कॉपीराइट का उल्लंघन माना जायेगा । संपादक-पिक्चर प्लस)
बेगम पारा के साथ कई और महत्वपूर्व हस्तियों की जानकारी पढ़ने को मिली! शुक्रिया
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