‘योडलिंग’
का मतलब है ‘यो’; किशोर कुमार ने
इसे कहां से सीखा था...?
'माधुरी' के
संस्थापक–संपादक अरविंद कुमार से
जीवनीपरक
सिनेवार्ता ; भाग 48
‘मेरे
सपनों की रानी कब आएगी तू’ और ‘शोख़ियों
मे घोला जाए फूलों का शबाब’
गाने वाले किशोर कुमार से मैं बस एक बार मिला। उसकी फ़िल्म ‘दूर गगन की छांव में’
रिलीज होने वाली थी। इलाक़े का नाम तो याद नहीँ, किसी सस्ते से होटल का साधारण सा कमरा
था। गिनती के कुछ पत्रकारों से ‘दूर
गगन’ के बारे में बात करनी थी।
बात क्या करनी थी, फ़िल्म के गाने सुनाने थे। हर गाना एक से बढ़ कर एक था। मस्तमौला
इमेज वाला किशोर की पहचान इससे पहले कॉमेडी टाइप के रोल की हो गई थी। उस शाम उसका
कहना था कि उनसे उकता कर या स्वाद बदलने के लिए उसने यह गंभीर फ़िल्म बनाई और
निर्देशित की है। कहानी की प्रेरणा थी 1958 की अमेरीकी फ़िल्म ‘द प्राउड रीबेल’।
‘दूर गगन...’ में विसैन्यीकृत सैनिक शंकर (किशोर कुमार) गांव
लौटता है तो घर आग से ध्वस्त हो चुका है,
उसी के साथ पत्नी भी मर चुकी है, और दबंग ठाकुर से सताए गूंगे बेटे रामू (अमित
कुमार) का बुरा हाल है। इलाज कराने बेटे को ले कर वह गांव छोड़ देता है। कहीँ किसी
जगह मीरा (सुप्रिया चौधरी) उसे बचाती और चाहने लगती है। कब कहां कैसे बेटा रामू बोलेगा–
बस यही इंतज़ार है दर्शक को। बेटे की भूमिका निभाई है किशोर के बेटे अमित कुमार
ने। वही उसके पोस्टर पर एकमात्र चेहरा है। दो और नाम हैं पोस्टर पर 1. निर्माता-निर्देशक-संगीतकार
किशोर कुमार और 2. गीतकार शैलेंद्र। फ़िल्म निश्चय ही अच्छी थी। एक तरह से बाद की
कला फ़िल्मों की पूर्ववर्ती कही जा सकती थी – बस बुरे पात्रों का लाउड अभिनय
फ़िल्म पर टाट के पैबंद जैसा बुरा लगता है। बाद में तमिल और तेलुगु में इसका रीमेक
भी हुआ था - ‘रामू’
नाम से। ‘दूर गगन की छांव में’ नहीँ चली, लेकिन कोशिश तो की ही
किशोर कुमार ने।
किशोर कुमार यानी मध्य
प्रदेश के खंडवा के वकील कुंजलाल गांगुली (गंगोपाध्याय) के तीन बेटों (अशोक कुमार,
अनूप कुमार और किशोर कुमार) में सबसे छोटा जिसका जन्म का नाम था आभास कुमार। यह जो
तीसरा था हरफ़न मौला नहीँ हरफ़न उस्ताद निकला। बंबई आ कर किशोर को बांबे टाकीज़ में
काम मिला कोरस में गाने का। उससे पहला स्वतंत्र गीत ‘मरने
की दुआएं क्यों मांगू’ गवाया था 1948 की ‘ज़िद्दी’
में खेमचंद्र प्रकाश में।
बड़े भैया अशोक कुमार उसे
एक के बाद फ़िल्म दिलवाते रहते। किशोर ने 1946 से 1955 तक जिन बाईस फ़िल्मों में
काम किया था, उनमें से सोलह नाकाम हुईं। कहा जाता है कि किशोर का मन भी अभिनय में
नहीँ लगता था। अजीब हरक़तों से वह निर्माता या निर्देशकों को हड़का देता। लेकिन ‘लड़की’,
‘नौकरी’, ‘चार
पैसे’ और ‘बाप
रे बाप’ जैसी फ़िल्मों से जो रेला
लगा तो देर तक चलता ही रहा।
गंभीर फ़िल्म ‘नौकरी’
(1954) बिमल रॉय ने बनाई थी। आज़ादी के बाद के बेरोज़गारी से भरे वर्षों में रतन
कुमार चौधरी (किशोर कुमार) को बी.ए. के नतीजे का इंतजार है। घर के बर्तनों को
वाद्य बना कर वह छोटी बहन को अपनी तमन्ना बता रहा है ‘छोटा
सा घर होगा’। कहा जाता है पहले यह
गीत हेमंत कुमार गाने वाले थे - क्योंकि संगीतकार सलिल चौधरी को किशोर पर भरोसा
नहीँ था। किशोर ने कुछ गाकर सुनाया तो सलिल ने उससे कई गीत गवाए। ‘नौकरी’
में उसने ‘एक छोटी सी नौकरी का
तलबगार हूँ’ गाया था शंकरदास
गुप्ता और श्यामल मित्रा के साथ, तो ‘अर्ज़ी
हमारी ये मर्ज़ी हमारी’
किशोर ने गाया था –
वह अर्ज़ी टाइप कर रहा है और सामने वाली खिड़की में शीला रमानी को देख रहा है। सामने
वाली खिड़की से ‘पड़ोसन’ (1968) याद न आए यह हो नहीं सकता। ‘नौकरी’
तक किशोर का हंसोड़ रूप उभर नहीं पाया था, ‘पड़ोसन’ तक वह हास्य अभिनेता के रूप में जम चुका थो। उसके
गीत ‘मेरे सामने वाली खिड़की में
एक चांद का टुकड़ा रहता है’
में किशोर, सुनील दत्त, केश्टो और राज किशोर ने सायरा बानो के सामने जो धमाल मचाया
था वह हिंदी फ़िल्म जगत का यादगार दृश्य बन गया है।
मधुबाला : जो
दिलीप कुमार की न हो सकी,
वो किशोर
कुमार की कैसे हो गई?
हास्य फ़िल्मों की बात
करें तो स्वयं किशोर द्वारा निर्मित, सत्येन बोस द्वारा निर्देशित, मज़रूह
सुल्तानपुरी के गीत और शचिन देव बर्मन के संगीत वाली ‘चलती
का नाम गाड़ी’ (1958) में तीनों
गांगुली भाइयों ने जो उत्पात मचाया वह अब तक बेजोड़ है। उसके कई सीन अभी तक मुझे
याद हैं। भारत भूषण की ‘बरसात
की रात’ के ‘ज़िंदगी भर नहीं भूलेगी वह बरसात की रात’ की टक्कर का गीत ‘एक
लड़की भीगी भागी सी, सोती रातों में जागी सी’
भी कुछ कम नहीं था। दोनों में नायिका थी मधुबाला। अब यह जो मधुबाला थी ‘चलती का नाम गाड़ी’
वाली वह किशोर के दिल मेँ ऐसी बसी कि इस के कई साल बाद सन् 1960 में उसने पत्नी
रूमा गुहा ठाकुर्ता को तलाक़ दे कर मुस्लिम मधुबाला से शादी कर ली। वह जानता था कि
मधुबाला दिल की असाध्य बीमारी की मरीज़ है। जिस मधुबाला को ब्याहने के लिए दिलीप कुमार
जैसे उतावले थे वह किशोर की हो गई। कहा जाता है कि उस शादी करने के लिए वह मुसलमान
बना। नया लेकिन कभी इस्तेमाल न किया गया नाम था करीम अब्दुल। शादी में किशोर के
मां बाप नहीं आए। घरवालों को ख़ुश करने के लिए हिंदू रस्में भी निभाई गईं। पर
घरवालों ने उसे कभी नहीँ स्वीकारा। एक ही महीने में मधुबाला बांद्रा में अपने
बंगले में वापस चली गई। यह शादी मधुबाला की मृत्यु 23 फ़रवरी 1969 तक चली।
किशोर की ढेर सारी फ़िल्मों
में से बस कुछ अन्य के नाम गिनाना काफ़ी है –‘लड़की’ (1953), ‘बाप
रे बाप’ (1955), ‘पैसा ही पैसा’
(1956), ‘नया अंदाज़’ (1956), ‘नई
दिल्ली’ (1957),‘भागम भाग’
(1958), ‘भाई भाई’ (1958), ‘आशा’ (1957), ‘हाफ़
टिकट’(1962), ‘मिस्टर ऐक्स इन बांबे’(1962),
‘श्रीमान फ़नटूश’ (1962),
‘झुमरू’ (1962)...
इनमें जो ‘हाफ़ टिकट’
थी उस का एक दो गाना था ‘आ के सीधी लगी दिल पे’।
यह था प्राण और लड़की के भेष में किशोर के बीच। किशोर को यह लता मंगेशकर के साथ
गाना था, पर लता थीं बाहर। किशोर ने समस्या का अजब हल निकाला। उसने कहा कि वही लता
मंगेशकर वाला भाग भी गाएगा लड़की की आवाज़ में। परिणाम बहुत ही अच्छा रहा। आप
चाहें तो ‘आ के सीधी लगी दिल पे’ लगी टाइप करके इंटरनेट पर देख सकते हैं।
किशोर को गायक बनाने
का सेहरा शचिन देव बर्मन को जाता है।
एक बार वह अशोक कुमार के घर गए थे। वहां किशोर को सहगल की नक़ल करते सुना। बर्मन
दा ने कहा तुम अपना अलग स्टाइल विकसित करो। और जो नई शैली निकली वह थी योडलिंग।
योडलिंग का मतलब है ‘यो’ को तीव्रतम स्वर से मंद्रतम स्वर तक कई तरह के
उतार-चढ़ाव से गाना। किशोर ने यह शैली टैक्स मौर्टम
(Tex Morton) और
जिम्मी रोजर्स (Jimmie Rodgers) के रिकार्डों से सीखी
थी। बॉलीवुड का कोई और गायक इसमें किशोर कुमार तक नहीं पहुँच पाया।
देव आनंद के गीतों के लिए बर्मन ने किशोर को मनोनीत कर
दिया। जैसे ‘मुनीम जी’ (1954), ‘टैक्सी ड्राइवर’ (1954), ‘नौ दो ग्यारह’ (1957), उसी साल की ‘पेइंग गैस्ट’, 1965 की ‘गाइड’ और ‘तीन देवियां’, 1967 की ‘ज्वैल थीफ़’, 1970 की ‘प्रेम पुजारी’, और 1971 की ‘तेरे मेरे सपने’।
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अरविंद कुमार |
किशोर के एक से बढ़िया
एक गानों की संख्या इतनी ज़्यादा है गिनाते गिनाते कई पन्ने भर जाएंगे। ‘मेरे सपनों की रानी कब आएगी तू’ ने राजेश खन्ना को लोकप्रिय करने में बड़ी
भूमिका निभाई थी। उसके बाद वह राजेश की आवाज़ बन गया जैसे मुकेश राज कपूर के लिए।
कोई संगीतकार ऐसा नहीँ
था, जो उससे गवाना न चाहता हो, कोई नायक नहीँ था जो उससे अपने गीत गवाना न चाहता
हो। बंबई में एक चुटकुला सा चल गया था:
धीरे धीरे वह हीरोइनों के लिए भी गाने लगेगा।
किशोर प्रकरण आसानी से
पूरा होने वाला नहीं है, लेकिन अगली क़िस्त में उसके बारे कुछ दिलचस्प बातें और
उसकी अजीब हरक़तें सुना कर मैं हृषिकेश मुखर्जी पर बातें करूंगा।
सिनेवार्ता जारी है...
अगली कड़ी, अगले रविवार
(नोट : श्री अरविंद कुमार जी की ये शृंखलाबद्ध सिनेवार्ता विशेष तौर पर 'पिक्चर प्लस' के लिए तैयार की गई है। इसके किसी भी भाग को अन्यत्र प्रकाशित करना कॉपीराइट
का उल्लंघन माना जायेगा। संपादक - पिक्चर प्लस)
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