‘माधुरी’ के संस्थापक-संपादक
अरविंद कुमार से
जीवनीपरक सिनेवार्ता, भाग 54
भाग 47 के असली गुड्डी कौन थी?’ में मैंने उस लड़की का
ज़िक्र किया था जो उस फ़िल्म की प्रेरणा थी। परदे पर गुड्डी बनी थी जया भादुड़ी।
उसी से जया की निजी पहचान बनी थी। तब कौन कल्पना कर सकता था कि एक समय वह श्रीमती
अमिताभ बच्चन बनेगी और अपने गरिमामय व्यक्तित्व के आधार पर अमिताभ बच्चन की पत्नी
होने से भी बढ़ कर सबके आदर का पात्र बनेगी और राज्यसभा की सम्मानित सदस्य बनी रहेंगी?
मध्य प्रदेश के
जबलपुर में 9 अप्रैल 1948 को एक सुसंस्कृत बंगाली परिवार
में जन्मी जया के पिता तरुण कुमार भादुड़ी पत्रकार होने से साथ रंगमंच अभिनेता भी
थे। शहर के एक कॉन्वैंट स्कूल में पढ़ी जया को 1966 के गणतंत्र दिवस समारोह पर
अखिल भारतीय श्रेष्ठ एन.सी.सी. कैडेट सम्मान मिला था। मात्र इतने से उसके
व्यक्तित्व का अंदाज़ा लगाया जा सकता है।
बंबई में हृषीकेश
मुखर्जी तक पहुंचने तक वह पंद्रह साल की उम्र में कलकत्ता में सत्यजित राय की
फ़िल्म ‘महानगर’ में अभिनय से भी
पहले 13 मिनट की लघु फ़िल्म ‘सुमन’ में उत्तम कुमार
के साथ काम कर चुकी थी। उनसे उत्साहित होकर पुणे की फ़िल्म इंस्टीट्यूट में प्रशिक्षित
हो कर स्वर्ण पदक विजेता बनी। वहीँ की उस की किसी फ़िल्म से प्रभावित हो कर
हृषीकेश ने उसे
अपनी शरण में ले लिया और अपने घर का सदस्य बना लिया।
यहां से शुरू हुआ उसका विजय रथ। उसी काल
में मेरी उससे मुलाक़ात हुई। उसमें कुछ ऐसा था जो सीधा-सादा सादगी भरा अपना होते
हुए भी कुछ तटस्थ सा था, संयत सा। उसके साथ काम करने वाले हीरो भी समझ जाते थे –
बस यहां तक, इससे आगे नहीं। कभी हम दोनों मिल जाते तो बहुत कुछ कहा अनकहा सा भी रह
जाता था। ‘जवानी
दीवानी’ में ग्लैमरस और ‘अनामिका’ में रहस्यमय रोल करने बावजूद जैसी वह ‘गुड्डी’ में थी कुछ वैसा ही पूरे कैरियर में रहने वाला था।
‘गुड्डी’ बनते बनते उसकी धाक बॉलिवुड
पर जम चुकी थी। यानी ‘गुड्डी’ के
अतिरिक्त 1973 की ‘ज़ंजीर’ आने तक जया
की सोलह फ़िल्में आ चुकी थीं। और फिर उसी साल की ‘अभिमान’ ने उसे फ़िल्मफ़ेअर श्रेष्ठ अभिनेत्री सम्मान दिलवा दिया था। इन सोलह में
शामिल थीं गुलज़ार की ‘कोशिश’, हृषीकेश
की ‘बावर्ची’, जीतेंद्र के साथ गुलज़ार
की ‘सारे के सारे’ गीत वाली ‘परिचय’, राजश्री की ‘उपहार’।
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अमिताभ-जया: तब और अब |
यह जो ‘अभिमान’ फ़िल्म थी, इसकी प्रेरणा
के पीछे कई कहानियां कही जाती हैं – जैसे कि यह सितारवादक रविशंकर और अन्नपूर्णा
देवी या किशोर कुमार और रूमा घोष के अहम् के टकरावपूर्ण वैवाहिक से प्रेरित थी। हृषीकेश
निर्देशक तो थे ही, राजिंदर सिंह बेदी, वीरेश चटर्जी, नवेंदु घोष, मोहन एन. सिप्पी और वीरेन त्रिपाठी सहित इस के लेखक भी थे। संदर्भवश इसके दो निर्माताओं
के नाम थे: जया की बिजनेस मैनेजर सुशीला कामथ और अमिताभ का
पवन कुमार जैन, जिसे हम लोग बस पवन कहते थे। बाद में सुनने में आया कि उन दोनों का
नाम तो अंत तक रहा, पर सारे अधिकार जया और अमिताभ ने ले लिए। ‘अभिमान’ की शूटिंग के दौरान ही जया और अमिताभ ने
शादी तय कर ली। लेकिन मामला बहुत पहले तक जाता है।
जया ने अमिताभ को पुणे फ़िल्म इंस्टीट्यूट
में देखा था पहली बार। ख़्वाजा अहमद अब्बास 'सात हिंदुस्तानी' के सिलसिले में
इंस्टीट्यूट आए थे। उस में अमिताभ बच्चन की भूमिका थी। लंबे अमिताभ दूर से नज़र
आते थे। सहछात्राएं उसे “लंबू लंबू” कह कर चिढ़ा रही थीं। जया के लिए वह कवि
हरिवंशराय बच्चन का बेटा होने नाते उल्लेखनीय था। व्यवहार में संस्कारी और सादगी
पसंद।
अमित के प्रति आकर्षण बंबई में बढ़ा। सन्
1973 तक जया शीर्ष पर थी, अमिताभ की पहली सफल फ़िल्म ‘आनंद’ (1971) के बाद जो एकमात्र फ़िल्म हिट होने वाली थी वह थी ‘ज़ंजीर’। उसमें और ‘अभिमान’ वे दोनों एक साथ थे। ‘अभिमान’
की शूटिंग के दौरान ही शादी करना तय किया गया था। शादी हुई 3 जून 1973 को।
इसका विवरण मैंने ‘भाग 51 अमिताभ बच्चन (1)’ में किया था। याद दिलाने के लिए – कुछ अंश:
“शिव सेना के बाल ठाकरे ने अमिताभ के
ख़िलाफ़ प्रदर्शनों की धमकी...शादी मलाबार हिल पर एक फ़्लैट में हुई। मेहमानों में
दिल्ली से संजय गांधी के साथ सुंदरी मेनका भी थी।
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जया-तब और अब |
“अमिताभ ने कहा है: जेवीपीडी स्कीम की सातवीं
सड़क पर अपने किराए के मकान मंगल से मैं निकला। हम मेरी दो दरवाज़ों वाली सैकंड
हैंड कार पौन्टिएक स्पोर्ट कार में थे – मां और बाबूजी। 3 जून 1973 थी। मेरा (अब
स्वर्गीय) ड्राइवर नागेश हमें मलाबार हिल पर जया के पारिवारिक मित्र के अपार्टमैंट
तक ले गया।”
जया की सभी फ़िल्मों की बात करना बेमानी
होगा, लेकिन कुछ हैं जिनका नाम तो लिया ही जाना चाहिए। अनिल गांगुली निर्देशित ‘कोरा काग़ज़’ (1974) में वह विजय आनंद की विलगित पत्नी है। खिड़की से सूनी सूनी आंखों
से वह अकेली खड़ी बाहर देखती कहती है, “फिर वही दिन, वही सूरज की फीकी फीकी रोशनी
मेरे जीवन के पतझड़ में हंसती नज़र आती है।” उसके जीवन में
जो उजाड़पन आ गया है उसका तर्जुमान है किशोर कुमार का गाया गीत –‘मेरा जीवन कोरा काग़ज़ कोरा ही रह गया’।
‘मिली’ मेरी मनपसंद फ़िल्मों में
से है। चुलबुली मिली को उसका घातक रोग भी पस्त नहीं कर पाता। उसी इमारत में रहने आ
जाता है धनी मां बाप के शोकपूर्ण जीवन के क़िस्सों से भागता पियक्कड़ अकड़ू एकाकी
बेटा शेखर दयाल - अमिताभ बच्चन। अब जो घटनाचक्र शुरू होता है उस में मुब्तला हो कर
आप खिल कर हंस भी सकते हैं और रूमाल में मुंह छिपा कर रो भी सकते हैँ।
‘चुपके चुपके’ रीमेक थी बांग्ला
फ़िल्म ‘छद्मवेशी’ का जिसके निर्देशक
थे अग्रदूत और मुख्य कलाकार थे उत्तम कुमार और माधवी मुखर्जी। हृषीकेश की ‘चुपके चुपके’ में ये रोल निभाए थे धर्मेंद्र और
शर्मीला टैगोर ने। अमिताभ और जया वाली कहानी इस में सबप्लाट (sub plot) थी। पर इस के बग़ैर ‘चुपके चुपके’ में मज़ा ही नहीं आ सकता
था। ‘चुपके चुपके’ फ़िल्म क्या थी एक
के बाद एक हंसी के गोल गप्पों की दावत थी। ‘चुपके चुपके’ और ‘शोले’ 1975 में रिलीज़
हुई थीँ और दोनों ही ख़ूब चली थीँ।
मैं ‘शोले’ की डिटेल में न जा कर बस
एक पंक्ति की सचित्र टिप्पणी कर रहा हूं: 'शोले' की उदास विधवा जया सांझ पड़े बाल्कनी में लैंप जलाती और दूर नीचे माउथ
आरगन पर दुखभरी ट्यून बजाता एकाकी अमिताभ एक ऐसी छवि है जो मन में हमेशा के लिए बस
जाती है।
‘चुपके चुपके’ और ‘शोले’ के दौरान जया मां बनने वाली थीं। इनके रिलीज
होने के बाद जया ने बच्ची श्वेता को जन्म दिया। मां बनने के बाद जया कुछ समय
फिल्मों से दूर रहीं। और अभिषेक के होने के बाद जया के फिल्मों से दूर रहने का फ़ैसला
पूरे परिवार का सामूहिक फैसला था।
इस तरह दोनों बच्चों की परवरिश भली भांति
हो पाई। श्वेता के पति निखिल नंदा ऐस्कोर्ट्स के चेयरमैन और मैनेजिंग डायरैक्टर हैँ।
श्वेता उनके साथ रहती है। अभिषेक ने ऐश्वर्या राय से शादी कर ली है।
कई साल बाद पति अमिताभ के कहने पर यश
चोपड़ा की 1981 की ‘सिलसिला’ में काम किया। नायिका के रूप में यह जया की
अंतिम फ़िल्म साबित हुई। इस के बारे मैं विस्तार से भाग 53 – अमिताभ के दो गीत में
लिख चुका हूं। विशेष बात यह भी थी कि संजीव कुमार ने कहा था –“जया जी के साथ काम करने से कुछ सीखने को मिलता है”।
1988 में जया ने ‘शहंशाह’ की कहानी लिखी। इस में नायक थे अमिताभ।
और सिलसिला के अठारह साल बाद 1998 बांग्ला
लेखिका महाश्वेता देवी की कहानी पर गोविंद निहलानी की ‘हज़ार चौरासी की मां’ में जया ने नक्सली नायक की मां की भूमिका निभाई। और 2000 की हृतिक रोशन
और करिश्मा कपूर वाली ‘फ़िज़ा’ के लिए
फ़िल्मफ़ेअर का श्रेष्ठ सहायक कलाकार अवार्ड भी पाया।
2001 में अमिताभ के साथ करण जौहर की ‘कभी ख़ुशी कभी ग़म’, और 2003 की ‘कल हो ना हो’ में
प्रीति ज़िंटा की मां जैनिफ़र कपूर के रूप में फ़िल्मफ़ेअर का श्रेष्ठ सहायक
कलाकार अवार्ड पाया।
बेटे अभिषेक के साथ वह दो फ़िल्मों में
आईं – लागा चुनरी में दाग़ (2007) और द्रोण (2008) में परदे पर दिखाई दीं। यही
नहीं जया ने बांग्लादेशी फ़िल्म मेहरजान (2011) काम किया। सहकलाकार थे विक्टर
बनर्जी हुमायूं फ़रीदी। विषय था बांग्ला देश का स्वतंत्रता आंदोलन।
जया 2004 में समाजवादी पार्टी की तरफ से
राज्यसभा सदस्य चली आ रही हैं। उनका सामाजिक रुतबा किसी से कम नहीँ है। मानसिक
संतुलन और इच्छाशक्ति प्रबल हैँ। कभी किसी से दबती नहीँ हैँ। क्या सही है क्या
ग़लत है – इस की उनकी अपनी दृढ़ मान्यताएं हैं।
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अरविंद कुमार |
अभिषेक की पत्नी ऐश्वर्या राय अपने आप में
एक वैश्विक हस्ती हैँ। यह कल्पना करना कठिन नहीँ है कि एक ही परिवार में अमिताभ,
जया, बेटा अभिषेक और बहू ऐश्वर्या हों तो कितने तनाव पैदा हो सकते हैं। आरंभ से ही
सीधे सादे सादगी भरे अपनेपन के साथ संयत व्यक्तित्व जया की पहचान रहा है। इसी के
बल पर उन्होंने अमिताभ और रेखा का रोमांस झेला था और विजयी हुई थीं। मुक़ाबले में
बहू ऐश्वर्या का कुछ अलग तरह का और स्वतंत्र जीवन की आदी होना कई बार टकराव का
कारण बने तो आश्चर्य की बात नहीँ है। जया ने नायकों के साथ हमेशा एक सीमित निकटता
ही बरती। ऐसा बहु के बारे में नहीँ कहा जा सकता। समय समय पर मतभेद और नाराज़गी की
ख़बरें आती रहती हैँ। सास जया कब तक बहू बेटे पर नियंत्रण बनाए रख सकती हैँ – यह
समय ही बताएगा।
सिनेवार्ता जारी है...
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(नोट : श्री अरविंद कुमार जी
की ये शृंखलाबद्ध सिनेवार्ता विशेष तौर पर 'पिक्चर प्लस' के लिए तैयार की गई है। इसके किसी भी भाग को अन्यत्र
प्रकाशित करना कॉपीराइट का उल्लंघन माना जायेगा। संपादक - पिक्चर प्लस)
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