अमिताभ का अमृतोत्सव, भाग-3
जन्म दिन (11 अक्टूबर विशेष)
ह्रषीकेश मुखर्जी के सिनेमा की यही खासियत
है। यहां मसालों की नहीं मसलों पर बात होती है। यहां सितारों की नहीं, किरदारों की
अहमियत होती है। ‘आनंद’ और
‘नमक हराम’ ह्रषीकेश मुखर्जी की फिल्म नहीं होती तो ‘बच्चन’ को
‘खन्ना’ से
आगे निकलने में थोड़ा और वक्त लगता !
*संजीव श्रीवास्तव
‘आनंद’ महज इस बात को बार-बार रेखांकित करने वाली फिल्म नहीं है कि उसमें अमिताभ
बच्चन जैसे नवल और कृषकाय अभिनेता को राजेश खन्ना जैसे धवल और धुरंधर अभिनेता के
सामने उतारा गया और अमिताभ ने राजेश खन्ना की विस्फोटक अभिनय क्षमता का पूरी फिल्म
में कुशलता के साथ रक्षात्मक सामना किया। ‘आनंद’ बार-बार केवल यह चर्चा करने वाली फिल्म नहीं है कि यहां जिंदगी,
जिंदादिली, जज्बात, आंसू, तड़प, प्यार और दोस्ती का फलसफा बुना गया है। और ‘आनंद’ सिर्फ यह बताने के
लिए भी नहीं बनी थी कि भविष्य में इसे राजेश खन्ना और अमिताभ बच्चन की कैमिस्ट्री
का नया दरबाजा खोलने वाली फिल्म के तौर पर गिना जाये। ‘आनंद’ का पुनरावलोकन करें
तो इस फिल्म के कई आयाम खुलते दिखाई देते हैं।
‘आनंद’ सन् 1971 में रिलीज होती है, यानी फिल्म का निर्माण
तकरीबन एक साल पहले से शुरू हो गया था। तब अमिताभ की शख्सियत शून्य थी और राजेश
खन्ना की लोकप्रियता का अपना शिखर था। इसके बावजूद फिल्म की शुरुआत अमिताभ बच्चन
से होती है। और महज शुरुआत ही नहीं होती बल्कि फिल्म के प्रारंभिक करीब
चौदह-पंद्रह मिनट तक फिल्म अमिताभ के सहारे ही चलती है। इस फिल्म में अमिताभ को तब
साइन किया गया था जब उनकी जिंदगी पर जया का कोई प्रभाव नहीं था। ह्रषीकेश मुखर्जी
भी अमिताभ की प्रतिभा से बहुत वाकिफ नहीं थे। गुलजार ने संवाद और कहानी लिखी, तब
वे भी अमिताभ से बहुत परिचित नहीं थे। फिल्म के शुरुआती हिस्से को देखिये तो
अंदाजा लगाया जा सकता है कि अमिताभ किस गति से फिल्म की कहानी को केवल आगे बढ़ाते
नहीं दिखते हैं बल्कि स्क्रीन-प्ले के पिक्चराइजेश में बखूबी माकूल भी बैठते हैं।
यों ह्रषीकेश मुखर्जी ने अपनी फिल्मों में अनेक सितारों को इसी तरह से मौका दिया,
उनके किरदारों को उभरने का अवसर प्रदान किया लेकिन अमिताभ को इससे उनके कैरियर में
काफी लाभ मिला। फिल्म के शुरुआती चौदह मिनट का हिस्सा कत्तई बोरियत भरा नहीं है।
इसे अमिताभ की अभिनय क्षमता की बड़ी उपलब्धि के तौर पर गिना जाना चाहिये। हां, यह सच
है कि इस दौरान दर्शकों में स्क्रीन पर राजेश खन्ना के आने की पूर्वाकांक्षा बनी
रहती है। स्क्रीन प्ले का यह हिस्सा कुछ उसी तरह का था मानो स्टेज पर कोई बड़ा
सिंगर जरा विलंब से पहुंचने वाला है और तब तक दर्शकों के मनोरंजन के लिए ऑकेस्ट्रा
और नये कलाकार को परफॉर्म करने का मौका दिया गया हो। लेकिन यकीन मानिये ह्रषीकेश
मुखर्जी ने इसमें भी अपना अदम्य साहस का परिचय दिया था। आज की तारीख़ में
मुख्यधारा के सिनेमा का कोई भी निर्देशक यह चुनौती लेने को बिल्कुल तैयार नहीं हो
सकता। अब सिनेमा हॉल में दर्शकों के धैर्य और अभिरंजन का ख्याल रखना प्रमुख
प्राथमिकता है।
बहरहाल यह अमिताभ
बच्चन के एकल परफॉरमेंस की बात थी। जाहिर है चौदहवें मिनट के बाद ‘आनंद’ राजेश खन्ना के
हिस्से की फिल्म बन जाती है। अब तक राजेश खन्ना रुमानियत के प्रतिबिंब कहलाते थे।
उनकी अदायगी में शम्मी कपूर की रुमानी अदाओं के एक नये किस्म का मोडिफिकेशन देखने
को मिला था। सातवें दशक की नई पीढ़ी को उनके बदलते मिजाज के मुताबिक युवा चेहरा मिला
था। और इस खिलखिलाते चेहरे पर हर कोई फिदा हो जाना चाहता था। नई पीढ़ी के उदारवादी
अभिभावकों ने तब कपूर और देवानंद को देखते रहते के दौरान ही राजेश खन्ना की सफलता
को कुछ उसी तरह से अपनी स्वीकृति दे दी थी जैसेकि साल दो हजार की नई पीढ़ी और उनके
नव आधुनिक अभिभावकों ने ऋतिक रोशन के अंदाज और बॉडी बिल्टअप को कुबूल कर लिया था। यह
समय के साथ कदमताल की करने प्रवृति थी। यही जीवन की सकारात्मकता है। सामाजिकता के
विकास का पैमाना भी।
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'आनंद' : वो भी एक दौर था |
कहते हैं राजेश
खन्ना अपने चरम लोकप्रियता के दौर में अनजाने लोगों से एकदम बातें नहीं किया करते
थे। यहां तक कि सन् 1967 में जब अमिताभ फिल्मों में काम पाने के लिए निर्माता-निर्देशकों
से मिला करते थे उसी दौरान एक फिल्म के सेट पर राजेश खन्ना से भी उनका सामना हुआ।
परिचय कराने वाले ने कहा-‘ये हिंदी के मशहूर कवि हरिवंश राय बच्चन के बेटे हैं’। अमिताभ ने अभिवादन
किया। लेकिन राजेश खन्ना ‘हां ठीक है’ कहकर आगे निकल गये। बात क्या मुलाकात भी नहीं हो सकी। लेकिन उसी राजेश खन्ना ने ‘आनंद’ में अमिताभ के साथ जिस
तरह की प्रोफेशनल उदात्तता दिखाई उसे रेखांकित करना बहुत जरूरी है। आज की तारीख
में किसी फिल्म का मुख्य हीरो यह कत्तई बर्दाश्त नहीं कर सकता है कि उस फिल्म में
उसकी एंट्री चौदह मिनट के बाद हो। लेकिन राजेश खन्ना को इस पर कोई आपत्ति नहीं थी।
पूरी फिल्म में जहां-जहां राजेश खन्ना दिखाई देते हैं, वहां-वहां ज्यादातर दृश्य
में अमिताभ के किरदार की सक्रिय ही नहीं बल्कि समानांतर उपस्थिति बनी रहती है। कहीं
कहीं तो राजेश खन्ना अमिताभ के किरदार ही सहायक लगने लगते हैं मसलन भास्कर बनर्जी और
रेनू के प्रसंग को ही लीजिये। ऐसा लगता है यहां अमिताभ मुख्य अभिनेता हैं और राजेश
खन्ना सह-अभिनेता। इसके बावजूद उस सुपर स्टार की बॉडी लेंग्वेज एकदम सहज है। राजेश
खन्ना यहां उस तरह बिल्कुल रिफ्लेक्ट नहीं करते जैसेकि ‘गहरी चाल’ में जितेंद्र की बॉडी लेंग्वेज
अमिताभ के साथ वाले सीन में स्पार्क करती है। जितेंद्र स्क्रीन शेयरिंग में अमिताभ
को डी-फोकस करते हुये-से दिखाई देते हैं। लेकिन राजेश खन्ना एक पूरकता के साथ
स्क्रीन शेयर करते हैं। स्क्रीन पर उनमें कोई अभिमान का भाव नहीं दिखता। वास्तव
में ह्रषीकेश मुखर्जी और गुलजार ने मिलकर ‘आनंद’ में डॉ. भास्कर बनर्जी का जिस तरह का किरदार बुना है वह आनंद सहगल का पूरक
किरदार भी है और स्क्रीन पर अमिताभ ने उस पूरकता को जैसे संपूर्ण कर दिया है। ‘दीवार’ और ‘सुहाग’ में शशि कपूर का
किरदार अमिताभ के किरदार का सह-अभिनेता है लेकिन शशि कपूर की उत्तम अदायगी अमिताभ के अभिनय को
एक समानांतर संतुलन देती है। अगर शशि कपूर जानदार भूमिका नहीं निभाते तो इन
फिल्मों में अमिताभ का किरदार भी ऐतिहासिक और यादगार बमुश्किल हो पाता। यही समीकरण
‘आनंद’ में भी दिखाई देता
है। अमिताभ ने अपनी अभिनय क्षमता से राजेश खन्ना के प्रदर्शन को एक पूरकता
दी है।
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'आनंद' कभी मरते नहीं |
लेकिन ‘आनंद’ का स्मरण केवल इसी
बात के लिए नहीं किया जाना चाहिये जैसा कि मैंने लेख की शुरुआत में लिखा। फिल्म का
प्रारंभ देखिये। एक डॉक्टर झुग्गी झोंपड़ियों की संकरी गलियों में आते-जाते और
भूखे बीमार का इलाज करते हुये दिखाई देता है। और बार-बार कहता है - इलाज केवल रोग
का हो सकता है गरीबी का नहीं। आजादी के इतने साल बाद भी देश में भूख और गरीबी है। वास्तव
में ये दृश्य एक भावुक और सामाजिकता के प्रतिबद्ध डॉक्टर के किरदार को स्टैबलिश
करने के लिए लिखे गये थे। जोकि आखिरी तक अपनी इस प्रतिबद्धता पर कायम रहता है और
डॉक्टरी का पेशा करते हुए भी ‘आनंद’ नाम का एक उपन्यास लिख देता है। जिसके बाद उसे
सरस्वती सम्मान मिलता है। इसके अलावा ह्रषीकेश मुखर्जी ने इस फिल्म में तीन किस्म
की भाषा और संस्कृतियों के सम्मिलन को भी बखूबी दिखाया है। एक तरफ डॉ. भास्कर
बनर्जी हैं जोकि बंगाल की पृष्ठभूमि और पोषाक में दिखाई देते रहते है दूसरी तरफ
मरीज आनंद सहगल हैं जोकि दिल्ली-पंजाब की पृष्ठभूमि से ताल्लुक रखते हैं और तीसरी
तरफ डॉ. कुलकर्णी और उनकी पत्नी हैं जोकि मराठी परिवेश का प्रतिनिधित्व करते हैं।
गोकि फिल्म का यह मकसद कत्तई नहीं है लेकिन आर्थिक राजधानी मुंबई में ये तीनों
संस्कृतियां साथ-साथ चलती रहती हैं। इसके अलावा फिल्म में कुछ ऐसे दृश्य और संवाद भी
हैं जो फिल्म को कालजयी बनाते हैं और ह्रषीकेश मुखर्जी-गुलजार की जोड़ी की सोच की
पराकाष्ठा को दर्शाते हैं। मसलन इस दृश्य और संवाद को ही ले लीजिए...।
हॉस्पिटल
में राजेश खन्ना बेड पर लेटे हैं। ललिता पवार पास के टेबल पर बैठी आंखें बंद कर
बुदबुदा रही हैं...
राजेश-
आंखें बंद करके किससे बातें कर रही थी तुम?
ललिता
पवार - जीसस से तुम्हारे लिए दुआ मांग रही थी।
राजेश
झट से उठकर बैठ जाते हैं।
राजेश
- ये क्या किया तुमने ? मैं ठहरा शिव जी का पुजारी...अगर शिवजी को पता
चल गया कि तुम मेरे लिए जीसस से दुआ मांग रही हो तो बहुत गुस्सा हो जाएंगे वो।
ललिता
पवार का चेहरा फ्रीज्ड। अपनी चिरपरिचित चुलबुली निगाहों से राजेश खन्ना की तरफ
मुस्कराती हुई देखती रह जाती हैं...राजेश खन्ना अपनी लोकप्रिय 'बक
बक' जारी रखता है...
राजेश
- चलो, हो जाने दो शिवजी को गुस्सा...मैं तो अगले जनम
में तुम्हारा बेटा बनूंगा...
ललिता
पवार के चेहरे में झन्नाटा बजा। ये क्या कह दिया इसने...लेकिन जल्द ही संभलती
है...मुस्कराती है।
ललिता
पवार-अगले जनम क्यों...? तू तो मेरा इसी जनम का बेटा है।
निष्चय
ही आज की तारीख में किसी फिल्म में ऐसी धार्मिक टिप्पणी और प्रसंग संभव ही नहीं।
राजेश खन्ना जिस
सहजता और चपलता से शिवजी की नाराजगी की बात करता है और जिस स्थिरता से ललिता पवार
उसे मुस्कराकर ताकती रह जाती है, वह अदभुत और असामान्य है।
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'नमक हराम' : ये भी एक दौर है |
अब बात राजेश खन्ना
और अमिताभ की दूसरी फिल्म ‘नमक हराम’ की करते हैं। वैसे तो यह फिल्म वर्ग संघर्ष की कहानी कहती है। लेकिन
कालांतर में इसे अमिताभ-राजेश के संघर्ष की कहानी के तौर पर गिना जाने लगा है।
विश्लेषण में यह जायज भी है। एक दुपहरी सूर्य की तरह चमकता हुआ सुपरस्टार, दूसरा
उगता हुआ सूरज और जब दोनों को एक साथ एक प्रोजेक्ट में देखे जायें तो ऐसी व्याख्या
लाजिमी है। लेकिन मैं इस व्याख्या पर फोकस बाद में करूंगा। उससे पहले ‘आनंद’ और ‘नमक हराम’ की कुछ आम सी
बातें। मुझे दोनों फिल्म में कुछ आकस्मिक समानताएं दिखाई देती हैं। ऐसा लगता है ‘आनंद’ की अधूरी बात को ‘नमक हराम’ में पूरी करने की
कोशिश की गई है। जिस तरह से ‘आनंद’ अमिताभ से शुरू होती है उसी तरह ‘नमक हराम’ भी अमिताभ से ही शुरू होती है। अंतर केवल इतना है कि ‘आनंद’ में राजेश खन्ना
चौदह मिनट के बाद पर्दे पर आते हैं जबकि ‘नमक हराम’ में राजेश खन्ना पांच मिनट फिल्म बीतने के दिखाई देने लगते हैं। यही
नहीं राजेश और अमिताभ दोनों ही फिल्म में गहरे दोस्त की भूमिका में हैं। ‘आनंद’ की तरह ‘नमक हराम’ में भी अमिताभ को
कोई गीत नहीं मिला। इसके अलावा एक समानता और भी है जो वाकई संयोग लिये हुये है। वो
यह कि जिस तरह ‘आनंद’ में राजेश खन्ना की जीवनलीला समाप्त हो जाती है, उसी तरह ‘नमक हराम’ में राजेश खन्ना
अनंत सफर पर चले जाते हैं। अंतर सिर्फ इतना है कि ‘आनंद’ में मौत बीमारी से होती है, जबकि ‘नमक हराम’ में उस पर हमला होता है। लेकिन जीवन की समाप्ति दोनों फिल्म में है।
और दोनों ही फिल्म में अमिताभ के पास पश्चाताप और आंसू के सिवा कुछ नहीं। इसके
अलावा एक और अहम बात उल्लेखनीय है, वो यह कि दोनों ही फिल्म ह्रषीकेश मुखर्जी की
है और ‘आनंद’ में जिस भूख, गरीबी, बीमारी, झुग्गी, झोंपड़ी को महज पृष्ठभूमि में रख
कर छोड़ दिया गया था उसकी बुनियाद और उसका विस्तृत वर्गसंघर्षीय स्वरूप ‘नमक हराम’ में देखने को मिलता
है। यह वर्गसंघर्ष मजदूर और मिल मालिक का है। राजेश खन्ना मजदूर वर्ग का
प्रतिनिधित्व करते हैं जबकि अमिताभ बच्चन मिल मालिक का। लेकिन कहानी का पेंज कुछ
दुनियादारी के पेंचोखम से इतर भी नहीं। दोनों का संघर्ष दुनिया के सामने मुखौटा की
तरह है क्योंकि दोनों संघर्ष के पर्दे के पीछे जिगरी दोस्त हैं। फिल्म में मिल के
मजदूर अपने हक के लिए अलख जगाते हैं और मिल मालिक के सामने संचय की रणनीति उसके
स्वभाव की एक मजबूरी है। राजेश खन्ना अमिताभ का जासूस बन कर मजदूरों के बीच फूट
डालने आते हैं लेकिन मजदूरों की दुख दर्द भरी दुनिया को देखकर द्रवित हो जाते हैं
और दोस्ती पर खुद को कुर्बान कर देते हैं। अमिताभ बच्चन उस पर हुये हमले का इल्जाम
अपने ऊपर ले लेते हैं और प्रायश्चित करने के लिए जेल चले जाते हैं। एक दोस्त की
कुर्बानी पर दूसरे दोस्त की कुर्बानी। अपने अपने हिस्से का प्रायश्चित। एक ‘नमक हराम’ का प्रायश्चित। एक ‘गद्दार’ का प्रायश्चित।
वैसे तो यह फिल्म मालिक और मजदूर के रिश्ते का कोई समाधान का रास्ता नहीं दिखाती
लेकिन यह बताते का प्रयास जरूर करती है-कि मालिक और मजदूर के बीच हक मांगने और हक
मारने की लड़ाई सालों से चलती आ रही है और आगे भी चलती रहनी चाहिये। यही ‘नमक हराम’ का संदेश है। खुद
मिल मालिक अमिताभ बच्चन मजदूरों के नेता से कहानी के अंत में यही कहते हैं। फिल्म
में मजदूर के हिस्से की आवाज है तो मालिक की कुटिलताओं का क्रप्शन भी।
हालांकि इसी बीच
सिमी ग्रेवाल के एक संवाद में मानों फिल्मकार का फलसफा मुखर हो जाता है कि “जब चारों तरफ भूख और
गरीबी हो ऐसे में अपने पास इतना पैसा रखना पाप है।”
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'दोस्ती' से 'दुश्मनी' तक |
दरअसल ह्रषीकेश
मुखर्जी जैसी शख्सियत के सिनेमा की यही खासियत है। यहां बॉक्स ऑफिस के प्रचलित
मसालों की नहीं बल्कि मसलों पर बात होती है। यहां सितारों की नहीं, किरदारों की
अहमियत होती है। अगर ह्षीकेश मुखर्जी का सिनेमा अमिताभ बच्चन को नहीं मिला होता तो
दुनिया उनको केवल और केवल ढिशूम ढिशूम और ढांय ढांय का अभिनेता मानती। ना ही उनको
राजेश खन्ना के समक्ष परफॉर्म करने का मौका मिलता और ना ही वो खुद को उनके सामने
साबित कर पाते। यह उपक्रम एक निर्देशक की उद्यमशीलता की पहचान था। उसे किसी स्टार
को उठाना या गिराना मकसद नहीं था बल्कि कहानी और पटकथा की प्राथमिकता ज्यादा अहम
थी। इसीलिए उनकी फिल्मों में अमिताभ बच्चन को एक स्वाभाविक विकास मिलता है। ‘आनंद’ में अमिताभ ने जिस
राजेश खन्ना का रक्षात्मक सामना किया उसी अमिताभ ने दो साल बाद ‘नमक हराम’ में राजेश खन्ना को
आच्छादित कर दिया। यह अमिताभ का अपना अग्रेसन था जिसके रिफ्लेक्शन के आगे राजेश का
इमोशनल रूप की छटा जरा मद्धिम पड़ती दिखती है लेकिन उसमें एक स्थापित सुपर स्टार
के फ्लेवर को बना कर रखने की कोशिश की गई थी। वरना यह आम प्रचलन के विरुद्ध होता। शायद
यही वजह है कि फिल्म में रजा मुराद और असरानी के प्रसंग अपेक्षा से अधिक हैं और
उनके किरदार के साथ राजेश खन्ना अपने समय के प्रचलित सुपर स्टारडम को बरकरार रखने
में कामयाब होते है। ह्रषीकेश मुखर्जी को भी तब शायद यह आभास हो गया होगा लिहाजा
उन्होंने इस उपक्रम को अंजाम दिया।
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'नमक हराम' : वर्ग संघर्ष बनाम स्टार संघर्ष |
इसके बावजूद फिल्म
की कास्टिंग में राजेश खन्ना का नाम पहले आना लाजिमी था यह वक्त की नजाकत की बात
थी। लेकिन अमिताभ का नाम दूसरे या तीसरे नंबर पर नहीं बल्कि ‘एंड अमिताभ बच्चन’ के तौर पर लिखा गया
था जोकि दर्शकों की नजरों में अलग से स्टैबलिश कराने के लिए था। जाहिर है ह्रषीकेश
मुखर्जी ने कास्टिंग प्लेट में अलग से अमिताभ का नाम देकर उनकी एक स्वतंत्र सत्ता
का अनुमान पहले ही कर लिया था। फिल्म के कई दृश्यों में अमिताभ और राजेश खन्ना के
संग वाद विवाद और संवाद हुये हैं और कई जगहों पर अमिताभ बच्चन राजेश खन्ना पर
ओरिजनली भारी पड़े हैं। यह सिलसिला यहां से शुरू हुआ तो आगे कभी खत्म नहीं हुआ।
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संजीव श्रीवास्तव |
‘नमक हराम’ की कहानी भी ‘आनंद’ की तरह अमिताभ के जीवित किरदार के साथ खत्म होती है। यह कोई सायास
प्रतीक तो नहीं लेकिन सिल्वर स्क्रीन पर अनायास ही इसके बाद अमिताभ बच्चन दुपहरी
के चमकते सूर्य बन चुके थे और राजेश खन्ना का सूरज अस्ताचल की तरफ जा रहा था। इन
दोनों फिल्मों के बाद आगे किसी फिल्म में ना तो राजेश खन्ना और ना ही ‘गहरी चाल’ के बाद जितेंद्र अमिताभ
के साथ स्क्रीन शेयर कर पाते हैं। यह दो बड़े सितारों के महामिलन का अंत था।
अमिताभ ने अपने पथ पर ‘एकला चलो’ के महा अभियान की मुनादी कर दी।
(*लेखक पिक्चर प्सस के
संपादक हैं। दिल्ली में निवास।
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