फिल्म समीक्षा
पीहू
निर्देशक -
विनोद कापड़ी
कलाकार - मायरा
विश्वकर्मा
*रवींद्र त्रिपाठी
दो साल की एक
बच्ची। नाम- पीहू। वो सुबह जागती है तो पाती है उसकी मां पलंग पर चुपचाप पड़ी है। `ममा
ममा’ कहने पर भी कुछ बोल नहीं रही। मां ने आत्महत्या कर ली है क्योंकि रात
में पति से बहस हुई थी। लेकिन बच्ची इस बात से अनजान है। वो बस यही सोचती है कि
मां बोल नहीं रही है। पिता भी घर पर नहीं है। बच्ची टायलेट जाना चाहती है। मां
(यानी मां के शव) से कहती है कि उसका पाजामा खोले। लेकिन मां खोले कैसे? पीहू
किसी तरह अपना पायजामा खोलती है और टायलेट जाती है। पीहू खाना चाहती है तो जैसे
तैसे किचन में गैस का बटन दबाती है और उस पर रोटी रखती है। लेकिन उसे गैस का
चूल्हा बंद करना नहीं आता सो रोटी जल जाती है। इस तरह के कई और दृश्य हैं जिसमें
बच्ची दूध पीने और फोन पर बात करने की कोशिश करती है। घर में आग लग चुकी है और नल
का खुला पानी फर्श पर बह रहा है। दर्शक यही सोचता है कि अब क्या होगा इस बच्ची का?
निर्देशन और कला पक्ष
ये है विनोद
कापड़ी की फिल्म `पीहू’ क
सार संक्षेप। इक्यानबे मिनट की ये फिल्म दर्शक के मन में दो भावनाएं एक साथ पैदा
करती हैं। एक तो यह कि इस बच्ची का क्या होगा? जिस
फ्लैट में आग लग चुकी है और जिसमें पानी भरता जा रहा है। अकेली बच्ची का क्या बच पाएगी?
दूसरा यह कि बच्ची की मासूमियत और सहजता उसे बांधे भी ऱखती है। बच्ची को
परेशानियां हो रही हैं लेकिन वो अपने काम करती रहती है। अपनी बालकनी में खड़ी होकर
हंसती खिलखिलाती भी है। फिल्म में कोई अन्य कलाकार नहीं है। कुछ आवाजें हैं लेकिन कोई
दूसरा चरित्र नहीं। सिर्फ मायरा विश्वकर्मा है, जिसने पीहू की भूमिका निभाई है।
उसी पर पूरी फिल्म टिकी है। कुछ लोगों ने इस फिल्म की तुलना हॉलीवुड की फिल्म `होम
एलोन’ से की है। तुलना गलत है क्योंकि एक तो `होम
एलोन’ में बच्चे की उम्र अधिक है और दूसरे उसमें कई कलाकार हैं। यहां सिर्फ
एक अबोध बच्ची है।
यह विनोद कापड़ी
का बड़ा कारनामा है। इस हॉरर फिल्म भी नहीं कहा जाना चाहिए हालांकि यह हर पल
रोंगटे खड़े किए रहती है। निर्देशक का दावा है कि यह एक वास्तविक घटना पर आधारित
है। अंग्रेजी में एक कहावत भी है जिसका हिंदी में मतलब है जिंदगी कल्पना से अधिक
रोमांचक होती है। फिल्म इसे भी साबित करती है।
*लेखक जाने माने कला और फिल्म समीक्षक हैं। दिल्ली में निवास।
संपर्क-9873196343
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