‘माधुरी’ के संस्थापक-संपादक
अरविंद कुमार से
जीवनीपरक सिनेवार्ता, भाग 58
‘चाइना टाउन’ (1962) में शक्ति सामंत ने बोया था भविष्य की ‘कालीचरण’ (1976) और ‘डॉन’ (1978) और ‘डॉन’ (2006) का बीज, फिर ‘आराधना’ और ‘अमर प्रेम’ की राह पर कहीं
बहुत आगे बढ़ गए...
(नोट: ‘माधुरी’ के संस्मरणों की शृंखला में केवल अपनी याददाश्त पर आधारित नहीं रहता।
चालीस पचास साल पहले की घटनाएं पूरी तरह सही याद हों – यह नहीं कहा जा सकता। इसलिए
हर तथ्य की तहक़ीक़ात करता हूं। किसी फ़िल्म की बात तो इंटरनेट पर, यू ट्यूब पर या
किसी अन्य स्रोत से कम से कम एक देखता हूं, तभी कोई कमेंट करता हूं। शक्ति सामंत
पर यह क़िस्त लिखते समय मैंने जब ‘चाइना गेट’ दो बार देखी और उसे पिछले सालों के संदर्भ में जांचा तो...ऊपर का
शीर्षक उसी का परिणाम है-अरविंद कुमार)
सन् 1964 - शक्ति से मेरी पहली मुलाक़ात हुई चंद्रशेखर के घर। तब वह
शर्मीला टैगोर की पहली हिंदी फ़िल्म ‘कश्मीर की कली’ बना रहे थे। शक्ति में जो सौजन्य, संजीदगी, सहजता और सादगी नज़र आई,
मुझे वह अच्छी लगी। पता नहीं मैं उन्हें कैसा लगा। हम दोनों के बीच आपसी समझ का
रिश्ता बन गया।
राजेश खन्ना के साथ ‘आराधना’ में शर्मीला को
किशोर अवस्था से बुढ़ापे तक ले जाने से पहले वह शर्मीला के साथ मनोज कुमार की ‘सावन की घटा’ (1966) और शम्मी
कपूर के साथ ‘ऐन ईवनिंग इन पैरिस’ बना चुके थे। ‘आराधना’ न केवल शक्ति सामंत, बल्कि राजेश खन्ना और शर्मीला के फ़िल्मी सफ़र
में नया मोड़ लाने वाली फ़िल्म साबित होने वाली थी।
‘आराधना ’किशोरी वंदना (शर्मीला) दार्जीलिंग जाने वाली ट्रेन में सवार है, साथ-साथ
सड़क पर जीप में जा रहा वायुसेना का पाइलट अरुण (राजेश खन्ना) उसे छेड़ रहा है गा
कर -- ‘मेरे सपनों की रानी कब आएगी तू’। आखें मिलती हैं। संयोगवश अरुण अपने को पाइलट मदन (सुजित) को दिखाने
जिन वैद्य जी के पास जाता है उन्हीं की बेटी है वंदना। शीघ्र ही दोनों का प्रेम
होता है। एक दिन मंदिर में विवाह कर लेते हैं। वंदना से अपने विवाह की बात करने
अरुण अपने घर जाने का वादा करता है। लेकिन अरुण के विमान में दुर्घटनाग्रस्त होने
की ख़बर लाता है मदन। वंदना का सपना और जीवन भी धराशायी हो जाते हैं। वह मां बनती
है, किसी की सलाह पर इस आशा से बच्चे को अनाथालय में छोड़ आती है कि अगले दिन उसे
गोद ले जाएगी, पर उस से पहले कोई और बच्चे को गोद ले चुका है। वह उससे विनती करती
है, पर होता यह है कि वह बेटे सूरज की आया बन कर रहने लगती है। बच्चा बढ़ रहा है,
स्कूल जाता है। एक दिन स्कूल से लौटा तो देखा कि एक अंकल ‘मां’ (वंदना) पर बलात्कार की
कोशिश कर रहे हैं। सूरज के हाथों अंकल की हत्या हो जाती है। इलजाम वंदना अपने सर
ले लेती है। बारह साल बाद जेल से छूटती है तो उस परिवार का पता नहीं मिलता जहां वह
सूरज को पाल रही थी। अब? दयालु और भलामानस रिटायर होने वाला विधुर जेलर उसे बहन बना कर ले आया। वंदना
को उसकी बेटी रेणु अपनी ही संतान लगती है। और एक दिन रेणु का मंगेतर आता है बड़ी
आनबान से चुस्त-दुरुस्त सूरज – वायुसेना में पाइलट! वही राजेश खन्ना वंदना का बेटा!
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'आराधना' से मिली राजेश और शक्ति सामंत को लोकप्रियता |
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राजेश खन्ना और शक्ति सामंत की हिट जोड़ी |
‘आराधना’ के आंखों में आंसू लाने वाले इन अंतिम एपिसोडों की दिलचस्प कहानी है।
शूटिंग शुरू होने से एक दिन पहले शक्ति सामंत को मित्र सुरिंदर कपूर ने अपनी शशि कपूर
वाली फ़िल्म ‘एक श्रीमान एक श्रीमती’ दिखाई। दोनों के लेखक थे शचिन भौमिक। दोनों फ़िल्मों का एक ही अंत था।
शक्ति के हाथों के तोते उड़ गए। सोचा फ़िल्म कैंसल कर दें। तभी संयोगवश ‘काली घटा’ के लेखक गुलशन नंदा
उनके दफ़्तर आ निकले। उर्वर मस्तिष्क वाले गुलशन ने सुझाया अनोखा नया अंत – पिता
के साथ बेटे का डबल रोल!
एक भेंट में शक्ति ने कहा है, “मेरे सामने सब से बड़ी समस्या यह थी कि शर्मीला को बूढ़ी होने के लिए
राज़ी कैसे किया जाए। वह हिचकिचा रही थी। मैंने भरोसा दिलाते कहा कि चलो एक दिन
ऐसा करके देख लेते हैं। हमने पूरे दिन शूटिंग की। परिणाम देख कर वह सहमत हो गई।” फिर तो एक बार फिर
शक्ति ने शर्मीला को ‘अमर प्रेम’ में भी बूढ़ी बनाया।
जब मैं शक्ति से पहली बार मिला तब वह बड़े
आदमी माने जाते थे, वह बड़े लोगों में गिने जाते थे। उनके
विगत का ज्ञान मुझे नहीं था। बहुत बाद में पता चला कि ये वही हैं जिनकी अपनी
प्रोडक्शन कंपनी श्री शक्ति फ़िल्म्स की पहली पेशकश ‘हावड़ा ब्रिज’ (1958) थी।
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शक्ति सामंत-सफलता की गारंटी |
‘हावड़ा ब्रिज’ के नाम से ही मुझे याद आता है ‘मेरा नाम
चिन-चिन-चू, चिन-चिन-चू, बाबा चिन-चिन-चू / रात चांदनी
मैं और तू/ हैलो मिस्टर हाउ डू
यू डू?’ और मैं ही अकेला नहीं
हूं जिसे यह याद आता है। हाल ही में ‘हैप्पी फिर
भाग जाएगी’ में इसे याद किया
गया था। ‘सलाम बांबे’ में भी यह दोहराया गया था। वास्तव में यह हिंदी सिनेमा का क्लासिक बन गया
है। इसी गीत से गायिका गीता दत्त एक बार चमकी थीं।
यही नहीं, ‘हावड़ा ब्रिज’ का ‘आइए मेहरबां, बैठिए
जाने जां, शौक़ से लीजिए इश्क़ से इम्तिहां’ का आशा भोंसले
की आवाज़ वाला गीत भी आज तक याद किया जाता है और आशा के सदाबहार गीतों में गिना
जाता है। मैं ज़ोर दे कर कहना चाहता हूं कि शक्ति सामंत की हर फ़िल्म का संगीत
यादगार होता है। ‘हावड़ा ब्रिज’ के संगीतकार थे ओ.पी. नैयर।
‘हावड़ा ब्रिज’ की कहानी को अपराथ कथा कहना सही होगा। रहस्य रोमांच, जासूसी और
सस्पैंस – संगीत के साथ फ़िल्म को लोकप्रिय बनाने में सफल थे। बर्मा में रहने वाले प्रेम कुमार (अशोक कुमार) को
पता चलता है कि उसके बड़े भाई मदन (चमन पुरी) का कलकत्ते में क़त्ल हो गया है। मदन
परिवार की बेशक़ीमती धरोहर (नगीने जड़ा ड्रेगन जैसा मुखौटा) चुराकर भागा था और
अपराधियों के सिंडिकेट का शिकार हो कर मारा गया। उसका शव हावड़ा ब्रिज से हुगली
नदी में धकेल दिया गया। प्रेम कुमार की जासूसी की कोशिश में मददगार है तांगेवाला
श्यामू (ओम प्रकाश)। अब नाम बदल कर प्रेम कुमार बन जाता है राकेश। अपराधियों की
टोली की नर्तकी ऐड्ना (मधुबाला) राकेश को चाहने लगती है। कई दिलचस्प मोड़ों में से
एक है राकेश का अपराधियों के एक हत्याकांड में अपराधी के तौर पर फंस जाना। अंत में
प्रेम कुमार अपने लक्ष्य में सफल होता है, वह और ऐड्ना एक हो जाते हैं।
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अभिनेता बनने आए थे |
‘हावड़ा ब्रिज’ शक्ति सामंत की अपनी कंपनी श्री शक्ति फ़िल्म्स की पहली फ़िल्म थी।
इस से पहले वे 1948 से ही निर्देशक सतीश निगम के साथ सहायक निर्देशक रह चुके थे
राज कपूर की सुनहरे दिन में, और उसके बाद उन दिनों फ़िल्मकारों की पाठशाला बांबे
टाकीज़ में ज्ञान मुखर्जी और फणी मजूमदार जैसे धुरंधरों के सहायक भी रहे थे। उनके
अपने स्वतंत्र निर्देशन की फ़िल्म थी 1954 की ‘बहू’ (करण दीवान, उषा किरण, शशिकला, और प्राण)। उसके बाद उनके निर्देशन की
चार और फ़िल्मों के बाद हिम्मत करते 1957 में अपनी कंपनी के लिए ‘हावड़ा ब्रिज’ बनाई थी।
शक्ति का जन्म 13 जनवरी 1926 में हुआ था। जन्म तो बंगाल में हुआ पर
पढ़ाई एक रिश्तेदार के घर
देहरादून में। 1944 में कलकत्ता विश्वविद्यालय से बीए किया। फ़िल्म का भूत
नौजवान शक्ति को महाराष्ट्र ले आया। दापोली नाम के शहर में अध्यापन किया। बंबई आते जाते कोशिश
करते रहते अभिनेता बनने की। बन गए निर्देशक!
बंगालियों की भरमार वाली बांबे टाकीज़ में “अशोक कुमार ने सलाह दी कि स्टार बनने का सपना
छोड़ कर मैं सहायक निर्देशक बन जाऊं।” वहां ज्ञान मुखर्जी, सतीश निगम और फणी मजूमदार जैसे दिग्गजों का सहायक बन
कर जो सीखा, वह हमेशा काम आया। शक्ति ने कहीं कहा है, “बांबे टाकीज़ में मैंने प्रेमकथाएं सीखीँ और
कलकत्ते के न्यू थिएटर्स से भावुकता।”
सन् 55 में पहली शक्ति निर्देशित फ़िल्म ‘बहू’ असफल रही। अगली थ्रिलर ‘इंस्पैक्टर’ हिट हुई। अशोक कुमार और गीता बाली के साथ। वर्षा (गीता बाली) को अपनी कार
में पड़ी लाश मिलती है, जिसे वह सड़क पर डाल देती है। एक पुलिस वाला यह देख लेता
है। तहक़ीक़ात का जिम्मा मिलता है इंस्पैक्टर श्याम (अशोक कुमार) को। श्याम को विश्वास नहीं होता
कि यह उसकी प्रेमिका वर्षा ने किया है। बेहद कला कौशल से बनी इस फ़िल्म ने शक्ति
की धाक जमा दी। दो एक और फ़िल्मों के बाद शक्ति ने अपने बैनर के तले बनाई हावड़ा
ब्रिज। ‘इनसान जाग उठा’ (सुनील दत्त और मधुबाला) के बाद 1962 में बनी शम्मी कपूर, शकीला और हेलेन
के साथ आई ‘चाइना टाउन’।
मेरा ‘चाइना टाउन’ को ‘कालीचरण’ (1976) और ‘डॉन’ (1978) और ‘डॉन’ (2006) का बीज कहना पूरी तरह वाजिब है। फ़िल्म शुरू होती है एक
रेस्तरां में हेलेन के नाच और गीत से जो कलकत्ता शहर के चाइना टाउन का गुणगान करता है। यह रेस्तरां क्या है अंडरग्राउंड
अड्डा है, और डॉन है माइक (शम्मी कपूर। हम माइक को बेदिंग टब में देखते हैं, उसके
होंठो में है सिगरेट।
दार्जीलिंग में गायक शेखर (शम्मी कपूर) और राय बहादुर
दिगंबर प्रसाद राय की बेटी रीता (शकीला) का प्रेम। शेखर से छुटकारा पाने के लिए
रायबहादुर ले जाते हैं रीता को कलकत्ता। शेखर पीछे रहने वाला नहीं है। एक रात वह
रस्सी के सहारे रीता के कमरे में क्या गया रायबहादुर ने उसे पुलिस के हवाले कर
दिया। इंस्पेक्टर ने शेखर को देखा तो हैरान। अरे, यह तो हूबहू माइक है जिसे उसने
जेल में बंद कर रखा है। इंस्पेक्टर अब शेखर को माइक के चाल-ढाल की फ़िल्म दिखाता
है। और उससे अड्डे में धकेल देता है। है ना यह ‘कालीचरण’ और ‘डॉन’ के कथानक का बीज!
शक्ति ने अपनी कंपनी के 51 सालों में 43 फ़िल्म बनाईं – 37 हिंदी की
और 6 बांग्ला में। उनमें मेरे कार्यकाल के दौरान आई फ़िल्मों में मुझे ‘हावड़ा ब्रिज,’‘आराधना,’‘अमर प्रेम,’‘अनुराग’ और ‘अमानुष’ पसंद हैं। ‘आराधना’ की बात मैं शुरूआत
में ही कर चुका हूँ, और ‘हावड़ा ब्रिज’ पर भी।
‘अमर प्रेम’ विभूतिभूषण वंदोपाध्याय की बांग्ला कहानी ‘हींग कचौरी’ पर आधारित थी। पूरी
तरह कहा जाए तो उस कहानी पर आधारित बांग्ला फ़िल्म ‘निशिपद्म’ का रीमेक थी। फ़िल्म शुरू होती है पुष्पा (शर्मीला टैगोर) के पति
द्वारा उस के निष्कासन से और मां के उसे वापस रखने के इनकार से, अंततः कुटिल
पड़ोसी द्वारा उसे कलकत्ता के वेश्यालय में बेच देने से। अपने संगीत के कारण जल्दी
वह लोकप्रिय हो जाती है, और धनी आनंद बाबू (राजेश खन्ना) के उसके नित्य प्रति का
मेहमान बन जाते हैँ। अपने अप्रिय विवाह संबंध से भागते आनंद बाबू आते हैं तो साथ
लाते हैं पत्तों के दोने में स्वादिष्ट व्यंजन। एक दिन आनंद बाबू पुष्पा को बाहर हावड़ा
ब्रिज ले जाते नौका विहार के लिए। संयोगवश मैं सपत्नी इसकी शूटिंग पर पहुंच गया
था। स्टूडियो का पूरा फ़्लोर क्या था – एक बड़ी हौज बन गया था। उसके एक भाग में
बना था हावड़ा ब्रिज। शक्ति ने मुझे
समझाया – ऐसी शूटिंग लोकेशन पर असंभव होती है, इसलिए ऐसा करना पड़ता है। यहां अमर
प्रेम का सर्वाधिक लोकप्रिय गीत फ़िल्माया जा रहा था। आनंद बख्शी लिखित राहुल देव
बर्मन द्वारा संगीतबद्ध ‘चिंगारी कोई भड़के तो सावन उसे बुझाए – सावन जो आग लगाए उसे कौन बुझाए’। मेरी पसंद का इस का एक और गीत है कुछ तो लोग कहेंगे लोगों का काम है कहना।
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अरविंद कुमार |
शक्ति की भावुक फ़िल्मों की शृंखला आगे ही बढ़ती रही ‘अनुराग’ और ‘अमानुष’ जैसी महान कृतियों
तक। अपराध और थ्रिलर का ज़माना वह छोड़ आए थे। उस रास्ते नहीं लौटे तो जानबूझ कर
नहीं लौटे।
मैं तो 1978 में बंबई छोड़ आया था। अगर रहता तो शक्ति को पांच वर्षों
तक इम्पा यानी ‘इंडियन मोशन पिक्चर्स एसोसिएशन’ का प्रेसीडेंट, और वर्षों तक ‘सेंट्रल बोर्ड ऑफ़ फिल्म सर्टिफिकेशन’ का चेयरमैन और दो वर्षों तक ‘सत्यजीत रे फिल्म एंड टेलीविजन
इंस्टिट्यूट कोलकाता’ का चेयरमैन देखने का सुख साझा कर पाता।
सिनेवार्ता
जारी है...
अगली कड़ी, अगले रविवार
(नोट :
श्री अरविंद कुमार जी की ये शृंखलाबद्ध सिनेवार्ता विशेष तौर पर 'पिक्चर प्लस' के लिए
तैयार की गई है। इसके किसी भी भाग को अन्यत्र प्रकाशित करना कॉपीराइट का उल्लंघन
माना जायेगा। संपादक - पिक्चर प्लस)
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